बचपन का नाम सुनते ही जिंदगी में हमें वे दिन याद आ जाते हैं जहां थी मीठी सी शैतानियां, बचपन के साथी ,हमारे खेल। हम जहां रहते थे वहां बहुत सारे पेड़ थे फलों के भी और नीम के भी।और थी दोस्तों की टोली। पेड़ों पर चढ़ना ,उतरना उस समय हमारे खेल हुआ करते थे। बंदरों की तरह कभी जामुन के पेड़ पर, कभी नींम के पेड़ पर, कभी सेमल के पेड़ के फूल और रूई इकट्ठा करना। हमारे घर के पीछे एक नदी बहती थी हम ना जाने क्यों रोज वहां भी जाते थे। नदी को बहते देखना वहां से पत्थर इकट्ठे करना, रेत पर घर बनाना बहुत मजा आता था उन सब में। छुपन छुपाई, रस्सी कूद, गेंद गीटटा जैसे स्थानीय खेल खूब खेला करते थे। रात को दादी से कहानियां, मम्मी से कहानियां सुनते थे। पर आज बच्चे सिर्फ टीवी और मोबाइल पर गेम खेला करते हैं। टीवी पर ही कहानी सुनते हैं। उनका बचपन कहीं खो गया है। मुझे मेरा बचपन बहुत याद आता है।
बचपन के वे दिन
अक्सर हमें याद आते है
जब सावन के मौसम में
हम बहते पानी में
छम छम किया करते थे,
कागज की नाव बनाकर
उसे तैराया करते थे
बालू के घरौंदे बनाकर
उसे सीपों, शंखो और मोतियों से
सजाया करते थे।
बचपन के वे दिन
अक्सर हमें याद आते है,
जब हम ऊंचे पेड़ों पर चढ़कर
आम ,जामुन, अमरूद, शहतूत
बंदरों की तरह तोड़ा करते थे,
खाया करते थे।
त्योहारों को साथ मिलकर
मनाया करते थे
होली पर मिलकर रंग, गुलाल
उड़ाया करते थे
दिवाली पर मिलकर दीप
जलाया करते थे।
दिखावा नहीं था तब जिंदगी में
दूरदर्शन पर रामायण देखकर
लाइट जाने पर लालटेन जलाकर
खिलखिलाया करते थे।
रात को आसमान में
तारे गिना करते थे,,
सप्त ऋषि मंडल को ढूंढ कर
खुली छत पर सो जाया करते थे।
काश वह बचपन फिर से आ जाता
नई खुशियां हमें दे जाता
नए अरमान, नये सपने दिखाकर
जिंदगी हमारी नई बना जाता।
(© ज्योति)