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मेरी डायरी आत्ममंथन मार्च 2022 भाग 3

6 मार्च 2022

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3/3/2022

मेरी प्यारी डायरी कल मैंने तुमसे साधना विषय पर कुछ चर्चा की थी।आज एक चित्र देखा जिसके नीचे लिखा था,
"भोर भयो पनघट पे" यह लाइन पढ़कर गांव की गलियों की याद आ गई। बृंदा वन में कृष्ण ने जो लीलाएं की वह याद आने लगी। कैसे पनघट पर गोपियों के वस्त्रों को चुराते थे यह कहानी याद आ गई।
पनघट शब्द सुनकर मुझे मेरे बचपन का पनघट गांव का वह कुआं याद आ गया जहां का पानी बहुत ही मीठा है वह कुआं आज भी है।आज से लगभग 50 साल पहले उस कुएं पर गांव की सभी औरतें और लड़कियां पानी भरने आती थी। सुबह शाम वहां बहुत चहल-पहल रहती थी। सखियों की हंसी ठिठोली से पूरा वातावरण गुंजायमान रहता था। मेरे घर में पानी भरने के लिए नौकरानियां थीं फिर भी मैं वहां जाकर बैठ जाती थी वहीं पास में एक नीम का विशाल वृक्ष था जिस पर सावन के महीने में झूला पड़ता था। दिन में बच्चे उस झूले पर झूलते थे रात में गांव की औरतें और लड़कियां झूला झूलते थे।
हमारे उस कुएं का पानी इतना ठंडा और मीठा है उस समय जो भी हमारे घर या गांव में आता था वह उसी कुएं का पानी पीता था। कुछ समय हमारे घर में और गांव के अन्य घरों में हैंडपंप लग गए और धीरे धीरे लोगों ने उस कुएं से पानी भरना बंद कर दिया।आज भी वह कुआं वहां है पर अब वह पानी उतना निर्मल नहीं रहा वह पनघट अब सिर्फ कुआं बनकर रह गया है।
लेकिन उससे जुड़ी स्मृतियों को मै आज तक नहीं भुला सकीं हूं। मैं आज तुम से फ़ालतू की बक-बक कर रहीं हूं तुम भी कह रहीं होगी मैं आज़ क्या बात लेकर बैठ गई।पर क्या करूं बचपन की वह बातें और वह पनघट या कुआं जिसके चारों ओर चौड़ा चबूतरा था जिस पर मैं बैठती थी बहुत याद आते हैं अब गांव में कोई रह ही नहीं गया है माता-पिता की मौत हो गई ताऊजी भी नहीं रहें भाई लोग गांव छोड़कर शहर के होकर रह गए। अभी कुछ दिन पहले 20 दिसंबर 2021 को ताऊजी की मौत हो गई तब गांव गई थी वहां अब पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा वहां अब मरघट जैसा सन्नाटा पसरा हुआ था।यह देखकर मन बहुत दुख हुआ।
लेकिन परिवर्तन प्रकृति का नियम है जिसका सृजन होता है उसका एक दिन विनाश भी होता है यही सोचकर मन को समझा लिया।आज इतना ही कल फिर मिलेंगे

डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
3/3/2022


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रचनाएँ
दैनंदिनीं ( डायरी)
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