“गीतिका”
देखों वो जा रहें हैं लगते नहा नहा के
आँचल उठाए कर से पानी बहा बहा के
फैली हुई हैं बूँदें लट गेशू भिगा रही है
उठते हैं पाँव पानी चले मानों थहा थहा के॥
अरमान तकते रहते गुमनाम जिंदगी के
उड़ता चला है बादल बिजली ढहा ढहा के॥
नयना उलझ ही जाते जब दूर होती मंजिल
चातक का भाव चाहक राहीं छंहा छंहा के॥
अति दूर की है मंजिल मिलते कहाँ किनारे
दो पाट भीग जाते उठें लहरें घहा घहा के॥
जब मौसम को सुनाने गाती है गीत कोयल
पपीहा की बोल ऋतु पर छाती सहा सहा के॥
गौतम गरज के कहता बरखा भी भीग जाती
छोड़ बूँद नभ चली है बात उठती कहा कहा के॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी