डायरी दिनांक २७/०५/२०२२
शाम के छह बजकर चालीस मिनट हो रहे हैं ।
आखिरकार आज धारावाहिक गीता का आखरी भाग लिख दिया। इस बार की रणनीति के अनुसार सारे भाग छोटे छोटे हैं। फिर भी शव्द सीमा दस हजार के पार ही होगी। इस कहानी में भी सामान्य थीमों से अलग चित्रण है। अक्सर सामान्य दृष्टिकोण के अलावा लिखा साहित्य कम ही पुरस्कृत हो पाता है। फिर भी अलग लिखना आवश्यक है। न केवल साहित्य के लिये अपितु समाज के लिये भी।
अभी कुछ दिनों लिखने की अपेक्षा पढने पर जोर देने का विचार है। खासकर महान साहित्यकारों को पढने का। बहुत सा साहित्य तो प्रतिलिपि प्रीमियम पर भी मौजूद है। कुछ पुस्तकों का आर्डर दिया हुआ है।
कल रात मन ज्यादा खिन्न रहा। बहुत देर तक लिखने और पढ़ने की इच्छा नहीं हुई। मन की खिन्नता पर काबू पाना बहुत कठिन है।
जीवन में मन के अनुकूल बहुत कम मिलता है। फिर जितना भी मनोनुकूल मिले, उसी में संतुष्ट होना आवश्यक है। अथवा जो भी मिले, उसी में मन को ढालना आवश्यक है। फिर भी प्रयास करने के बाद भी इन दोनों स्थितियों में कोई भी आसानी से नहीं मिलती।
मैं सोचता हूँ कि जो खुद से बढकर देश या समाज को रखते रहे हैं, जिन्होंने समाज के लिये अपने प्राणों को भी बलिदान दे दिया, क्या उनके मन में स्वार्थ की भावना पैदा नहीं हुई होगी। क्या उन्हें प्राणों का भय नहीं होगा। निश्चित ही उनके मन में भी वही विचार आये होंगें जो हमारे जैसे साधारण लोगों के मन में आते हैं। फिर भी उन्होंने अपने मन को ऊपर उठाया। इसीलिये वे महापुरुष कहलाये।
जीतना उत्तम है। जीतना आवश्यक भी है। फिर भी खुद की आत्मा को मिटाकर मिली जीत भला क्या जीत है। कई बार हारकर भी जीत की भूमिका बनती है। और कई बार विजय एक बड़े हार की पृष्ठभूमि तैयार करती है।
अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम।