“गज़ल”
जा मेरी रचना तू जा, मेले में जा के आ कभी
घेरे रहती क्यूँ कलम को, गुल खिला के आ कभी
पूछ लेना हाल उनका, जो मिले किरदार तुझको
देख आना घर दुबारा, मिल मिला के आ कभी॥
शब्द वो अनमोल थे, जो अर्थ को अर्था सके
सुर भुनाने के लिए, डफली हिला के आ कभी॥
छंद कह सकती नहीं तो, मुक्त हो जा जानेमन
जा नए परिवार को, नजरें पिला के आ कभी॥
हो सके तो मापनी, मुखड़े की कर लेना ठहर
काफ़िया मत भुलना, मक्ता झुला के आ कभी॥
व्यर्थ न फरियाद करना, कि गज़ल सी तूँ नहीं
मिसरे में होती जान है, उसको जिला के आ कभी॥
कह न पाता है रुबाई, “गौतम” तेरे नाम की
ले पकड़ अपनी बहर, नगमे सुला के आ कभी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी