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काव्य

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"छंद मुक्त गीतात्मक काव्य"जी करता है जाकर जी लूबोल सखी क्या यह विष पी लूहोठ गुलाबी अपना सी लूताल तलैया झील विहारकिस्मत का है घर परिवारसाजन से रूठा संवादआतंक अत्याचार व्यविचारहंस ढो रहा अपना भारकैसा- कैसा जग व्यवहारजी करता है जाकर जी लूबोल सखी क्या यह विष पी लूहोठ गुलाबी अपना सी लू।।सूखी खेती डूबे बा

"मुक्त काव्य"चाह की राह हैगोकुल निर्वाह हैयमुना कछारीरात अंधियारीजेल पहरेदारीदेवकी विचारीकृष्ण बलिहारीलीला अपार हैचाह की राह है।।गाँव गिरांव हैधन का आभाव हैमाया मोह भारीखेत और क्यारीसाधक नर-नारीरक्षित फुलवारीबाढ़ की बीमारीपानी अथाह हैचाह की राह है।।संतुष्टि बिहान है प्यासा किसान हैबरखा बयारीनैन कजरार

"मुक्त काव्य"सजाती रही सँवारती रहीगुजारती रही जिंदगीबाढ़ के सफ़र मेंबिहान बहे पल-पल।।गाती गुनगुनाती रहीसपने सजाती रहीचलाती नाव जिंदगीठहर छाँव बाढ़ मेंगुजरान हुआ गल-गल।।रोज-रोज भीग रहीजिंदगी को सींच रहीलहरों से खेल-खेलबिखर गया घाट डूब अश्रुधार छल-छल।।तिनका-तिनका फेंक रहीडूबते को देख रहीमसरूफ थी जिंदगीजल

"मुक्तकाव्य" जी करता है जाकर जीलूबोल सखी क्या यहविष पी लूहोठ गुलाबी अपना सीलूताल तलैया झीलविहारसुख संसार घरपरिवारसाजन से रूठा संवादआतंक अत्याचारव्यविचारहंस ढो रहा अपनाभारकैसा- कैसा जगव्यवहारहोठ गुलाबी अपना सीलूबोल सखी क्या यहविष पी लू॥ डूबी खेती डूबेबाँधझील बन गई जीवन साधसड़क पकड़ती जबरफ्तारहो जाता जी

“छंद मुक्त काव्य“(मैं इक किसान हूँ) किस बिना पै कह दूँकि मैं इक किसान हूँजोतता हूँ खेत, पलीत करता हूँ मिट्टी छिड़कता हूँ जहरीलेरसायन घास पर जीव-जंतुओं का जीनाहराम करता हूँ गाय का दूध पीताहूँ गोबर से परहेज है गैस को जलाता हूँपर ईधन बचाता हूँ अन्न उपजाता हूँगीत नया गाता हूँ आत्महत्या के लिएहैवान बन जा

“छन्द मुक्त काव्य”“शहादत की जयकारहो”जब युद्ध की टंकारहो सीमा पर हुंकार हो माँ मत गिराना आँखआँसू माँ मत दुखाना दिलहुलासूजब रणभेरी की पुकारहो शहादत की जयकारहो।। जब गोलियों कीबौछार होजब सीमा पर त्यौहारहो माँ भेज देना बहनकी राखी अपने सीने कीबैसाखी वीरों की कलाईगुलजार हो शहादत की जयकार हो॥जब चलना दुश्वार

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साँसों का धुआं,कोहरा घना,अनजान फितरत में समां सना,फिर भी मुस्काता सपना बुना,हक़ीक़त में घुलता एक और अरमान खो रहा है......और खाना ठंडा हो रहा है। तेरी बेफिक्री पर बेचैन करवटें मेरी,बिस्तर की सलवटों में खुशबू तेरी,डायन सी घूरे हर पल की देरी,इंतज़ार में कबसे मुन्ना रो रहा है......और खाना ठंडा हो रहा है। क

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पैमाने के दायरों में रहना,छलक जाओ तो फिर ना कहना...जो जहां लकीरों की कद्र में पड़ा होउस से पंखों के ऊपर ना उलझना...किन्ही मर्ज़ियों में बिना बहस झुक जाना,तुम्हारी तक़दीर में है सिमटना...पैमाने के दायरों में रहना,छलक जाओ तो फिर ना कहना...क्या करोगे इंक़िलाब लाकर?आख़िर तो ग

भावुक हृदय जलमग्न आंखे घोर वेदना के सिंधु में डूबते उतिराते है रोज की रात ऐसी ही होती है की क्रोध से कोपित हृदय है लावा भभकता उठ रहा है इस ज्वालामुखी को विवेक से शांत करते है अनर्थ हो रहा है अधर्म बढ़ रहा है कब तक शांत हो उठो जागो डोर थाम्हो कसो सीधे खींच

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जुबां का वायदा किया तूनेकच्चा हिसाब मान लिया मैंने,कहाँ है बातों से जादू टोना करने वाले?तेरी कमली का मज़ाक उड़ा रहे दुनियावाले... रोज़ लानत देकर जाते,तेरे प्यार के बही-खाते...तेरी राख के बदले समंदर से सीपी मोल ली,सुकून की एक नींद को अपनी 3 यादें तोल दी।इस से अच्छा तो बेवफा हो जाते,कहीं ज़िंदा होने के मि

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कितने चेहरो में एक वो चेहरा था...नशे में एक औरत ने कभी श्मशान का पता पूछा था...आँखों की रौनक जाने कहाँ दे आई वो,लड़खड़ाकर भी ठीक होने के जतन कर रही थी जो। किस गम को शराब में गला रही वो,आँसू लिए मुस्कुरा रही थी जो।अपनी शिकन देखने से डरता हूँ,इस बेचारी को किस हक़ से समझाऊं?झूठे रोष में उसे झिड़क दिया,नज़रे

“ये शब्द मेरे कान नहीं” मुझे नहीं आता लिखना पढ़ना बोलना, तो क्या? ये शब्द मेरे कान नहीं॥ मुझे नहीं आता देखना दिखाना गिनना, तो क्या? ये दृश्य मेरे नैन नहीं॥ मुझे नहीं आता उठाना गिराना जताना, तो क्या? ये आनन मेरे अरमान नहीं॥ मुझे नहीं आता तुम

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