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गीतिका

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“गीतिका” तुम जाते हो छोड़ के अपना बचपन किस उपहार में सौदा कर के गलबहियों की सुबहा हुई तकरार में ले जाओ इस दौलत को अपने खाते में लिख लेना आऊँगा जब द्वार तुम्हारे भर लूँगा अकवार में॥ बीत गए वो दिन जो हमने खेले खाए साथ थे कुछ तो भूल हुई होगी अपनी भी कमी त्योहार में॥ वक्त मिला

“गीतिका” विद्रोह में आप के रोमांस नजर आता है नैनो में लिपटा कुछ सारांश नजर आता है आता जाता वक्त दिखाता है वजूद खुद का उभरे हुए अक्श का अक्षांश नजर आता है॥ ढ़के हुए बर्फ की दुश्वारियाँ अच्छी लगती छट गई बदरी तो सूर्यान्श नजर आता है॥ कोहरे की कठोर पर्त पिघ

समांत- आई, पदांत- है...... आज मेरे जन्म दिवस पर आप सभी को सादर प्रणाम करता हूँ, आशीषाकांक्षी....... “गीतिका” हमारे दिल में आ बैठे महल क्यूंकर बनाई है जमाने से तनिक पुछो चलन क्यूंकर पराई है दिवारें चींखकर कहती दरारें जुड़ नहीं सकती विचारों की नई दुनिया अलग क्यूंकर बसाई है॥ बहुत अरमान बैठे

समान्त - आना , पदान्त – हो गया | मात्रा भार- 26 "गीतिका" अंगुलियों में काजल आँख लगाना हो गया दर्पण के सामने से गुजरे जमाना हो गया सजती सँवरती रही बिंदिया चमकती माथे शौक शृंगार का वो आईना पुराना हो गया॥ अब तो शरयाम रगड़ते लोग अपना चेहरा लगी दाग दिल दिलग्गी का बहाना हो गया॥ आकर्षण अलं

“गीतिका” कुछ तो बात है आप के आशियाने में चल गुबार आए एक ही शामियाने में गुमशुम सी हवा निकली जैसे इस गली से दीवार मसगूल हुई जुड़कर बतियाने में॥ एक ही अरमान है हाथ पकड़ ले पैसा एक ही अलाव है मुराद हथियाने में॥ गरज निवाले भी चुप हो गए लगते अब कैसी मंशा उनके घिघि

शिल्प विधान, 16 यति 16= 32 मात्रा पदांत- आना, चौपाई आधारित (मापनी मुक्त)आगे है पर्वत बलवाना चलते जाना चलते जाना कदम उठा है नेक पहल है मत इतराना मत घबराना।। कई दिशाएं देख रही हैं वापस आना गले लगाना।। चोटी ऊँची खड़ा हिमाला वायु वेग झंडा लहराना।। लाले पड़ें हुए जो का

मापनी 2222 2222 2222 212 “गीतिका” मत सोचो क्या कहती दुनियाँ, अपने अपने गाँव से पाप पहर अब किसको दिखता,समय चले निज पाँव से नोट नया है ओट पुराना, आँगन अपना दरवज्जा तिल काला काली दाढ़ी में, काला कौवा कांव से॥ आज उठी है कैसी आंधी, शहर शहर उड़ते विस्तर बेसुध नींद

मापनी- 2122 2122 2122 222 “गीतिका” वक्त के दहलीज पर चलते हुए गिरते भी हम एक जैसी यह डगर रुकते हुए उठते भी हम हर घरों का दर सुहाना खान-ख़ुरमा सुलभ सभर बोल भाषा चंहकती सुनते हुए गुनते भी हम॥ गर न उठता मरहला सम्मान क्या अपमान क्या हम खड़े किरदार बन तकते

“गीतिका” सामंत- अर, पदांत- हो गया मापनी- 2122 2122 212 दिल हमारा आज शौहर हो गया हर शहर को तुरत खबर हो गया चौथ का पुजा हुआ जब रात में चाँद का दर्शन ही जौहर हो गया॥ निकला हुआ जो आसमां में देर से पूजन हुआ तो अर्श असर हो गया॥ मिल गया बरदान मीठी खीर का चाँदन

मापनी- 2122 2122 2122 212, समान्त- काफिया-- अर, रदीफ़- पर "गीतिका" उठ रही है यह नजर अब मौकए दिलदार पर पर पराए भी चलन चलने लगे एतवार पर बढ़ रही है दिल की हलचल चाहतें चढ़ने लगी हो गया विश्वास मानों खुद के ही किरदार पर।। रोज होती थी शिफारिश रोज ही फरियाद भी अब सुलह यह स

गीतिका/गजल.............मात्रा भार-26 घास पूस लिए बनते छप्पर छांव देखे हैं हाथ-हाथ बने साथ चाह निज गाँव देखे हैं गलियां पगडंडी जुड़ जाएं अपनी राह लिए खेत संग खलिहान में चलते पाँव देखे हैं॥ आँधी-पानी बिजली कड़के खुले आकाशों से गरनार तरते पोखर गागर नाव देखे हैं॥ शादी-ब्याह सगुण-निर्गुण प्रीति

"गीतिका" शाम का पहर है चांदनी भी खिली होगी आ चलें समन्दर किनारों पे गलगली होगी वो लहर उफ़नकर चूमती जो दिदारों को जान तो लो किस हसर में वो तलहटी होगी।। मौजा उछल रही होगी चिघड़ती दहाड़ती भूगर्भ में मची अब कैसी खलबली होगी।। धार नहाती होगी रिमझिम फुहार लिए मचलती होगी

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