“मुक्तक”
शांति का प्रतीक लिए उड़ता रहता हूँ।
कबूतर हूँ न इसी लिए कुढ़ता रहता हूँ।
कितने आए-गए सर के ऊपर से मेरे-
गुटरगूं कर-करके दाना चुँगता रहता हूँ॥-१
संदेश वाहक थे पूर्वज मेरे सुनता रहता हूँ।
इस मुंडेर से उस मुंडेर भटकता रहता हूँ।
कभी खत लटक जाते गले कभी मैं तार से-
रास तो आता नहीं और खटकता रहता हूँ॥-२
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी