"ग़ज़ल"
आप मेहरबान को मैं भुला सकता नही
दर्द है मेरे बदन का जो दिखा सकता नही
घाव भीतर से लगा है दाग मरहम दूर है
ढूढता हूँ नैन लेकर पर रुला सकता नही।।
आप ने इसको जगाया फिर सवाया कर दिया
चाह कर इस शूल को फिर से दबा सकता नही।।
क्या कहूँ जी आप से यह आप की दरिया दिली
धार कितनी तेज थी सबको बता सकता नहीं।।
सह लिया वह वक्त था नहि सामने बुत गैर था
समय भी परछाइयों को जा मिटा सकता नहीं।।
आप ने महसूस की मिलकर पकड़ ली बाँह को
काश वो भी जान पाते जो निभा सकते नहीं।।
बात इतनी सी है गौतम एक दिन आँधी चली
उड़ गई कमजोर छतरी अब चढ़ा सकता नही।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी