मेरी धड़कनें खुद मुझे भी सुनायी दे रहीं थीं। मैं महसूस कर सकती थी कि मेरा दिल मेरी छाती के पिंजर पर जोर से टकरा रहा है लेकिन उस रोषनी में मुझे जो दिखा उसने मुझे थोड़ी तस्सली दी। मुझे यह देखकर ताजुब्ब हुआ कि मैं वहां अकेली औरत नहीं थी। पहली ही नजर में मैं गिन तो नहीं सकी लेकिन उनमें दो लड़कों सहित छह से अधिक औरतें थीं। एक कोने में दुबके हुए उन सभी के चेहरों पर आतंक और भय साफ दिख रहा था। कमरे में दो दरवाजे थे। पहला दरवाजा मुख्य दरवाजा था जिससे हम अन्दर दाखिल हुए थे, और दूसरा छोटा सा दरवाजा जो मुख्य दरवाजे के बाईं ओर था। वह बंद था। धूप के लिए उस कमरे में रोषनदान तक नहीं दिखा मुझे। कमरा लकड़ी और फर्श का बना था। पहली साॅस में जो बू मेरे फेफड़ों में भर गयी थी उसी से मैने अनुमान लगा लिया था कि कमरे में सालों से ताला लगा था। वहाॅ की हवा में लकड़ी, गारे और नमी की गंध थी। इससे पहले कि मैं कुछ और समझ पाती, उनमें से एक मेरे पास आया और मेरे कानों से सोने की बालियां, कंगन, मंगलसूत्र, अंगूठी सभी कुछ निकाल लिया। उसके बाद, उसने मुझे इस तरह कोने पर धकेला कि मैं लगभग बाकियों के ऊपर ही गिर पड़ी।
वे सभी मुझ पर बुरी तरह हँसे। “नाजुक लड़की।” एक ने कहा। “हाँ, नरम और चिकनी ...” मेरी ओर देखते हुए एक अन्य ने अपने होंठ को थोड़ा टेढ़ा किया। “मुझे शहरी माल पसंद हैं।” वे चार मुंह खुल कर बकवास कर रहे थे, जबकि उनकी आठ आंखें मुझ पर केंद्रित थीं। मुझे लगा जैसे उनकी नजरों से मेरी त्वचा जल रही है और राख में बदल रही है। अपनी बाॅहें खुद पर लपेट कर मैं और सिकुड कर बैठ गयी। मैं उसमें छिप जाना चाहती थी। उन सभी के इरादे बुरे थे और मैं इसे सूंघ सकती थी-, महसूस कर सकती थी। अन्य महिलाओं को भी मामला आसानी से समझ आ रहा था लेकिन वे सभी यहाॅ-वहाॅ नज़रें किये खामोष बैठी रहीं। जितना मैं उनका अवलोकन कर पायी, उन्होंने यहाँ बहुत बुरा समय देखा था और वही उम्मीद वह मेरे लिए भी कर रहे थे। यह उनके लिए कोई नई बात नहीं थी।
“कौन नया है?” एक सख़्त आवाज़ ने उन आतंकवादियों को अचानक छितरा दिया। एक और आदमी! मैंने खुद से कहा और उसकी तरफ देखा। लालटेन की मंद रोशनी में मैंने देखा कि उसकी आँखें मुझ पर केंद्रित थीं, और अगर मैं गलत नहीं थी, तो वह काफी चकित था मुझे देखकर मानों उसके दोस्त किसी परग्रही को वहाॅ ले आयें हों। वह मुझे देखकर खुष था या दुखी या क्रोधित ... मैं नहीं कह सकती। मुझे उसकी नाली और फटी आँखों से बचने के लिए दूसरी ओर देखने लगी।
“तुमने अपना काम किया युसुफ, अब बाहर आओ।” जो आखिर में आया था उसने कहा।
“भाई बस थोड़ी देर में आते हैं।” उनमें से एक ने बढ़कर जवाब दिया जो कि उम्र में कुछ 22-23 साल का होगा।
उन नीली आँखों में थोड़ा गुस्सा उभरा। शायद वह उनसे सहमत नहीं था ... क्यों? मुझे नहीं पता। उसने उन सभी को पलभर को ताका और फिर-“चीफ ने एक मीटिंग रखी है।” उसने उन सभी से कहा। उसके सारे दोस्त मुझ पर नजर रखते हुए, एक के बाद एक बाहर निकलने लगे। उन सभी के जाते-जाते मेरी बाॅहों का कसाव खुद पर से ढीला होता जा रहा था लेकिन ये भी तय था कि वे वापस आयेगें।
अब आखिर में बचा था वह नीली आॅखों वाला जो लालटेन थामे अब तक मुझे उसी विस्मित दृष्टि से देख रहा था। मुझे पता था कि वह मेरे बारे में सोच रहा था और वह कुछ परेषान भी लगा मुझें। लेकिन आखिर वह मुझे देखकर परेषान क्यों है-, ये मैं समझ नहीं पायी। मैं उसकी आॅखों में तकती रही जब तक कि वह भी बाहर ना चला गया।
जब कमरे में फिर से अंधेरा था, तो मैंने बेहतर महसूस किया क्योंकि कोई भी अब मुझे नहीं देख सकता था। मैं अपने दुर्भाग्य पर अब जीभर कर रो सकती थी। मुझे पता था कि अन्य सभी कैदी मेरी दिशा में देख रहे थे लेकिन मैंने उनकी कोई परवाह नहीं की। वे मेरे दोस्त, रिश्तेदार या कुछ भी नहीं थे। उस वक्त मेरे लिए कोई मायने रखता था या मुझे किसी का ख्याल था तो वह थे विदुर या मेरी दिवंगत मां। मैं एक अज्ञात क्षेत्र में फंसी हुई थी, जिसके बारे में विदुर तो क्या मैं भी नहीं जानती थी। “हे ईष्वर!” मैंने अपनी मुट्ठी बांध ली। “मैं कहाँ हूँ?” मैं बड़बड़ायी। विदुर मेरा इंतजार कर रहे होगें। बल्कि अब तक तो वह मुझे खोजने लगे होगें। काश, अगर मीनाक्षी या उसके पिता उन्हें देखने आते तो ... काष वे विदुर को समझा पाते कि मेरा इंतजार ना करे और वापस नोयडा लौट जायें।
“अब हम फिर से आठ हो गये।” एक धीमी सी आवाज ने मेरा ध्यान भंग किया। कमरे में अंधेरा था लेकिन, अब हम एक-दूसरे को देख सकते थे। शायद मेरी आंखों को अंधेरे की आदत पड़ गई। वह छब्बीस से अट्ठाईस के बीच की होगी। उसकी निगाह मुझ पर टिकी थी। “क्या उन्होंने तुम्हें पीटा?” उसने पूछा। मैंने अपना सिर हिला दिया। “क्या उन्होंने तुम्हारा बलात्कार किया?”
“नहीं।” मैने कहा और नजरें चुरा लीं। मैं उनकी नजरों के सामने सहज नहीं हो पा रही थी। वह करीब आई और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया। “मैं अश्विश्री।” उसके अंदाज से वह एक पढ़ी-लिखी लड़की लगी मुझे और कुछ समझदार भी।
मैंने उसका हाथ धीरे से थामा। “आप यहाँ कब से हैं?”