ना इधर सोचना, ना उधर सोचना मेरे बारे में तुम हाँ मगर सोचना सोचना उठ के रातों को तारे लिए दिन जो गुजरे अगर दोपहर सोचना बेवजह, बेअसर, बेखबर मत रहो शेर मुमकिन है तुम इक बहर सोचना इससे अच्छा कि लफ
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख
‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है, तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ? जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका, नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ? प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या क
सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं समाना चाहता है, जो बीन उर में विकल उस शुन्य की झनंकार
यह कहकर लक्ष्मण तो चल दिये। रावण ने जब देखा कि मैदान खाली है, तो उसने एक हाथ में चिमटा उठाया। दूसरे हाथ में कमण्डल लिया और ‘नारायण, नारायण !’ करता हुआ सीता जी की कुटी के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। सीता
तुकबंदी करने की कोशिश करती हूं पर कवयित्री कहलाती हूं । व्यर्थ समय मै नहीं गवाती कुछ लिखकर मन बहलाती हूंबात सदा अपने मन की , कवितमय तुकबंदी में कहती जाती । मातु शारदा वाणी
मैं हूं एक पवन का झोंका,अपनी मस्ती की धुन में खोया...मुसाफिर हूं मैं मस्त मौला,घूमता रहता हूं डाल डाल पर...फूलों की पत्तियों को छु कर,गली मोहल्लों में द्वार-द्वार...धूल,तिनके,उष्मा,आर्द्रता,शीतलता,समा
फिर नूतन अभिलाषा के अंगराग। लेपित कर लूं तन पर, मन पर। पथ पर चकित नहीं होऊँ, क्षणिक
सुरभित सुशोभित रंग से,
शब्दों में है जीवन भरा,
जो रचे हर मायने,
जीवन भरी जैसे धरा,
हीरों के हारों सी चमकेंफुहारें, और वीणा के तारों सी झनकें फुहारें | धवल मोतियों सी जो झरती हैंबूँदें, तो पाँवों में पायल सी खनकें फुहारें || जी हाँ, जैसा कि हम सभी जानतेहैं, पूरा देश कोरोना महामारी की मार से बाहर निकला है...हालाँकि ख़तरा अभी भी टला नहीं है... 2019 के अन्त से लेकरअभी तक भी इसस
पिछले हफ़्ते मैं और मेरे माता-पिता कोरोना पॉजिटिव हो गए। इस समय मैं अपने पैतृक घर पर उनके साथ हूँ। मेरी पत्नी और पुत्र दूसरे घर में सुरक्षित हैं। 19 अप्रैल को हमारी शादी की तीसरी सालगिरह थी, लेकिन इस स्थिति में उनसे मिलना संभव नहीं था। इस आपदा की घड़ी में, लोगों के इतने बड़े दुखों के बीच यह बात बांटना
वह भागने की कोशिश करे कबसे,कभी ज़माने से तो कभी खुद से...कोई उसे अकेला नहीं छोड़ता,रोज़ वह मन को गिरवी रख...अपना तन तोड़ता।उसे अपने हक़ पर बड़ा शक,जिसे कुचलने को रचते 'बड़े' लोग कई नाटक!दुनिया की धूल में उसका तन थका,वह रोना कबका भूल चुका।सीमा से बाहर वाली दुनिया से अनजान,कब पक कर तैयार होगा रे तेरा धान?उम्
मैं शब्द रूचि उन बातों की जो भूले सदा ही मन मोले-2अँगड़ाई हूँ मैं उस पथ का जो चले गए हो पर शोले-2हर बूँदो को हर प्यासे तक पहुँचाने का आधार हूँ मैं-2मैं बड़ी रात उन आँखो का जो जागे हो बिना खोलें-2जो कभी नहीं बोला खुल कर वो आशिक़ की जवानी हूँ।-2मीरा की पीर बिना बाँटे राधा के श्याम सुहाने हैं।-2
शब्द बड़े चंचल,बड़े विचित्र,बड़े बेशर्म और होशियार;शब्दों को एक जगह बैठाओ,बैठने को नहीं तैयार;उन्हें बोला मिलकर बनाओ वाक्य श्रृंखला साकार;सोशल डिस्टेंसिंग का बहाना कर मिलने को नहीं तैयार।चुन चुन कर पास लाया उन्हें, लेकिन दूर हो जाते बार
"मुक्त काव्य"पेड़ आम का शाहीन बाग में खड़ा हूँफलूँगा इसी उम्मीद में तो बढ़ा हूँजहाँ बौर आना चाहिएफल लटकना चाहिएवहाँ गिर रही हैं पत्तियाँबढ़ रही है विपत्तियांशायद पतझड़ आ गयाअचानक बसंत कुम्हिला गयाफिर से जलना होगा गर्मियों मेंऔर भीगना होगा बरसातियों मेंफलदार होकर भी जीवन से कुढ़ा हूँपेड़ आम का शाहीन बाग में
इलाहाबाद अपना घर, गाँव,और शहरया यूँ कहियेअपनी छोटी सी इक दुनिया।इसके बारे में कुछ कहना-लिखना, जैसे आसमान में तारे गिननाया जलते हुए तवे परउंगलियों से अपनी ही कहानी लिखना है।सैकड़ों ख्वाब, हज़ारों किताब और अनगिनत रिश्तों में बीतती जिंदगी का नाम है इलाहाबाद। एक ऐसी जगहजहाँ हर पल, हर लम्हाबनती-बिगड़ती ह
।।🙏परशुराम🙏।।कन्नौज-सम्राट गाधि की थीअत्यंत रूपवती सुकन्या!सत्यवती भृगुनन्दन ऋषीकके जीवन से बंध रमना!!भृगु ऋषि से पुत्रवधू नेपुत्र प्राप्ति का किया प्रणय निवेदनतथास्तु! कह भृगु मार्ग बताएगूलर-वृक्ष का आलिंगन करचरु-पान से गर्भ वह पाएपात्र माँ ने लोभवशछल से पात्र बदलाब्राह्मण पुत्र 'जमदग्नि'क्षत्रिय