“गीतिका”
तुम जाते हो छोड़ के अपना बचपन किस उपहार में
सौदा कर के गलबहियों की सुबहा हुई तकरार में
ले जाओ इस दौलत को अपने खाते में लिख लेना
आऊँगा जब द्वार तुम्हारे भर लूँगा अकवार में॥
बीत गए वो दिन जो हमने खेल े खाए साथ थे
कुछ तो भूल हुई होगी अपनी भी कमी त्योहार में॥
वक्त मिला है आज दीवारों पर इसको लटकाऊँगा
घूर रही है आज मुझे जो खुद ही छपी अखबार में॥
मीत मिलेंगे बहुतेरे तुझको मुझको मेरे साथी
पर न मिलेगी भाव भंगिमा खुली हुई बाजार में॥
प्रात: करे पुजारी पूजा अपना मन मंदिर सपना
हर ड्योढ़ी पर साँझ सझौती दीया जले अंहार में॥
जा रे गौतम फैल के सोना अपने बिस्तर लेटना
खिल जाएँ सलवटें पुष्प बिच खुशियाँ हर किरदार में॥
महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी