मार्च 2009. आम चुनाव में महज दो महीने का वक़्त बाकी था. मुख्य विपक्षी दल के तौर पर भारतीय जनता पार्टी भी पूरा दम साध कर चुनाव प्रचार में लगी हुई थी. 82 साल के लाल कृष्ण आडवाणी अपने सीने पर “पीएम इन वेटिंग” का तमगा सजाए जनसभाओं को संबोधित कर रहे थे. प्रचार अभियान के दौरान जब आडवाणी अहमदाबाद पहुंचे. अगले अखबार में एक फोटो छपी जिसमें उन्हें जिम में डम्बल उठाते दिखाया गया था. उनकी ढलती उम्र पर लगातार सवाल खड़े हो रहे थे और आडवाणी डम्बल उठाकर जवाब दे रहे थे.
नागपुर के बीचो-बीच एक जगह है, रेशीम बाग़. मराठी में रेशम को रेशीम कहा जाता है. अंग्रेज जब अपने फीते से भारत की ज़मीन नाप रहे थे तो उन्होंने इस जगह को नाम दिया ‘जीरो मील.’ जीरो मील माने इस महादेश के नक़्शे का केंद्र. अंग्रेज चले गए, लेकिन उनके बनाए नक्शे रह गए. इसी रेशीम बाग़ में एक ‘डॉ हेडगेवार भवन’ नाम की इमारत है. यह इमारत नक़्शे के केंद्र को सत्ता के केंद्र में तब्दील करती है.
वो आदमी अपनी चप्पल नहीं ढूंढ पा रहा था
21 मार्च 2009. रेशीम बाग़ में संघ के इस दफ्तर में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक थी. इस प्रतिनिधि सभा की बैठक के दौरान नए सरसंघचालक के नाम का फैसला होना था. हालांकि संघ का अपना लोकतान्त्रिक ढांचा है लेकिन अंतिम निर्णय सरसंघचालक का ही होता है. अब तक रवायत ऐसी ही रही थी कि हर सरसंघचालक अपना उत्तराधिकारी खुद चुनता आया था. पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने माधव सदाशिव गोलवलकर का चुनाव किया था. गोलवलकर जब मरे तो उन्होंने संघ के स्वयंसेवकों के नाम तीन चिट्ठियां छोड़ी थीं. इसमें से एक चिट्ठी पर बालासाहेब देवरस को नया सरसंघचालक बनाने की इच्छा प्रकट की गई थी. रज्जू भैय्या के सरसंघचालक बनने तक यह रवायत बदस्तूर जारी रही. जब 2000 में रज्जू भैय्या अपने स्वास्थ्य कारणों से सरसंघचालक के दायित्व से मुक्त हुए तो उनके वारिस समझे जाने वाले एच. वी शेषाद्री ने भी स्वास्थ्य कारणों से सरसंघचालक बनने से इनकार कर दिया था. इसके बाद के. एस. सुदर्शन को नया सरसंघचालक चुना गया था. अब सुदर्शन भी अपने सरसंघचालक के दायित्व से स्वास्थ्य कारणों के चलते मुक्त हो रहे थे.
सुधीर पाठक मराठी में निकलने वाले संघ के मुखपत्र ‘तरुण भारत’ के संपादक रह चुके हैं. 2009 की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा को याद करते हुए वो अंग्रेजी पत्रिका कारवां को बताते हैं-
“मैं बैठक हॉल के बाहर टहल रहा था. मोहन जी आम तौर पर कुरते-पायजामे में देखे जाते हैं. उस दिन उन्होंने धोती पहन रखी थी. मैंने देखा तो वो लगभग खोए हुए थे. घबराहट में अपनी चप्पल भी नहीं ढूंढ पा रहे थे.”
इसके थोड़ी देर बाद ही राष्ट्रीय मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी, “मोहन भागवत संघ के छठे सरसंघचालक चालक चुने गए.” हालांकि मीडिया में ज्यादातर लोगों के पास उस समय तक उनके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं थी. लेकिन आरएसएस से जुड़े लोगों के लिए यह निर्णय चौंकाने वाला नहीं था. सरकार्यवाहक को सामान्य तौर पर अगले सरसंघचालक के रूप में देखा जाता है.
संघ में एक अलिखित नियम है कि 75 की उम्र के बाद आदमी संगठन के तमाम दायित्वों से मुक्त हो जाता है. इस लेख में आपका साबका बार-बार दायित्व शब्द से पड़ रहा है. इसका कारण संघ की शब्दावली है. संघ में ओहदे की जगह दायित्व शब्द का चलन है. मोहन भागवत 2009 में संघ के सरकार्यवाह थे.
ऐसे पहुंचे सरसंघचालक के पद तक
साल 2000 में तबीयत का हवाला देकर सरसंघचालक का पद छोड़ा था. उस समय संघ के सरकार्यवाह हुआ करते थे एच. वी. शेषाद्री. शेषाद्री की उम्र भी ढलान पर थी. ऐसे में उन्होंने सरसंघचालक का दायित्व लेने से इनकार कर दिया था और सुदर्शन नए सरसंघचालक बनाए गए. उस समय सुदर्शन की उम्र 69 साल थी. शेषाद्री के बाद नए सरकार्यवाह की जरूरत थी. शेषाद्री ने सुदर्शन को दो नाम सुझाए. पहला था, मदन दास देवी और दूसरा मोहन भागवत. शेषाद्री के सुझाव पर सुदर्शन मदन दास देवी को नया सरकार्यवाह बनाने के तैयार हो गए थे. मदन लाल देवी उस समय संघ की तरफ से बीजेपी के साथ संयोजक की भूमिका निभा रहे थे. वो अपनी राजनीति क समझ के लिए जाने जाते थे. उस समय एम.जी. वैद्य ने सुदर्शन के सामने मोहन भागवत के नाम की वकालत की. अंत निर्णय गया मोहन भागवत के पक्ष में. मोहन भागवत का सरसंघचालक बनना भले ही चौंकाने वाला निर्णय नहीं था लेकिन वो गोलवलकर के बाद सबसे जवान सरसंघचालक थे. उन्हें महज 59 की उम्र में संघ की कमान मिली थी. मोहन भागवत जिस तेजी से संगठन में ऊपर की तरफ बढ़े थे, वो चौंकाने वाला था.
तीन पीढ़ी पुराना है संघ से नाता
मोहन मधुकरराव भागवत के परिवार का संघ से तीन पीढ़ी का नाता था. उनके दादा नारायण भागवत सतारा के रहने वाले थे. कानून की पढ़ाई करने के बाद नारायण वकालत करने के लिए सतारा छोड़कर चंद्रपुर आए थे. नागपुर की ‘नील सिटी स्कूल’ में नारायण और केशव बलिराम हेडगेवार सहपाठी हुआ करते थे. दोनों लोगों को स्कूल में ‘वन्देमातरम’ गाने की वजह से स्कूल बदर कर दिया गया था. चन्द्रपुर आने के बाद नारायण ने कांग्रेस ज्वॉइन कर ली. हेडगेवार भी संघ की स्थापना से पहले कांग्रेस के ‘चौवनिया सदस्य’ हुआ करते थे. 1925 में संघ की स्थापना के बाद नारायण भागवत ने सक्रिय तौर पर संघ का काम शुरू किया और उन्हें नया नाम मिला, “नाना साहेब भागवत.”
नाना साहेब भागवत के बेटे मधुकर भागवत का बचपन शाखा में लाठी भांजते हुए बीता. जवान होते-होते वो संघ के प्रचारक बन चुके थे. प्रचारक मतलब संघ का पूर्णकालिक कार्यकर्ता. उन्हें 1940 में संघ के काम विस्तार देने के लिए गुजरात भेजा गया. गुजरात में कुछ साल प्रचारक के तौर पर काम करने के बाद मधुकर घर लौटे. उनकी शादी मालतीबाई से करवा दी गई. शादी के कुछ समय बाद मालती गर्भवती हुईं. रवायत के मुताबिक वो पहली जच्चगी के लिए अपने पीहर सांगली गई. 11 सितम्बर 1950 के दिन वो एक बेटे की मां बनी. इस लड़के का नाम रखा गया मोहन.
मोहन भागवत के पैदा होने के बाद उनके पिता मधुकर भागवत ने कानून की पढ़ाई शुरू की. पढ़ाई पूरी करने के बाद वो चन्द्रपुर लौटे और अपने पिता की तरह वकालत करने लगे. थोड़े समय बाद वो अपने पिता की जगह चंद्रपुर जिले के संघकार्यवाह बने. जिला कार्यवाह आरएसएस का जिला स्तर का सबसे बड़ा पदाधिकारी होता है.
मोहन भागवत का बचपन भी अपने पिता की तरह शाखा में बीता. 12वीं तक चंद्रपुर में पढ़ाई की. इसके बाद भागवत ने अकोला के डॉ. पंजाबराव देशमुख वेटनरी कॉलेज में दाखिला ले लिया. संघ का काम यहां भी जारी रहा. कॉलेज में भागवत को संगीत और थियेटर का शौक लग गया. अंग्रेजी पत्रिका कारवां को दिए इंटरव्यू में मोहन भागवत के छोटे भाई रविंद्र भागवत बताते हैं कि जब मोहन अकोला से अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके घर लौटे तो अपने साथ एक बोरा भरकर इनाम लाए थे. ये इनाम उन्होंने गायन और थियेटर प्रतियोगिताओं में जीते थे. मोहन भागवत की जीती हुई ट्रॉफ़ियां और मेडल अब भी भागवत परिवार के पुश्तैनी मकान की सजावट में काम आ रहे हैं.
सरकारी नौकरी से संघ के प्रचारक तक
पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहन भागवत ने हर नौजवान की तरह अपना रुख नौकरी की तरफ किया. उन्होंने चंद्रपुर में ही एनिमल हसबेंडरी विभाग में बतौर वेटनरी ऑफिसर नौकरी शुरू कर दी. कुछ महीने भागवत चंद्रपुर में रहे. इसके बाद उनका ट्रांसफर चंद्रपुर से 90 किलोमीटर दूर चमोर्शी कर दिया गया.
1974 में भागवत अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए अकोला चले गए. आपातकाल के कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और संघ के प्रचारक बन गए. आपातकाल के दौरान भागवत के माता-पिता को जेल में डाल दिया गया. उनकी मां मालतीबाई उस समय चंद्रपुर में जनसंघ की महिला मोर्चा की अध्यक्ष हुआ करती थीं. भागवत के पास अंडरग्राउंड होने के अलावा कोई चारा नहीं था. आपातकाल के दौरान वो अज्ञातवास में रहे. आपातकाल हटने बाद उन्होंने संघ में तेजी सी तरक्की की.
1990 के बाद का दौर आजाद भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण है. न सिर्फ राम मंदिर आंदोलन की वजह से बल्कि यह कश्मीर घाटी में भयंकर हिंसा का दौर था. इसी समय संघ की शाखाओं में नया खेल शुरू हुआ. खेल का नाम था ‘कश्मीर हमारा है’. इस खेल में कुछ स्वयंसेवक गोल घेरे के बीच खड़े होते. दूसरे स्वयंसेवक घेरे में खड़े स्वयंसेवकों को बाहर धकेलते और नारा लगता, ‘कश्मीर हमारा है.’ आरएसएस अपने स्वयंसेवकों में कश्मीर समस्या के प्रति खेल के जरिए जागरूकता ला रहा था. यह वही दौर था जब शाखाओं में नारे लगाए जाते, “कश्मीर हिन्दुस्तान का, नहीं किसी के बाप का.” खेल के साथ राजनीतिक विचारधारा को नत्थी करने के पीछे जिस शख्स का दिमाग काम रहा था उसका नाम था, मोहन भागवत. भागवत उस समय ‘अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख’ हुआ करते थे. वो 1999 तक इस पद पर रहे. 2000 में एच. वी. शेषाद्री के हटने के बाद उन्हें सरकार्यवाह बनाया गया.
सरसंघचालक के तौर पर
2009 में जब मोहन भागवत ने सरसंघचालक का पद संभाला तो आम चुनाव में महज दो महीने बाकी थे. इस चुनाव में बीजेपी की हार हुई और आडवाणी पीएम इन वेटिंग बने रह गए. इसके बाद संघ ने पार्टी पर अपनी पकड़ फिर से मजबूत करनी शुरू की. चुनाव में हार के बाद अगस्त में बीजेपी के नए अध्यक्ष का ऐलान हुआ. अध्यक्ष ऐसे आदमी को बनाया गया जो राष्ट्रीय राजनीति में उस समय तक बहुत प्रासंगिकता नहीं रखता था. नितिन गडकरी नागपुर के रहने वाले थे. ब्राह्मण परिवार से आने वाले गडकरी का बचपन भी संघ की शाखा में बीता था. इससे पहले वो महाराष्ट्र में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे थे. दौड़ में दूसरा नाम मनोहर पर्रिकर का था. पर्रिकर भी गडकरी की तरह संघ की शाखा से निकले स्वयंसेवक थे. अध्यक्ष पद के चुनाव ने साफ़ कर दिया कि संघ ने एक फिर से बीजेपी की कमान अपने हाथ में ले ली है.
2013 में अगस्त की पहले हफ्ते में कोलकाता में आरएसएस ने सेमिनार रखा. सेमीनार का विषय था ‘इस्लामिक फंडामेंटलिज्म’. इस सेमिनार में देश भर से 220 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था. सेमिनार के बाद मोहन भागवत ने पत्रकारों से औपचारिक बातचीत के दौरान कहा-
“मोदी अकेले ऐसे राजनेता हैं जो संघ की विचारधारा के साथ अब तक जुड़े हुए हैं.”
13 सितम्बर 2013, मोहन भागवत से पत्रकारों की बातचीत के करीब एक महीने बाद नरेंद्र मोदी को आधिकारिक तौर पर बीजेपी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया. नरेंद्र मोदी के लिए संघ का समर्थन हासिल करना आसान नहीं था. गुजरात में गोवर्धन जड़ाफिया और संजय जोशी रैडिकल हिन्दू लाइन वाले नेता माने जाते थे. नरेंद्र मोदी ने बड़ी सफाई के साथ उन्हें बीजेपी में किनारे लगा दिया. इस वजह से संघ और मोदी के बीच रिश्ते बहुत सहज नहीं थे. आखिर में मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी के नाम पर अपनी सहमति जताई. इस समय तर्क दिया गया कि अगर नरेंद्र मोदी संघ के एजेंडा से इतर काम करते हैं तो 2019 में उनसे हिसाब बराबर कर लिया जाएगा.
मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ की कार्यशैली में बड़े बदलाव देखने को मिले हैं. संघ की बीजेपी पर जो पकड़ अब भी है वो इतिहास में कभी नहीं रही. इसके अलावा संघ के अनुषांगिक संगठनों की संख्या और सदस्यता में भी बड़ा इजाफा हुआ है. आज संघ के मुख्य 36 मुख्य अनुषांगिक संगठन काम कर रहे हैं. देश भर में करीब डेढ़ लाख प्रोजेक्ट्स पर काम चल रहा है. शुरुआती दौर में मोहन भागवत संघ के अबतक के सबसे कमजोर सरसंघचालक कहे जाते थे. 2014 के बाद स्थितियां बदल गई हैं. आज सरसंघचालक के चारों तरफ Z प्लस सुरक्षा का घेरा चलता है. यह जान के खतरे की बजाय उनके सियासी हैसियत की गवाही देता है. संघ के ताजा उभार को इतने से समझा जा सकता है कि मंत्रिमंडल विस्तार से ठीक दो दिन पहले बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष संघ की बैठक में सामान्य कार्यकर्ता की तरह पिछली सीट पर बैठा देखा जाता है.