“मुक्तक”
माटी मह मह महक रही है माटी की दीवाल रे।
चूल्हा माटी बर्तन माटी माटी में शैवाल रे।
ऐ माटी तू कहाँ गई रे आती नहिं दीदार में-
माटी माटी ढूढ़ें माटी माटी में कंकाल रे॥-१
कौन उगा है बिन माटी के अंकुर है बेहाल रे।
खोद रहे सब अपनी माटी माटी सम्यक माल रे।
माटी बिना पहाड़ पहुँच क्या सूखे माटी गाँव में-
विचलित हरियाली माटी की मैना झूले डाल रे॥-२