“गीतिका”
कभी कभी जब मन को भाता, खो जाता हूँ बचपन में
यदा कदा वह मिलने जब आता, जी लेता हूँ तनमन में
उठा पटक वो छल ना जाने, जो करता था मनमानी
अभी दिखा पर मिल न सका वो, डूब गया है अनबन में॥
बड़ी बड़ी इन दीवारों में, शायद उसका हिस्सा हो
मिला सका ना नैन नैन से, छिद्र छुपा है कन कन में ॥
कहा सुनी उससे हो जाती, रह जाती है गली गिला
पर न कभी पल रुक पाता है, जा मिलता है धन धन में॥
अभी दरद ने उसे दुलारा, खींच के अपने अंदर से
हंसी खुशी तरुनाई तुनककर, छुप बैठी है अन्तर्मन में॥
गई फिज़ा वापस आ जाये, ऐसी कोई तरकीब नहीं
महा धनी भी ढंग बदलते, उड़ते रंग हैं छन छन में॥
सुनो रे गौतम आते रहते, बीते पल चित यादों में
मगर न उमर समय लौटाए, मिलले जाके पनपन में॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी