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कभी

28 मई 2022

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“तुम यहाॅ कैसे फॅसी?” अंत में सब से ज्यादा चुप रहने वाली महिला ने अपना मुंह खोला। जब से मैं यहाँ थी, मैंने पहली बार उसकी आवाज सुनी थी। उसकी आवाज हर शब्द पर कांप रही थी। “तुम कहाॅ से हो? क्या तुम भागने की कोशिश करोगी?” उसके पास बहुत सारे सवाल थे। मैंने जवाब नहीं दिया। जिस तरह से वह मुझे घूर रही थी, वह बहुत अजीब था। मैं एक ओर तकने लगी।

Û Û Û Û Û

जल्द ही मुझे अपने थैले के बारे में याद आया। वह अभी भी मेरे साथ ही था। मैंने उसे अपने सीने तक चिपका लिया। “मुझे माफ करना माॅ।” मैं सिसक पड़ी। माॅ के लिए जो करने यहाॅ आयी थी-, वह अधूरा रह गया। दूसरी ओर विदुर भ्ज्ञी मेरे कारण फॅस चुके थे। कभी लगता कि विदुर को यह पता नहीं होना चाहिए कि मैं कहाॅ हूॅ और कभी ये कि काष उसे किसी तरह पता चल जाये। ये निष्चित था कि विदुर मेरे लिए फिक्रमंद होगंे और मेरे लौटने की प्रतीक्षा कर रहे होगें। मैं बस किसी तरह उस नर्क से निकल भागना चाहती थी....चींखना चाहती थी! लग रहा था जैसे मेरे सोच-सोचकर मेरे दिमाग की नसें फट जायेगीं। मैं इंतजार करने की हालत में नही थी। मैं दरवाजे की ओर लपकी! मैंने उसे खोलने की कोशिश की लेकिन वह दूसरी तरफ से बंद था। मैं ये दो मिनट पहले ही तय कर चुकी थी कि वे लोग मुझे यहाँ नहीं रख सकते। जो मन चाहा, वह नहीं कर सकते मेरे साथ। मेरी अपनी जिन्दगी से खेलने का हक मैं किसी को नहीं दे सकती। मेरी परवरिष ऐसी ही हुई थी कि मैनें अपने अधिकारों को छीनना सीखा था। या तो मैं वहाॅ से निकल जाऊंगी या मर जाऊंगी। मैं दरवाजे को पूरी ताकत से झटकती रही-,धक्का देती रही और कई लातें भी मारी। 

“अरे! क्या कर रही हो?” - “ऐसा मत करो-, रूक जाओ!” अन्य डर में चिल्ला रहे थे लेकिन मुझे परवाह नहीं थी। मैंने अपना दिमाग और धैर्य खो दिया था। मैं एक कैदी होने के बजाय मरने के लिए तैयार थी।

जल्द ही मैंने कुछ तेज़ कदमों की आहटें सुनीं। कोई हमारे पास आ रहा था। मैंने एक कदम पीछे लिया और दरवाजा भडाक से खुल गया। कमरे में सूरज का प्रकाश से भर गया और उसने एक पल के लिए मुझे अंधा सा कर दिया। मेरी चैंधियाती आॅखों ने दहलीज पर दो साये देखे। एक दरवाजे के पार खड़ा था और दूसरा अंदर आ गया। यह निश्चित था कि वह मेरे पास आ रहा था। जैसे ही वह करीब आया, मैंने उसके दोनों पैरों के बीच में लात मारी। वह दर्द में नीचे झुका। उसकी पिस्तौल एक तरफ गिर गई। मैंने लपक कर पिस्तौल को अपने हाथों में ले लिया। अगले ही पल, मैं उसके चेहरे पर पिस्तौल ताने सीधी खड़ी थी। हाॅलाकि मुझे पिस्तौल इस्तेमाल करना नहीं आता था लेकिन ये बात मैं अपने चेहरे पर आने ही नहीं दे रही थी। मेरी छाती के छब्बीस हड्डियों में मेरा दिल कांप रहा था, लेकिन मेरे हाथ अचल थे। मेरी नजरें उस पर केंद्रित थी और मेरी पूरी चेतना भी। मैं उसकी एक गलत चाल पर ट्रिगर खींचने के लिए तैयार थी। अपने हाथ हवा में उठाए वह धीरे से खड़ा हुआ। उसकी नजरें भी मुझ पर जमीं थीं, उठ खड़ा हुआ, लेकिन वह डरा हुआ नहीं लग रहा था, केवल मेरी हरकत पर चैंक सा गया था। मैं धीरे-धीरे दरवाजे की ओर कदम ले रही थी कि उसने एक नाम पुकारा।

मुझे परवाह नहीं थी कि उसने किससे मदद मांगी या किसे पुकारा, क्योंकि मेरी सारी चेतना उसे काबू रखने पर केंन्द्रित थी। मैं पिस्तौल के बैरल को एक इंच भी हिलाने का खतरा नहीं उठा सकती थी। लेकिन उसका वह दोस्त जो अब तक दरवाजे के पार खड़ा तमाषा देख रहा था, उसकी पुकार पर अन्दर आने लगा। मैंने केवल एक बार उसकी तरफ देखा। एक नजर में मैं सिर्फ इतना ही देख पायी कि उसके होंठ आपस में भिंचे हुए थे शायद वह अपनी मुस्कान को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा था। मुमकिन है कि उसे अपने दोस्त की हालत पर हॅसी आ रही थी और मैंने एक पिस्तौल देखी, जो उसकी बेल्ट से चिपकी हुई थी। मुझे पता था कि वह उसका इस्तेमाल कर सकता है, लेकिन उसने अपनी पिस्तौल को हाथ तक नहीं लगाया। “आराम से-,आराम से।” मुझे यह नहीं पता था कि उसने यह वाक्य मुझसे कहे होगें या अपने दोस्त से, लेकिन आ तो वह सीधे मेरे ही पास रहा था जैसे कि मैं पिस्तौल नहीं अंगूर का गुच्छा पकड़े खड़ी हूॅ। उसे मुझसे कोई ड़र नहीं लग रहा था। 

बस एक पल को वह मेरे सामने आया और इससे पहले कि मैं अपना निषाना बदल कर उस पर साध पाती, मेरे हाथों को एक झटका सा लगा और वह खाली थे। मेरी पिस्तौल उसके हाथों में कब पहुॅची-,मुझे महसूस तक ना हुआ। वह बहुत तेज था।

मैंने मौका गंवा दिया। अफसोस में मैंने सिर झटक लिया।

मेरी पिस्तौल हाथ से जाते ही पहले आदमी ने मुझे एक तरफ धकेल दिया। एक के बाद एक उसने मुझे थप्पड़ मारे, जब तक कि मेरे मुंह से खून नहीं निकल अया। उसका साथी एक बस छह फीट दूर था हमसे और अन्य बंधकों को धमका कर शान्त रखने में व्यस्त था। वह जानता था उस कमरे के इस कोने में क्या चल रहा है लेकिन उसने अपना चेहरा कुछ यूॅ बनाया हुआ था, मानों यहाॅ कुछ हो ही ना रहा हो। उसका साथी इस ओर मुझे लात-घूॅसे मारता ही रहा। मुट्ठी से मेरे बाल पकडे़ मुझे पीटता रहा। कई बार उसके हाथ और उंगलियाँ मेरे स्तनों पर से भी गुजरीं और यह संयोग नहीं था, बल्कि सोची-समझी कोषिषें थीं। मैंे अपनी पूरी ताकत लगाकर उसके गन्दे हाथ अपने शरीर से दूर करती और वह फिर बेषर्मों की तरह वैसी ही कोषिष करता। हम दोनों भी जानते थे कि यह कमरा उसके अधिकार क्षेत्र में आता है और अन्य कैदी-, इसीलिए सभी डर में चुप हो गये। छोटे बच्चे मेरी हालत देख कर बिलखने लगे थे और वयस्क अपने हाथों से आॅखों को ढँक रहे थे। एक जोरदार घूॅसा और पड़ा मेरी कनपटी पर और मैं लड़खड़ा कर फर्ष पर गिर पड़ी। “मुझे उससे निपटने दो।” अंत में उसके साथी ने हस्तक्षेप किया। यद्यपि मेरे कान सुन्न हो गए थे, फिर भी मैं उनकी आवाज को स्पष्ट रूप से सुन सकती थी। उन्होंने सीधे लहजे का इस्तेमाल किया था जिसमें कोई ख्याल या हमदर्दी की गंद ना थी। जो मुझे पीट रहा था, उसने अपने हाथ-पैर चलाने बन्द किये और मुझे घूरते हुए-“उससे कहो, इतना स्मार्ट खेलने की जरूरत नहीं है यहाॅ।” - और तेजी से दरवाजा पटकते हुए बाहर निकल गया। मैं खुद को सम्हालते हुए उठकर खडी़ हुई। उन ताजे जख्मों पर उस वक्त दर्द इतना नहीं था। 

उसका साथी जो यहाॅ हमारे साथ छूट गया था, वह तुरन्त मेरे पास आया। “तुम क्या कर रहीं हो?” उसने मुझसे पूछा। मैंने जवाब नहीं दिया। मैं देना ही नहीं चाहती थी और मैने उसके कमीने चेहरे की तरफ देखा तक नहीं। मैं बस एक कोने को घूरती रही। “मैं क्या पूछ रहा हूॅ तुमसे?” उसने सवाल बदला। मेरी आँखें जल रही थीं ... और आँसुओं से भर गई। मुझे पता था कि यहाॅ किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं होगा। “अरन्या!” उन्होंने मेरे कंधे पकड़ कर मुझे झकझोर दिया।

क्या-? अब मुझे उस चेहरे को देखना ही पड़ा। “रिहान?” मैंने अपना मुंह ढक लिया। यह वह है? होली शिट! मैं उसे कैसे नहीं पहचान सकी? मुझे अपनी आॅखों पर यकीन नहीं हो रहा था। रिहान मुझसे बस कुछ इंच की दूरी पर था। पिछले छह वर्षों में वह बहुत बदल गया है। आखिरी बार जब मैंने उसे देखा था, वह बीस साल का आकर्षक और साफ चेहरे वाला हुआ करता था, लेकिन अब। उसका आधा चेहरा उसकी घनी दाढ़ी में ढंका हुआ था ... उसके चेहरे का आकर्षण खो गया था, लेकिन उसकी आॅखें....आॅखें वही थीं।


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वह रविवार की आम सी सुबह थी। मैं एक घंटा और सोना चाहती थी जब अचानक मेरे पति विदुर ने मेरे गाल पर थपकी दी- “अरन्या!” मैंने आँखें खोलीं। “माँ को कल रात एक आतंकवादी हमले में मार दिया गया!” मैं एक पल में उठ बैठी! “माँ”? मैं उनके चेहरे को देखते हुए दोहराया। जितनी आंतकित मैं थी सुनकर शायद वह भी थे ये बात बोलते हुए। “किसकी माँ?” मैंने थोड़ी शंका के साथ पूछा कि क्या वह मेरी ही माँ के बारे में बात कर रहे हैं? उनके चेहरे पर भी शायद वही आंदेषा था, जो मेरे मन में हलचल मचा रहा था। कश्मीर में देर रात एक आतंकी हमले में मेरी मां की मौत हो गई।
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कभी...। वह रविवार की आम सी सुबह थी। मैं एक घंटा और सोना चाहती थी जब अचानक मेरे पति विदुर ने मेरे गाल पर थपकी दी- “अरन्या!” मैंने आँखें खोलीं। “माँ को कल रात एक आतंकवादी हमले में मार दिया गया!” मैं एक

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ये पहली मौत नहीं थी जो मैनें देखी थी। कुछ तीन साल पहले इसी तरह पिताजी को भी देख चुकी थी, और वह भी इसी घर में। वह बीमार रहते थे, उनकी मौत अपेक्षित थी लेकिन माॅ की मौत मेरे लिए चैंका देने वाली थी। मुझे

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मेरी आॅखें उस वक्त भी आसूॅओं से भर गयीं। मीनाक्षी ने मेरी ओर देखा। हम दोनों को पता था कि हम दोनों एक ही घटना के बारे में सोच रहे थे। अजान की आवाज खामोष हुई। “क्या यह तुम्हें अब भी ड़रा देता है?” उसने

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गर्म पानी के स्नान के बाद मैं हमाम से बाहर आयी। अपने कमरे में आकर मैनें खिडकी के पर्दे उठाए। कोहरे ने मेरी खिड़की के सभी शीषों को धुंधला कर दिया था। मैं उनके पार नहीं देख सकती थी। बाहर का मौसम सर्द है

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मैं सालों बाद उस गली पर पैदल चल रही थी, जो मेरे घर से निकलकर इन वादियों के घुमावदार रास्तों में कहीं विलीन हो जाती थी। उस गली के हर कदम पर मैं खुद को बिखरा महसूस कर रही थी। उस गली से भी ना जाने कितनी

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वह आदमी दुकान तक गया और मेरा थैला उठा लाया। उसने इसे मेरे चेहरे पर फेंक दिया और मेरे जाने का इंतजार करने लगा। मैंने एक बार दुकान पर नजर डाली। मुझे उस गरीब दुकानदार की चिंता थी, जो हर गुजरते पल के साथ

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आधे घंटे बादः उसने वैन को कहीं रोक दिया। एक जगह, जहाॅ मैं अपने जीवन में कभी नहीं गयी। जहाँ तक मैं देख सकती थी वहाँ तक पेड़, कोहरा, पहाड़ और घास ही दिख रहे थे। इससे पहले भी मैंने विंडशील्ड के बाहर झाॅ

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मेरी धड़कनें खुद मुझे भी सुनायी दे रहीं थीं। मैं महसूस कर सकती थी कि मेरा दिल मेरी छाती के पिंजर पर जोर से टकरा रहा है लेकिन उस रोषनी में मुझे जो दिखा उसने मुझे थोड़ी तस्सली दी। मुझे यह देखकर ताजुब्ब

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“याद नहीं।” उसने जवाब दिया  “शायद पंद्रह दिन, या उससे भी ज्यादा।” अन्य महिलाओं में से एक ने वहीं कोने से जवाब दिया। “हमारे पास दिनों की गिनती करने के लिए कुछ नहीं है। उन्होंने हमारा सब कुछ ले लिया। ”

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“तुम यहाॅ कैसे फॅसी?” अंत में सब से ज्यादा चुप रहने वाली महिला ने अपना मुंह खोला। जब से मैं यहाँ थी, मैंने पहली बार उसकी आवाज सुनी थी। उसकी आवाज हर शब्द पर कांप रही थी। “तुम कहाॅ से हो? क्या तुम भागने

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एक सेकंड में मेरे दिमाग में दर्जनों सवाल पलक कौंध गये और मैं तय नहीं कर पायी कि पहले क्या पूछूँ? मैं पूछने वाली थी कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो? लेकिन उसी क्षण मुझे याद आया कि मीनाक्षी ने मुझसे क्या कहा

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अब सारा माहौल ड़र की चादर ओढ़े खामोष होकर दुबका हुआ था। उस रोज वह कुछ घण्टे बड़े थका देने वाले थे मेरे लिए। बाकि बंधक बड़ी-बड़ी आॅखों से मुझे तक रहीं थीं, मानों कह रहीं हो कि अब हो गयी तसल्ली? मैं अपन

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मैंने बोतल एक तरफ रख दी और बच्चे की तरफ देखा। “इसे ले लो।” मैंने मुस्कुरा कर उसे आग्रह किया और पत्तल लड़कों की ओर बढ़ा दी। वे तेजी से आए और अपना मुंह भरने लगे। वे इतनी जल्दी में थे कि उन्होंने इसे ठीक

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हालात बदतर होते जा रहे थे। वह जनवरी का महीना था। ज्यादातर दिन या तो बारिश होती थी या बर्फबारी। बारीष का पानी उस घर की छत से कहीं-कहीं रिसता भी था। उससे कमरे की नमी बढ़ गयी थी और साथ ही गारे की बू भी।

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रिहान ने मेरी तरफ देखा। उसने मेरी हालत देखी और मेरा डर भी। उसने मेरे कपड़ों को देखा और फिर उसने दूसरे बंधकों को देखा। “वह फिर से नहीं आयेगा। आप सभी अब सो सकते हैं।” उसने सभी से कहा लेकिन उसकी आँखें मु

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अचानक मुझे पदचाप सुनाई दी। हमने सुबह से कुछ नहीं खाया था, मुझे लगा कि यह हमारा भोजन है। “ऐ तुम!” एक लड़का अंदर आया और मैं कमरे के बीच ठहर गया। हम सब उसे ताड़ रहे थे और वह सिर्फ मुझे। वह शायद ही सत्रह

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मैं एक बार फिर हार गयी थी। मैंने अपनी मुट्ठी फर्श पर मार दी। मैं थोड़ी और देर रस्सी को क्यों नहीं थामे रह पायी? उसकी गर्दन केवल एक निषान के साथ आजाद हो गयी थी। “ह-मजादी! आज बताता हूॅ तुझे!” उसने मेरी

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मेरी रीढ़ अब तक दर्द में थी। मैं अपने पैरों पर सीधी खड़ी भी नहीं हो पा रही थी। वहाॅ किसी ने भी मुझे किसी तरह की दवा नहीं दी। दर्द से तड़पना ही एकमात्र विकल्प बचा था मेरे पास। लगभग एक दिन न तो रिहान और

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अचानक मुझे बाहर कुछ आवाजें सुनाई दीं। मैंने पहली आवाज को पहचाना-, यह अश्वश्री थी और दूसरा कुछ पुरुष था। जब तक मैं बाल्टी से कूद कर नीचे आयी तब तक दरवाजे पर एक तेज दस्तक ने मुझे चैंका दिया! “कौन?” मैं

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मैने वही किया जो उसने मुझे करने को कहा था। मैंने चलने की कोशिश की। मैं थोड़ी मुश्किल से ही सही लेकिन चल सकती थी। मेरा सिर अभी भी भारी दर्द में था और मैं बहुत बीमार महसूस कर रही थी। मेरी नसों में एक ती

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वह गाड़ी चलाता रहा और विंडशील्ड से बाहर देखता रहा। यह दुखद था! यह केवल मेरे रिहान के बारे में नहीं था। मैंने वहां देखे गए प्रत्येक आतंकवादी में रिहान को पाया। उनके पास विकल्प हैं लेकिन कहां? उनकी पहचा

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जब हम उस आर्मी कैंप से निकल रहे थे तो हमें बताया कि आगे के रिकॉर्ड के लिए हमारे प्रत्येक दस्तावेज की एक प्रति उन्हे चाहिये होगी। विदुर वहीं ठहर गये ताकि उनकेा सारे कागजों की प्रतियाॅ करा कर दे सकें और

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मेरी नजर या तो सड़क पर थी या उसकी छाती पर। अभी भी खून बह रहा था। मैंने देखा कि उसकी पट्टी पर धब्बा हर मिनट के साथ अपना आकार बढ़ा रहा था। उसकी हालत गंभीर थी और मैं उसे छोड़ना नहीं चाहती थी। मैं आगे नही

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मैं गाड़ी चलाते हुए उसके अगले शब्द का इंतजार कर रही थी। मेरी नजर विंडशील्ड पर टिकी थी। “रिहान?” मैंने उसे पुकारा। “मुझे घर दिखायी दे रहा है।” मैंने उससे कहा और कुछ दूरी पर ब्रेक दबाया। मैं कोई फैसला ख

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