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कभी

28 मई 2022

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ये पहली मौत नहीं थी जो मैनें देखी थी। कुछ तीन साल पहले इसी तरह पिताजी को भी देख चुकी थी, और वह भी इसी घर में। वह बीमार रहते थे, उनकी मौत अपेक्षित थी लेकिन माॅ की मौत मेरे लिए चैंका देने वाली थी। मुझे अपनी आॅखों पर विश्वास करने में समय लगा, कि जो मैं देख रही हॅूं, वह सच है। मेरी माॅ सच में जा चुकी। एक सफेद चादर से ढॅका हुआ उसका शरीर-, नाक और कानों के छेदों में ढुंसी हुई रूई और उसके सिरहाने जलते हुए दिये को देखकर भी मुझे यकीन करने में वक्त लगा कि वह वाकई गुजर गयी है। मैं उसके बगल में बैठी उसके चेहरे को देखती रही जो इतना बेजान कभी नहीं था। मैंने उसका ठंडा हाथ अपने हाथ में लिया और मेरे आँसुओं पर अपनी पकड़ खो दी।

मुझे याद ही नहीं कि मैं कब तक रो रही थी? मैं होश में वापस आयी जब उसे कमरे से ले जाया जा रहा था। मुश्किल से बारह लोग हमें सांत्वना देने और अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए इकट्ठा हो सकते थे, क्योंकि शहर अभी भी निगरानी में था। दूसरी ओर, हमारे इलाके में इस हमले में सात लोग मारे गए थे, इसलिए हमारे अधिकांश लोग यह नहीं तय कर पाए कि पहले किसके मातम में जायें?

प्रषासन की विशेष अनुमति पर अंतिम संस्कार किया गया।

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“हम इस हमले के खिलाफ एक शिकायत करेंगे।” मीनाक्षी ने मेरे और विदुर के लिए एक प्याले में चाय डालते हुए कहा। वह एक पुरानी सहेली है, जिसके साथ मेरा सारा बचपन बीता है। उसका परिवार (उसके पिता श्री नारायण और माँ) शाम को हमारे लिए चाय और ब्रेड़ लाए थे। 

“और क्या उम्मीद है? वे उन आतंकवादियों को पकड़ सकेगें?” विदुर ने पूछते  हुए अपनी चाय का प्याला लिया

मीनाक्षी कुछ कहने वाली थी, लेकिन उसके शब्द उसके होंठों पर ही कुचल गए। “मुझे लगता है कि तुम दोनों को यहाॅ से जल्द चले जाना चाहिये।” श्री नारायण ने मेरी तरफ देखा।

“क्या?” मेरी नजरें यूॅ ही उन पर चली गयीं

“ऐसे कैसे?” विदुर ने मुझे देखा। “मुझे लगता है कि हमें कुछ कदम उठाना चाहिए।” उसकी आॅखें मुझ पर ही थीं

“और हमें माॅ आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान करने के लिए कम से कम तेरह दिनों तक यहां रहने की जरूरत है।” मेरे कहते ही कमरे में कुछ पलों को खामोशी छा गई। 

“लेकिन तुम दोनों को पता होना चाहिये कि इसके नजीजे क्या हो सकते हैं?” नारायण जी ने कहा। “हम यहां सुरक्षित नहीं हैं।”

“हम?” विदुर ने दोहराया

“कश्मीर सिख या हिंदूओं के लिए सुरक्षित जगह नहीं रह गयी है। अगर हम मुस्लिम नहीं हैं, तो हम कभी भी मारे जा सकते हैं।” एक अन्य पड़ोसी श्री भट्टी जी भी चर्चा में शामिल हो गए।

“किसी को मारना मजाक है क्या?” विदुर ने उन पर नजर डाली “ये 2016 है 1990 नहीं।” 

नारायण जी ने दूसरी तरफ देखा और मुस्कुरा गये। “साल के नम्बर बदलने से कष्मीर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता विदुर।” उन्होनें उष्वासं छोड़ी। “रही बात कानून और और नियमों की तो वह यहां लागू नहीं होते, ये तो तुम्हें पता ही होगा?” 

“हम में से कई पुलिस, यहाॅ तक कि सेना प्रमुख तक के पास गए।” भट्टी जी ने कहा। “उन्होनें हमें सांत्वना दी। उसने हमें न्याय पर भरोसा रखने के लिए कहा-, कहा कि हम अपनी मिट्टी को न छोड़ें लेकिन कोई भी ये नहीं बता सका कि यह दहषत कब और कैसे खत्म होगी?”

विदुर मौन हो गये और मैं तो कभी से मौन ही थी। मेरे पास यहाॅ खोने के लिए अब कुछ बचा ही ना था। “कोई भी इसमें दखल नहीं देना चाहता। कश्मीर वास्तव में एक मुक्त दास है।” भट्टी जी ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा।

विदुर ने मेरी ओर देखा- जैसे पूछ रहे हो क्या करें? मैंने उन्हे। शांत रहने के लिए एक इशारा किया। मैं स्थिति को समझ सकती थी, और क्यों ना समझती? मैं यहीं पैदा हुई-, मैं यहीं पली-बढी थी। मैंने अपनी पढ़ाई उन्हीं परिस्थितियों में पूरी की और शादी के बाद भी अपने कस्बे के बारे में माँ से हर रोज़ कुछ अजीब सुनती रही। लेकिन विदुर अलग जगह से थे। उनके लिए यहाॅ की परिस्थितियों को सुनना-, समझना और स्वीकार करना वैसा ही था जैसा कि किसी संस्कारी व्यक्ति के लिए विदेषी सभ्यता को स्वीकार करना। 

भट्टी चाचा ने विदुर का रुख किया और अपना एक हाथ उनके कंधे पर रख दिया- “आतंकवादी निर्दोष लोगों को चैड़े में मार रहे हैं-, हर कोई यह जानता है और कोई भी उन हत्यारों के खिलाफ कदम नहीं उठाएगा।” उन्होंने कहा और मेरी ओर मुखातिब हुए। “मुझे आशा है कि यह आपको बताने के लिए पर्याप्त है कि यहां क्या हो रहा है।” वह कह रहे थे।

मैं और सुन नहीं पायी। मैंने मीनाक्षी को अपने साथ लिया और छत पर चली आयी। मुझे रोने और प्रार्थना करने और खुद से बात करने के लिए मौन की आवश्यकता थी। मेरी माँ शांति में विश्वास करती थी। वह साथ रहने में विश्वास करती थी। वह अपने पड़ोस में विश्वास करती थी, और वह एक संप्रदाय में विश्वास करती थी- इंसानियत। उसने कभी जिक्र तक नहीं किया कि वह असुरक्षित है या उसे इस तरह से मारा जा सकता है। 

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छत पर हवा ठंडी थी। यहाॅ के सन्नाटे में अचानक मस्जिद से तेज आवाज सुनाई दी। यह अजान थी और जीवन में पहली बार इसने मुझे झकझोर दिया था। मैं पैराफिट दीवार के सहारे खड़ी, अपने घर के सामने की सड़क के पार तक रही थी। मीनाक्षी भी मेरे साथ खड़ी उसी दिशा में देख रही थी। वहाॅ एक पुराना घर था विरान-,तन्हा। लेकिन यह इतना खाली कभी नहीं था। एक समय था जब वह अपने सदस्यों की हॅसी से झनकता रहता था। वहाॅ एक जवान लड़की रहती थी, विनीता। वह मिनाक्षी और मेरी दोस्त थी लेकिन हम दोनों से ही उम्र में दो साल बड़ी थी, इसलिए हम उसे दीदी कहते थे। पढ़ाई हो या सिलाई-बुनाई , हम बेझिझक उसकी मदद लेते थे। उससे बहुत कुछ सीखा था हमने।

मुझे अच्छे से याद है वह तारों भरी रात जनवरी 1990। हम पहले से ही लखनऊ निकलने के लिए सामान बाॅध चुके थे। मैं अपनी माँ के साथ कुछ समय अकेले छत पर बिताना चाहती थी। मैं अपने शहर की हवा से अपने फेफड़ें भर-भर कर साॅस लेना चाहती थी। उस रात को जीभर कर देख लेना चाहती थी। यहाॅ की ठण्डक और मिट्टी की महक को खुद में समेट लेना चाहती थी क्योंकि अगली सुबह ही मुझे इस जगह से हमेषा के लिए विदा हो जाना था। मेरी शादी पिताजी ने लखनऊ से ही करना तय किया था। उसकी बहुत ठोस वजह थी उनके पास...लेकिन उस रात ने उन्हें एक वज़ह और दे दी।

माँ और मैं एक कोने में बैठे थे। हम रेडियो पर एक पुराने गीत को सुन रहे थे कि विनीता के घर से कुछ शोर सुनायी दिया। माँ ने बस एक बार उस घर की तरफ देखा और तुरन्त मेरा हाथ पकड़ लिया। “चल!” मैनें उन्हें विस्मय में देखा और वह मुझे लेकर नीचे कमरे की ओर दौड़ पड़ी। जैसे ही हम मुख्य दरवाजे पर पहुँचे, हमने पाया कि यह अंदर से बंद है। मेरे पिता ने हमें तुरंत स्टोर रूम में चलने का आदेश दिया। वह भी हमारे पीछे आ गये। दरअसल विनीता के घर पर आतंकवादियों ने हमला किया था। मेरे पिता ने स्टोररूम को डबल-लॉक कर दिया। उन्होनें एक भी बल्ब ऑन नहीं किया। मेरी माँ मुझे अपने सीने में छुपाये जो रही थीं। मैं तब अठारह वर्ष की थी और मुझे ठीक-ठीक समझ नहीं आ रहा था कि वहाँ क्या चल रहा है?

शोर चीखों में बदल रहा था। यह हर दूसरे पल के साथ बढ़ता गया और इसने मेरे दिल की धड़कन को भी लगभग दोगुना कर दिया। मैं यह जानने के लिए उत्सुक थी कि वहाँ क्या हो रहा है? हमारे स्टोररूम में एक ड्रम था, जिसमें हम गेहूं का भंडारण करते थे। मैंने इसे धक्का दिया और रोशनदान के ठीक नीचे लाया। इस पर खुद को संतुलित करते हुए, मैंने बाहर झाँका। मैं विनीता के घर के सामने और दाईं ओर देख सकती थी। वह घर अंधेरे में था। केवल स्टोररूम थोड़ा रोषन था और मैंने देखा कि उसकी छोटी सी खिड़की से धुआं उठ रहा था। मैंने अपने पिताजी से इसे देखने को कहा। वह भी ड्रम पर मेरे साथ चढे और उसकी आँखें डर से फैल गईं। उन्होनें मेरी आँखों को अपने हाथ से ढक लिया। अपने जीवन में पहली बार मैंने अपने पिता के चेहरे पर डर देखा था। मेरी माँ हमें बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना कर रही थी ... प्रार्थना कर रही थी कि बस किसी तरह ये रात कट जाये।

यह अविश्वसनीय था कि सिवाय उस घर के सब कुछ इस तरह शान्त था मानों हर कोई मर गया हो इस मोहल्ले में। या वे सभी कहीं चले गए हों , लेकिन सच्चाई यह थी कि कोई भी उनकी मदद करने के लिए बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर रहा था-,हम भी नहीं।

अगली सुबह पाँच बजे के आसपास हम सभी को पता चला कि विनीता मर चुकी है। जब आंतकवादियों ने किसी कारण उनके घर पर हमला किया तो उसकी माॅ उसे लेकर स्टोर रूम में छुप गयी। जल्द ही हमलावर उन तक पहुॅच गये।  विनीता की मां को अपनी बेटी के साथ बलात्कार होने का डर था इसलिए उसने अपने ही हाथों अपनी बेटी को आग लगा दी। उसके बाद उसने खुद को भी जलाने की कोषिष की लेकिन सौभाग्य से या दुर्भाग्य से, वह मर नहीं सकती थी।

पांच साल बीत गए लेकिन आज भी मैं उस धुएं को सूंघ सकती हूॅ। मैं दर्द में विनीता की चीखें सुन सकती हूं और उसके जले हुए अंग देख सकती हूं। मैं वहीं थी जब उसके शव को एंबुलेंस में ले जाया गया था।


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कभी
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वह रविवार की आम सी सुबह थी। मैं एक घंटा और सोना चाहती थी जब अचानक मेरे पति विदुर ने मेरे गाल पर थपकी दी- “अरन्या!” मैंने आँखें खोलीं। “माँ को कल रात एक आतंकवादी हमले में मार दिया गया!” मैं एक पल में उठ बैठी! “माँ”? मैं उनके चेहरे को देखते हुए दोहराया। जितनी आंतकित मैं थी सुनकर शायद वह भी थे ये बात बोलते हुए। “किसकी माँ?” मैंने थोड़ी शंका के साथ पूछा कि क्या वह मेरी ही माँ के बारे में बात कर रहे हैं? उनके चेहरे पर भी शायद वही आंदेषा था, जो मेरे मन में हलचल मचा रहा था। कश्मीर में देर रात एक आतंकी हमले में मेरी मां की मौत हो गई।
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कभी...। वह रविवार की आम सी सुबह थी। मैं एक घंटा और सोना चाहती थी जब अचानक मेरे पति विदुर ने मेरे गाल पर थपकी दी- “अरन्या!” मैंने आँखें खोलीं। “माँ को कल रात एक आतंकवादी हमले में मार दिया गया!” मैं एक

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ये पहली मौत नहीं थी जो मैनें देखी थी। कुछ तीन साल पहले इसी तरह पिताजी को भी देख चुकी थी, और वह भी इसी घर में। वह बीमार रहते थे, उनकी मौत अपेक्षित थी लेकिन माॅ की मौत मेरे लिए चैंका देने वाली थी। मुझे

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मेरी आॅखें उस वक्त भी आसूॅओं से भर गयीं। मीनाक्षी ने मेरी ओर देखा। हम दोनों को पता था कि हम दोनों एक ही घटना के बारे में सोच रहे थे। अजान की आवाज खामोष हुई। “क्या यह तुम्हें अब भी ड़रा देता है?” उसने

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गर्म पानी के स्नान के बाद मैं हमाम से बाहर आयी। अपने कमरे में आकर मैनें खिडकी के पर्दे उठाए। कोहरे ने मेरी खिड़की के सभी शीषों को धुंधला कर दिया था। मैं उनके पार नहीं देख सकती थी। बाहर का मौसम सर्द है

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मैं सालों बाद उस गली पर पैदल चल रही थी, जो मेरे घर से निकलकर इन वादियों के घुमावदार रास्तों में कहीं विलीन हो जाती थी। उस गली के हर कदम पर मैं खुद को बिखरा महसूस कर रही थी। उस गली से भी ना जाने कितनी

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वह आदमी दुकान तक गया और मेरा थैला उठा लाया। उसने इसे मेरे चेहरे पर फेंक दिया और मेरे जाने का इंतजार करने लगा। मैंने एक बार दुकान पर नजर डाली। मुझे उस गरीब दुकानदार की चिंता थी, जो हर गुजरते पल के साथ

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आधे घंटे बादः उसने वैन को कहीं रोक दिया। एक जगह, जहाॅ मैं अपने जीवन में कभी नहीं गयी। जहाँ तक मैं देख सकती थी वहाँ तक पेड़, कोहरा, पहाड़ और घास ही दिख रहे थे। इससे पहले भी मैंने विंडशील्ड के बाहर झाॅ

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मेरी धड़कनें खुद मुझे भी सुनायी दे रहीं थीं। मैं महसूस कर सकती थी कि मेरा दिल मेरी छाती के पिंजर पर जोर से टकरा रहा है लेकिन उस रोषनी में मुझे जो दिखा उसने मुझे थोड़ी तस्सली दी। मुझे यह देखकर ताजुब्ब

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“याद नहीं।” उसने जवाब दिया  “शायद पंद्रह दिन, या उससे भी ज्यादा।” अन्य महिलाओं में से एक ने वहीं कोने से जवाब दिया। “हमारे पास दिनों की गिनती करने के लिए कुछ नहीं है। उन्होंने हमारा सब कुछ ले लिया। ”

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“तुम यहाॅ कैसे फॅसी?” अंत में सब से ज्यादा चुप रहने वाली महिला ने अपना मुंह खोला। जब से मैं यहाँ थी, मैंने पहली बार उसकी आवाज सुनी थी। उसकी आवाज हर शब्द पर कांप रही थी। “तुम कहाॅ से हो? क्या तुम भागने

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एक सेकंड में मेरे दिमाग में दर्जनों सवाल पलक कौंध गये और मैं तय नहीं कर पायी कि पहले क्या पूछूँ? मैं पूछने वाली थी कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो? लेकिन उसी क्षण मुझे याद आया कि मीनाक्षी ने मुझसे क्या कहा

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अब सारा माहौल ड़र की चादर ओढ़े खामोष होकर दुबका हुआ था। उस रोज वह कुछ घण्टे बड़े थका देने वाले थे मेरे लिए। बाकि बंधक बड़ी-बड़ी आॅखों से मुझे तक रहीं थीं, मानों कह रहीं हो कि अब हो गयी तसल्ली? मैं अपन

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मैंने बोतल एक तरफ रख दी और बच्चे की तरफ देखा। “इसे ले लो।” मैंने मुस्कुरा कर उसे आग्रह किया और पत्तल लड़कों की ओर बढ़ा दी। वे तेजी से आए और अपना मुंह भरने लगे। वे इतनी जल्दी में थे कि उन्होंने इसे ठीक

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हालात बदतर होते जा रहे थे। वह जनवरी का महीना था। ज्यादातर दिन या तो बारिश होती थी या बर्फबारी। बारीष का पानी उस घर की छत से कहीं-कहीं रिसता भी था। उससे कमरे की नमी बढ़ गयी थी और साथ ही गारे की बू भी।

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रिहान ने मेरी तरफ देखा। उसने मेरी हालत देखी और मेरा डर भी। उसने मेरे कपड़ों को देखा और फिर उसने दूसरे बंधकों को देखा। “वह फिर से नहीं आयेगा। आप सभी अब सो सकते हैं।” उसने सभी से कहा लेकिन उसकी आँखें मु

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अचानक मुझे पदचाप सुनाई दी। हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था, मुझे लगा कि यह हमारा भोजन है। “ऐ तुम!” एक लड़का अंदर आया और मैं कमरे के बीच ठहर गया। हम सब उसे ताड़ रहे थे और वह सिर्फ मुझे। वह शायद ही सत्रह

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मैं एक बार फिर हार गयी थी। मैंने अपनी मुट्ठी फर्श पर मार दी। मैं थोड़ी और देर रस्सी को क्यों नहीं थामे रह पायी? उसकी गर्दन केवल एक निषान के साथ आजाद हो गयी थी। “ह-मजादी! आज बताता हूॅ तुझे!” उसने मेरी

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मेरी रीढ़ अब तक दर्द में थी। मैं अपने पैरों पर सीधी खड़ी भी नहीं हो पा रही थी। वहाॅ किसी ने भी मुझे किसी तरह की दवा नहीं दी। दर्द से तड़पना ही एकमात्र विकल्प बचा था मेरे पास। लगभग एक दिन न तो रिहान और

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अचानक मुझे बाहर कुछ आवाजें सुनाई दीं। मैंने पहली आवाज को पहचाना-, यह अश्वश्री थी और दूसरा कुछ पुरुष था। जब तक मैं बाल्टी से कूद कर नीचे आयी तब तक दरवाजे पर एक तेज दस्तक ने मुझे चैंका दिया! “कौन?” मैं

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मैने वही किया जो उसने मुझे करने को कहा था। मैंने चलने की कोशिश की। मैं थोड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन चल सकती थी। मेरा सिर अभी भी भारी दर्द में था और मैं बहुत बीमार महसूस कर रही थी। मेरी नसों में एक ती

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वह गाड़ी चलाता रहा और विंडशील्ड से बाहर देखता रहा। यह दुखद था! यह केवल मेरे रिहान के बारे में नहीं था। मैंने वहां देखे गए प्रत्येक आतंकवादी में रिहान को पाया। उनके पास विकल्प हैं लेकिन कहां? उनकी पहचा

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जब हम उस आर्मी कैंप से निकल रहे थे तो हमें बताया कि आगे के रिकॉर्ड के लिए हमारे प्रत्येक दस्तावेज की एक प्रति उन्हे चाहिये होगी। विदुर वहीं ठहर गये ताकि उनकेा सारे कागजों की प्रतियाॅ करा कर दे सकें और

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मेरी नजर या तो सड़क पर थी या उसकी छाती पर। अभी भी खून बह रहा था। मैंने देखा कि उसकी पट्टी पर धब्बा हर मिनट के साथ अपना आकार बढ़ा रहा था। उसकी हालत गंभीर थी और मैं उसे छोड़ना नहीं चाहती थी। मैं आगे नही

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मैं गाड़ी चलाते हुए उसके अगले शब्द का इंतजार कर रही थी। मेरी नजर विंडशील्ड पर टिकी थी। “रिहान?” मैंने उसे पुकारा। “मुझे घर दिखायी दे रहा है।” मैंने उससे कहा और कुछ दूरी पर ब्रेक दबाया। मैं कोई फैसला ख

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