गर्म पानी के स्नान के बाद मैं हमाम से बाहर आयी। अपने कमरे में आकर मैनें खिडकी के पर्दे उठाए। कोहरे ने मेरी खिड़की के सभी शीषों को धुंधला कर दिया था। मैं उनके पार नहीं देख सकती थी। बाहर का मौसम सर्द है बस इतना पता था। मैंने अपनी जींस के ऊपर बादामी रंग का स्वेटशर्ट पहन रखा था, क्योंकि मैं इसमें सहज महसूस करती थी। कन्धों पर माॅ की शाल ले कर मैं उस कमरे में गयी जहाँ विदुर फर्श पर सो रहा थे। उसी कमरे में जहाँ से माँ का शव ले जाया गया था। वह तेरंहवीं तक इसी तरह जमीन पर सोने वाले थे। वह माॅ के लिए हर वह संस्कार निर्वाह कर रहे थे जो कि एक बेटे को करने चाहिए। एक कोने में छोटा सा स्टूल था जिसे गेंदें के फूलों से सजाया गया था। मेरी माँ की मुस्कुराती हुई तस्वीर के सामने अगरबत्ती महक रही थी और एक दीपक झिलमिला रहा था। विदुर ने खुद ये सब किया था। मुझे उस पर नाज़ है ... मुझे लगता है कि इतना अच्छा जीवनसाथी पाकर मैं धन्य हो गयी हॅू। मैं वही दहलीज के सहारे खड़ी उसे निहारने लगी। कभी-कभी लगता है कि ये हमारी कहानी थी ....विदुर और मेरी। इस जिन्दगी के सफर के लिए ईष्वर ने उसे ही मेरा हमसफर चुना था। कभी-कभी मुझे लगता है कि रिहान से प्यार करना मेरी किषोरावस्था का एक चरण भर था। जैसे वह सब एक सुंदर सपने और भयानक वास्तविकता के अलावा कुछ भी नहीं था।
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मीनाक्षी और उसकी मां सहित हम घर में केवल चार लोग बचे थे, और हम काफी नहीं थे। मैं सच में अपने ही घर में सहज और सुरक्षित महसूस नहीं कर रही थी। उस अधजले घर में रहना थोड़ा डरावना था, जो अब हमारी कॉलोनी में लगभग अकेला था। हमारे लगभग सभी पड़ोसी अपने घरों से दूर जा चुके थे शायद कभी ना लौटने के लिए। कभी-कभी कुछ पुलिसकर्मी घर आते थे और मुझे लगता कि काष वे तेंहरवीं तक हमारे साथ रह पाते? विदुर और मैं, टूट गए थे। हर समय, हमें एक मजबूत एहसास था कि कभी भी जिस तरह से मेरी माँ को मारा गया था उसी तरह हमें भी मारा जा सकता है।
हालाँकि मुझे तेंहरवीं से पहले घर से बाहर कदम रखना तो नहीं चाहिये था लेकिन मैं ना बाहर जाती तो कौन जाता? आगे के संस्कारों के लिए नारायण अंकल ने सामग्री की जो सूची हमें दी थी, वह सारा सामान बाज़ार से लेकर आना था। मैंने विदुर जो जगाने के लिए उसके कंधे को छुआ। “मैं जरा बाज़ार से होकर आती हूॅ।”
“एक बार फिर सोच लो?” उन्होंने उठते हुए मुझसे पूछा। मैने सिर झुका लिया। दीवार के सहारे अपनी पीठ टिकाते हुए वह आराम से बैठे और कंबल को अपनी छाती तक खींच लिया। “यहाॅ रहकर संस्कार ठीक से हो भी नहंी पायेगें। नोएड़ा जाकर करते हैं?” उन्होंने पूछा।
“मैं भागना नहीं चाहती विदुर।” और कोई शब्द नहीं मिले मुझे अपनी दषा समझाने के लिए।
“बात भागने की नहीं है-,” उनकी आवाज उठ गयी और हम दोनों ने एक साथ दूसरे कमरे में झाॅका जहाॅ मिनाक्षी की माताजी सो रहीं थीं। विदुर ने आवाज दबा ली। “बात समझदारी की है। मैं भी नहीं चाहता कि उनके संस्कारों के बीच कोई विघ्न पड़ें।”
“और वह भी नहीं चाहेगीं कि उनका आखिरी संस्कार किसी दूसरे घर में हो।” मैंने माॅ की तस्वीर देखी मेरी आँखें भर आईं। “ये घर उनके लिए सब कुछ था।”
विदुर ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया, उसे धीरे से चूमा। “मुझे बस ये फिक्र है कि हम किसी मुसीबत में ना पडे़ं।”
“कम से कम तीन दिन?” सवाल के लहजे में पूछा गया मेरा वाक्य कोई सवाल नहीं था बल्कि एक अनुरोध और एक आदेश- दोनों था।
मुझे वैसे भी रोज़मर्रा की जरूरतों के सामान के लिए बाज़ार आना ही था। मैं घर से बाहर निकलने को छटपटा भी रही थी। उस मायूसी और मातम में मेरा दम घुट रहा था। बाहर की खुली हवा और कोहरे से लदी उन खामोष गलियों के बीच से गुजरते हुए मैं ना जाने अपनेआप से क्या बातें करना चाहती थी? ना जाने क्या अफसोस था जो उस घर में निकल नहीं रहा था और माॅ की शाल से ढॅकें चेहरे में मेरे आॅसू देखने वाला भी कोई नहीं था। शायद मैं ये मातम सिर्फ अपनेआप के साथ ही मनाना चाहती थी। वैसे भी उस माहौल में विदुर का बाहर निकलना ज्यादा असुरक्षित था। मैं अपने कस्बे के बारे में विदुर से बहुत ज्यादा जानती थी। मैं बेहतर समझ सकती थी कि कब हवा तूफानों में बदल सकती थी है?