कभी...।
वह रविवार की आम सी सुबह थी। मैं एक घंटा और सोना चाहती थी जब अचानक मेरे पति विदुर ने मेरे गाल पर थपकी दी- “अरन्या!” मैंने आँखें खोलीं। “माँ को कल रात एक आतंकवादी हमले में मार दिया गया!” मैं एक पल में उठ बैठी! “माँ”? मैं उनके चेहरे को देखते हुए दोहराया। जितनी आंतकित मैं थी सुनकर शायद वह भी थे ये बात बोलते हुए। “किसकी माँ?” मैंने थोड़ी शंका के साथ पूछा कि क्या वह मेरी ही माँ के बारे में बात कर रहे हैं? उनके चेहरे पर भी शायद वही आंदेषा था, जो मेरे मन में हलचल मचा रहा था। कश्मीर में देर रात एक आतंकी हमले में मेरी मां की मौत हो गई।
बस, एक घंटे के भीतर हम जम्मू के लिए कोई फ्लाईट पकड़ने के लिए दौड़ रहे थे।
मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। वे उतने ही अच्छे थे जितना किसी भी नागरिक को होना चाहिये। वह किसी से बैर लेना पसन्द नहीं करते थे। कभी किसी को नाहक परेषान नहीं किया, फिर उनके साथ भी ऐसा?
पिताजी की मृत्यु मेरी शादी के दो साल बाद ही हो चुकी थी-,दिल का दौरा पड़ने के कारण। मेरी माँ पिछले तीन सालों से कश्मीर के पहलगाम में अकेली रह रही थीं। मैं, यहां तक कि मेरे पति विदुर तक ने उन्हें नोएडा हमारे साथ आकर रहने के लिए जोर देते रहे, लेकिावष्न किसी भी अन्य भारतीय मां की तरह, उन्होनें इन्कार ही किया। मुझे इसी बात का डर था या बहुत हत तक यकीन कि एक ना एक दिन ऐसी कोई ख़बर मुझे मिलेगी।
दोपहर लगभग 2.30 बजे हमने पहलगाम, पहुॅचें। जगह विरान थी-, भय और सन्नाटे में डूबी हुई। हर चैराहे पर सैनिकों के छोटे समूहों को हथियारों के साथ देखा जा सकता था। बड़ी मुश्किल से लोग अपने घर से बाहर निकल रहे थे। हमारा कस्बा रातों के लिए कर्फ्यू में था। हिंसा-, कर्फ्यू-, आतंक-, यह कश्मीर या मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। चेक पोस्ट पर हमारी कैब कतार में थी। हमेशा की तरह चुस्त-दुरुस्त जाँच प्रक्रिया थी, जिसे हमें बर्दाश्त करना ही था। अपनी बंदूकों के साथ सैनिक सीमा पर प्रत्येक गाडी की सावधानीपूर्वक जाँच कर रहे थे। हमने इस प्रक्रिया में बहुत समय गंवाया और मुझे फोन पर फोन आ रहे थे। पड़ोसियों के -, मेरे रिश्तेदारों के-, और करीबी दोस्त मीनाक्षी के। सभी पूछ रहे थे कि क्या हम समय पर वहां पहुंच सकते हैं?
क्या हम समय पर पहुँच सकेगें? मुझे याद है कि मेरी माँ मुझसे यही सवाल करती थी, जब भी मैं अपनी शादी के बाद उनसे मिलने जाती थी। जब हम आठ सौ अट्ठाईस किलोमीटर की दूरी तय कर रहे हों, तब देर होना आम सी बात है। वह हमें अक्सर फोन करती थी, और कभी-कभी तो मैं उसके फोन से इतनी परेषान हो जाती थी कि स्क्रीन पर उनका नंबर देखकर अपना फोन साईलेन्ट कर देती थी। और यह एक समय था कि मैं उसके कॉल की कामना कर रही थी। मैं अपने सेल फोन की स्क्रीन पर उसका नंबर देखने के लिए बैचेन थी ये जानते हुए भी कि अब उस नम्बर से कभी फोन नहीं आयेगा।
शाम पाॅच बजे विदुर और मैंने कैब से कदम नीचे रखा, और मेरी नजरें अपने घर पर गयीं। मैंने आखिरी बार एक साल पहले अपना घर देखा था। दूर से ही उसने मुझे बता दिया कि यहाॅ कुछ हुआ है, जो नहीं होना चाहिए था। इसकी हालत देखकर मेरे दिल की धड़कन दोगुनी हो गई। मकान आधा जल चुका था, और इसका ऊपरी भाग पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। यह और कुछ नहीं बल्कि एक तबाह रात का नतीजा था। दो अन्य घर, जो कि हमारे घर के करीब थे, उसी हालत में थे। “कोई ऐसा कैसे कर सकता है?” विदुर बड़बडाये। मैं उनका चेहरा देखते हुए खामोषी से आगे बढ़ गयी। कैसे कहूॅ उनसे कि यहाॅ जो कुछ होता है, हर बात के पीछे को वजह नहीं होती।
मुझे लगा था कि हमारे घर में लोगों की भीड़ लगी होगी, लेकिन आंगन में कुछ ही लोग खड़े थे। अपनी छाती पर हाथ बांधे और अपना नैतिक कर्तव्य निभाते हुए। उनके चेहरों पर बस थकन दिखी...एक मायूसी। उन्होंने मुझे आते देखा और अपनी नजरें यहाॅ-वहाॅ कर लीं। मैं अंदर की तरफ दौड़ गयी, जहाँ मेरी माँ जमीन पर लेटी हुईं थी आॅखें बन्द किये....कभी ना उठने के लिए।