एक देश-एक चुनाव
लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने के मुद्दे पर लंबे समय से बहस चल रही है। इस मुद्दे पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधिआयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों कोएक साथ कराने का समर्थन किया था।
आवश्यकता
चुनावों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है। अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर नज़र डालें तो हर वर्ष किसी-न-किसी राज्य में चुनाव होते रहते है। इससे एक ओर जहां प्रशासनिकऔर नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं वही दूसरी ओर देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। ऐसी परिस्थतियों में ‘एक देश-एक चुनाव’ विचार पहली नज़र में अच्छा प्रतीत होता है| बेशक बार-बार होने वाले चुनावों के बजाय एक स्थायित्व वाली सरकार बेहतर होती है, लेकिन इसके लिये आम सहमति का होना सबसे ज़रूरी है और यह कार्य बेहद मुश्किल है। राजनीतिक सर्वसम्मति के अभाव में संविधान में आवश्यक संशोधन करना संभव नहीं होगा,
समस्याएं
इसकी राह में सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को समन्वित करने की है, ताकि दोनों का चुनाव निश्चित समय के भीतर हो सके।राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ समन्वित करने के लिये राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को तदनुसार घटाया और बढ़ाया जा सकता है, लेकिन इसके लिये कुछ संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी. इनके अलावा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के साथ-साथ संबंधित संसदीय प्रक्रिया में भी संशोधन करना होगा। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञों का यह मानना है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ की आवधारणा देश के संघात्मक ढाँचे के विपरीत सिद्ध हो सकती है।