आनंद*: 🕉 श्रीमद्भगद्गीता 🕉 ************ * अध्याय 1* """"""""मेरा भला नहीं है संभव , संबंधियों को यहाँ मारकर ।चाहूँ नहीं मैं राज्य वैभव , मौत के घाट सब उतारकर।।31।। 💥हे कृष्ण अब ऐसे राज्य की , सुख की मुझे चाहत नहीं है ।न राजभोगी कामना बची दुख ही म
युग संधि का शंखनाद् गुँजायमान् गुँजायमान्अष्ट पाश पर आरुड़ शक्तिमान्🔯 श्रीमद्भागवद्गीता 🔯 🌹🌹🌹🌹🌹 *प्रथम अध्याय * ************* देख अचंभित धृतराष्ट्र हुआ , कहे दिव्यद्रष्टा संजय
👁️👁️👁️👁️👁️👁️👁️👁️शरहद की ओर तकने वालों केसंग 'खून की होली' वीर खेलते।शरहद की ओर तकते वालों केसंग खून की होली बाँकुणे खेलते।।कौन धृष्ट कहता "एल. ओ. सी."की तरफ न भारतीयों तुम देखो!शरहद पार कर हमने खदेड़ापुलवामा को जा जरा देखो!!'सोने की चिड़िया' को अरेबहुतो ने सदियों था नोचा।संभल गये अब हम- ब
यूं तो आपके इंतज़ार में हमने कुछ इस तरह आँसू बहाया है रातों की नींद तो छोड़िये हमने दिन का चैन भी गवाया है देखा जो हमने आपको आप हमें पहली नज़र में ही भा गए नज़रों में कुछ इस तरह उतरे की सीधे दिल में समा गए देखा है हमने ज़माने को इश्क़ में धोखा खाते
दबी जुबां में सही अपनी बात कहो,सहते तो सब हैं......इसमें क्या नई बात भला!जो दिन निकला है...हमेशा है ढला!बड़ा बोझ सीने के पास रखते हो,शहर के पेड़ से उदास लगते हो...पलों को उड़ने दो उन्हें न रखना तोलकर,लौट आयें जो परिंदों को यूँ ही रखना खोलक
कुछ रास्तों की अपनी जुबां होती है,कोई मोड़ चीखता है,किसी कदम पर आह होती है…पूछे ज़माना कि इतने ज़माने क्या करते रहे?ज़हरीले कुओं को राख से भरते रहे,फर्ज़ी फकीरों के पैरों में पड़ते रहे,गुजारिशों का ब्याज जमा करते रहे,हारे वज़ीरों से लड़ते रहे…और …खुद की ईजाद बीमारियों में खुद ही मरते रहे!रास्तों से अब बैर ह
एक दिन सब खेल क्रिकेट से मिलने आए,मानो जैसे दशकों का गुस्सा समेट कर लाए।क्रिकेट ने मुस्कुराकर सबको बिठाया,भूखे खेलों को पाँच सितारा खाना खिलाया।बड़ी दुविधा में खेल खुस-पुस कर बोले… हम अदनों से इतनी बड़ी हस्ती का मान कैसे डोले?आँखों की शिकायत मुँह से कैसे बोलें?कैसे डालें क्रिकेट पर इल्ज़ामों के घेरे?अप
"मुक्त काव्य"न बैठ के लिखा, न सोच के लिखातुझे देखा तो रहा न गया और खत लिखाजब लिखने लगा तो पढ़ना मुश्किल हो गयाअब पढ़ने लगा हूँ तो लिखना मुश्किल हैअजीब है री तू भी पलपल सरकती जिंदगीतुझे पाने के लिए अर्थहीन शब्दों में क्या क्या न लिखा।।कभी रार लिखा तो कभी प्यार लिख बैठाकभी मन ही मन में तेरा श्रृंगार लिख
"मुक्त काव्य"दिन से दिन की बात हैकिसकी अपनी रात हैबिना मांगे यह कैसी सौगात हैइक दिन वह भी था जब धूप में नहा लिएआज घने छाए में भी बिन चाहत भीगती रात हैउमसते हैं कसकते हैं और बिदकते हैंकाश, वह दिन होता और वैसे ही जज्बातफिर न होता यह धधकता दिनऔर न होती यह सिसकती रातपेड़ पौधे भी करते हैं आपस में बात।।महु
"छंदमुक्त काव्य"गुबार मन का ढ़हने लगा हैनदी में द्वंद मल बहने लगा हैमाँझी की पतवारया पतवार का माँझीघर-घर जलने लगा चूल्हा साँझीदिखने लगी सड़कें बल्ब की रोशनी मेंपारा चढ़ने लगा है लू की धौकनी मेंनहीं रहा जाति-पाति का कोई बंधनजबसे अस्तित्व के लिए बना महा गठबंधनचोर ने लूट लिया मधुरी वाहवाहीचौकीदार की गेट प
"विधा-छंदमुक्त" रूठकर चाँदनी कुछ स्याह सी लगीबादल श्वेत से श्याम हो चला हैक्या पता बरसेगा या सुखा देगाहै सिकुड़े हुए धान के पत्तों सी जिंदगीउम्मीद और आशा से हो रही है वन्दगीआज की मुलाकात फलाहार सी लगीरूठकर चाँदनी कुछ स्याह सी लगी।।वादे पर वादे सफेद झूठ की फलीक्वार के धूप में श्याम हुई सुंदरीअरमानों क
"छंद मुक्त काव्य" अनवरत जलती है समय बेसमय जलती हैआँधी व तूफान से लड़ती घनघोर अंधेरों से भिड़ती हैदिन दोपहर आते जाते हैप्रतिदिन शाम घिर आती हैझिलमिलाती है टिमटिमाती हैबैठ जाती है दरवाजे पर एक दीया लेकरप्रकाश को जगाने के लिएपरंपरा को निभाने के लिए।।जलते जलते काली हो गई हैमानो झुर्रियाँ लटक गई हैबाती और
आँसुओं की माप क्या है?✒️रोक लेता चीखकरतुमको, मगर अहसास ऐसा,ज़िंदगी की वादियों मेंशोक का अधिवास कैसा?नासमझ, अहसास मेरेक्रंदनों के गीत गाते,लालची इन चक्षुओं कोचाँद से मनमीत भाते।ढूँढ़ता हूँ जाग करगहरी निशा की
रंगोत्सव पर प्रस्तुत छंदमुक्त काव्य...... ॐ जय माँ शारदा......!"छंदमुक्त काव्य"मेरे आँगन की चहकती बुलबुलमेरे बैठक की महकती खुश्बूमेरे ड्योढ़ी की खनकती झूमरआ तनिक नजदीक तो बैठदेख! तेरे गजरे के फूल पर चाँदनी छायी हैपुनः इस द्वार के मलीन झालर पर खुशियाँ आयी है।।उठा अब घूँघट, दिखा दे कजरारे नैनआजाद करा
फागुनी बहार"छंदमुक्त काव्य"मटर की फली सीचने की लदी डली सीकोमल मुलायम पंखुड़ी लिएतू रंग लगाती हुई चुलबुली हैफागुन के अबीर सी भली है।।होली की धूल सीगुलाब के फूल सीनयनों में कजरौटा लिएक्या तू ही गाँव की गली हैफागुन के अबीर सी भली है।।चौताल के राग सीजवानी के फाग सीहाथों में रंग पिचकारी लिएहोठों पर मुस्का
महिला दिवस को समर्पित"छंद मुक्त काव्य"महिला का मनसुंदर मधुवनतिरछी चितवननख-सिख कोमलता फूलों सीसर्वस्व त्याग करने वालीकाँटों के बिच रह मुसुकाएमानो मधुमास फाग गाए।।महिला सप्तरंगी वर्णी हैप्रति रंग खिलाती तरुणी हैगृहस्त नाव वैतरणी हैकल-कल बहती है नदियों सीहर बूँद जतन करने वालीनैनों से सागर छलकाएबिनु पान
"छंद मुक्त काव्य" मेरे सावन की शीलनमन की कुढ़न गर्मी की तपनमेरे शिशिर की छुवनमधुमास की बहार हो तुम।।जब से सजा है चेहरे पर शेहरातुम ही बहार हो तुम ही संसार होकहो तो हटा दूँ इन फूलों की लड़ियों कोदिखा दूँ वह ढ़का हुआ चाँदमेर जीवन में खिली चाँदनी हो तुम।।मेरी शहनाई की रागिनी होमेरे हवा की आँधी होमेरे सूरज
..!छंदमुक्त काव्य, बदलता मौसम तुम ही हो मेरे बदलते मौसम के गवाहमेरे सावन की सीलनमेरे मन की कुढ़न मेरी गर्मी की तपनमेरे शिशिर की छुवनमधुमास की बहार हो तुम।।तुम ही होे मेरे उम्र की पहचानमेरे चेहरे पर सेहरे की शानतुम ही बहार हो तुम ही संसार होकहो तो हटा दूँ इन फूलों की लड़ियों कोदिखा दूँ वह ढ़का हुआ चाँदम
"छंदमुक्त काव्य"कूप में धूपमौसम का रूप चिलमिलाती सुबहठिठुरती शाम है सिकुड़ते खेत, भटकती नौकरीकर्ज, कुर्सी, माफ़ी एक नया सरजाम हैसिर चढ़े पानी का यह कैसा पैगाम है।।तलाश है बाली कीझुके धान डाली कीसूखता किसान रोजगुजरती हुई शाम है कुर्सी के इर्द गिर्द छाया किसान हैखेत खाद बीज का भ्रामक अंजाम हैसिर चढ़े पानी
शीर्षक- जीवन, मरण ,मोक्ष ,अटल और सत्य"मुक्त काव्य" जीवन शरण जीवन मरणहै अटल सच दिनकर किरणमाया भरम तारक मरणवन घूमता स्वर्णिम हिरणमातु सीता का हरणक्या देख पाया राम नेजिसके लिए जीवन लियादर-बदर नित भ्रमणन कियाचोला बदलता रह गयाक्या रोक पाया चाँद नेउस चाँदनी का पथ छरणऋतु साथ आती पतझड़ीफिर शाख पर किसकी कड़ी