मैं सालों बाद उस गली पर पैदल चल रही थी, जो मेरे घर से निकलकर इन वादियों के घुमावदार रास्तों में कहीं विलीन हो जाती थी। उस गली के हर कदम पर मैं खुद को बिखरा महसूस कर रही थी। उस गली से भी ना जाने कितनी यादें जुड़ी थीं और हर जगह मुझे मैं ही दिख रही थी....कभी स्कूल से वापस आते हुए....कभी बर्फ हाथों में समेटकर उसकी बाॅल बनाते हुए....कभी मीनाक्षी के साथ हॅसते हुए टहलते हुए। उस रोज़ भी गली के किनारों पर सेब और देवदार के पेड़ वैसे ही खुद पर कोहरे के हजारों सर्द मोती सहेजे साॅस रोके खड़े थे।
उस सुबह शहर पिछली रात की तरह शून्य नहीं था। मैंने कई पुलिसकर्मियों और सैनिकों को शहर में गश्त करते देखा। शहर में अड़तालीस घंटे से कर्फ्यू लगा हुआ था। त्रासदी के बाद यह दूसरी सुबह थी और हमारे शहर को दिन के समय कर्फ्यू में छूट मिली हुई थी। मैंने देखा, ज्यादातर दरवाजे बंद थे। मैं अपने कुछ परिचित लोगों से मिली भी जिन्होंने मेरी माँ के बारे में पूछा और उनकी मृत्यु पर मुझे सांत्वना दी। मुझे उनके शब्दों में उसी डर की बू आ रही थी। भट्टी चाचा की तरह, उन्होंने भी मुझे हिंदुओं और मुसलमानों के बारे में वही पुरानी कहानी सुनाई। उन्होंने मुझे बताया, कैसे उन खामोष सड़कों पर हिंसा का सांप रेंग रहा था। लोग एक-दूसरे से डरते थे। उनका मानना था कि कभी भी-, कुछ भी हो सकता है।
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हवा में कोहरा इतना घना था कि महज पांच या छह मीटर की दूरी के बाद देख पाना मुष्किल था। जब भी मैं किसी गली से अकेली गुजरती तो लगता कि कोई मेरा पीछा कर रहा है ... कि कोई मुझसे कुछ कदम पीछे चल रहा है लेकिन जब-जब मैंने ठहरकर पीछे देखा, तो मुझे वहाॅ कोई नहीं दिखा। लेकिन हर बार उस एहसास से मेरी रीढ़ की हड्डी में आतंक की लहर दौड़ जाती थी।
“कितना हुआ?” मैंने सारा सामान एक छोटे से थैले में रखते हुए उस बूढे़ दुकानदार से पूछा।
वह एक छोटी सी दुकान थी जिसके छज्जे के नीचे मैं खड़ी थी। उस सुबह बाजार में ज्यादातर दुकानें बंद ही थीं। सुनने में आया था कि उसी बाज़ार की कई हिन्दू दुकानों को आग लगा दी गयी थी। नारायण अंकल ने जो सूची मुझे दी थी उसमें से कुछ भी मिलना बहुत मुष्किल हो रहा था। बस एक वही दुकान थी जो खुली थी और जिसमें पूजा आदि का सामान भी मिल गया।
दुकानदार ने धीरे-धीरे अपना कैलकुलेटर उठाया और गंणना शुरू की। मैं अपने छोटे से बटुए की चेन खोल ही रही थी कि अचानक मेरे कान के पास से कुछ बहुत तेज गति से गुजरा! इससे पहले कि मैं कुछ समझ या देख पाती, दुकानदार नीचे गिर गया। उसे गोली लगी थी!
“हे भगवान!” मैं चिल्लायी और पीछे घूमी। बड़े-काले लबादे में ढँके कुछ लोग, बंदूक पकड़े हुए एक संकरी गली की ओर भाग रहे थे। मैंने उन काले सायों को देखा और अगले ही पल वे कोहरे की गाढ़ी परत में गायब हो गए। दूसरी तरफ दुकानदार फर्श पर पड़ा था, और उसका खून फर्ष पर बिखर रहा था। मेरा मुंह एक बार फिर किसी को पुकारने को खुला लेकिन, मुझे पता था कि मदद के लिए पुकारना कोई विकल्प नहीं है।
मैंने दुकान की सीढ़ीयों से कदम नीचे लिये। गली शून्य थी। मुझे पता था कि कुछ लोग हैं जो बंद दरवाजे और गिरे हुए शटरों के पीछे छिपे हुए हैं लेकिन मुझे ये भी पता था कि कोई भी मेरी मदद के लिए नहीं आएगा। मैंने अपना सेल फोन निकाल लिया। फोन निकालते हुए मैं तक नहीं तय कर पा रही थी कि पहले पुलिस को फोन लगाऊॅ या एम्बुलेंस को? लेकिन इससे पहले कि मैं कोई कॉल कर सकूं- “रुको!” मेरी फैली हुई पुतलियाॅ उठीं। मेरे चेहरे पर अपनी बंदूक के बैरल को ताने एक व्यक्ति खड़ा था। मुझे तो लगा था कि वह चले गए हैं। “यहाॅ से निकल लो-, वरना तुम्हारा भी वही हाल होगा।” उसका चेहरा काले कपड़े से ढंका था। मैं केवल उसकी आँखें देख सकती थी और यह उसकी आँखों में था, कि वह वास्तव में मुझे गोली मार सकता है। मेरे पास कोई विकल्प नही था। मैंने अपने हाथ नीचे कर लिये।