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मुंशयान बुढी

8 नवम्बर 2021

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मुंशियान बूढी


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  पति पत्‍नी के झगडों के गुड से मीठे, नमकीन स्‍वाद का रस भला वो क्‍या जाने जिसने कभी दाम्‍पत्‍य जीवन में प्रवेश ही न किया हो , पति पत्‍नी के वाक युद्ध में भी कितना माधुर्य,कितनी आत्‍मीयता होती है ।

   मुंशी जी स्‍वस्‍थ्‍य युवा तीन पुत्रों व दो शादी सुधा पुत्रियों के पिता थे , सत्तर इकहत्तर की उम्र पूरी लम्‍बी दाडी, लम्‍बे अनुभवों से सफेद हो चुकी थी, दुर्बल शरीर झुकी कमर में पीछे वे कपडे का बस्‍ता लटका कर अपने पुराने सोलह तानों के छातें का सहारा लेकर रोज कचहरी निकल जाया करते ।

छाता उन्‍ही की तरह पुराना हो चला था , परन्‍तु छाता उनकी बूढ़ी कमर का सहारा था ,धीर धीर छाता टेक टेक कर सुबह दस बजे कचहरी के लिये निकल पडते सन्‍ध्‍या सूरज जब अस्‍ताचल की ओर जाते, मुंशी जी अपने घर की राह लेते , घर आते ही जमीन पर बिछी दरी जिसके सामने लकडी की एक पेटी पर अपने झुके कमर का बोझ कम करते ,हाथ मुंह धोकर ,ऑखों पर विदेशी चश्‍मा एंव सिर पर स्‍वदेशी टोपी चढाकर लकडी की पेटी के सामने बैठ जाते ,चाय नाश्‍ता, खाना पीना, उनका वही आ जाया करता था । मुंशी जी की धर्मपत्‍नी मुन्‍शयान बूढी का आसन मुंशी जी के ही सामने पति देव के आते ही लग जाया करता था । आज भी मुंशी जी के अपने आसन पर असीन होते ही मुंशीयान बूढी ने अपने भीमकाय शरीर का बोझ अपने चिरपरिचित आसन पर जमा दिया था । बुढ्ढे के हुक्‍का पानी से लेकर बुढे्ढ के सभी कार्यो की सहभागनी बैठे बैठे अपने हुंक्‍म की तामील किसी कुशल प्रशासनिक अधिकारी की भॉती अपने मौंखाग्र आदेशों से कराती रहती । बेलगाम आदेशों के साथ ही साथ उनके अभ्‍यस्‍त हाथ पान में चूना ,कत्‍था ,सुपारी के सममिश्रणों के नाप तौल में भला चूंक कैसे कर सकते थे, पान के तैयार होते ही एक पान बडे ही आत्‍मीयता से बुढे की तरफ बढाती और एक स्‍वंयम अपने चौडे से मुंह के हवाले कर वर्षो पुरानी डिब्‍बी से घिसा घिसाया तम्‍बाखू मोटी गदेली पर रख मुंशीजी की तरफ बढा देती, मुंशी जी के अभ्‍यस्‍त हाथों ने पान का टुकडा लेकर अपने पोपलाये मुंह के हवाले करते हुऐ बिना पत्‍नी की तरफ देखे हाथ बढा दिया था , मुन्शियान ने चुटकी भर तम्‍बाखू मुंशी जी के दुर्बल पतली गदेली में जैसे ही रखा, बिना किसी अवरोध के मुंशी जी ने तम्‍बाखू का ग्रास मुंह में डाल पुन: अपने लिखा पढी में संलग्‍न हो गये । मुशियान के सब्र का ज्‍वालामुखी पति देव के इस अप्रत्‍याशित व्‍यवहार पर विस्‍फोट कर उठा, बुढ़िया ने जैसे कुम्‍भकरण की तंद्र तोडने के असफल प्रयास में कहॉ, आज हमने सुनार के यहॉ से जेबर उढा लाने को कहॉ था ,क्‍या हुआ ?

बुढ्ढे ने बात अनसूनी कर दी थी, विद्रोही गृह स्‍वामनी को क्‍या मालुम था कि बुढा कैसे पैसे कमाता है , कैसे इतने बडे घर की बेलगाम गाडी को खींच रहा है । मुंशी जी ने बुढ़‍िया के प्रश्‍नों का बिना कुछ उत्‍तर दिये, तम्‍बाखू थूकने के लिये बाहर जाने का प्रयास किया ही था कि मुन्‍शीयान किसी उदंड बालक की तरह अपने शब्‍द बाणों के अचूक प्रहारों से सारा घर सर पर उठा बैठी थी ! बुढ्ढे ने डांटतें हुऐ बुढ़ियॉ को शान्‍त रहने का आदेश देते हुऐ कहॉ था , अभी पैसे नही है , बाद में देखा जायेगा , मुशियान ने किसी राजधराने की राजरानी की तरह कोप गृह में प्रवेश कर खाना पानी का परित्‍याग कर दिया,

 मुंशी जी भी, मुंशीजी थे, उन्‍होने अपने लम्‍बे कचहरी के जीवन में हजारों गुंडे बदमाशों को देखा था , उन पर पत्‍नी के तंग अंधेरे कमरे को कोप गृह बनाने पर भला क्‍या आपतित हो सकती थी , बुढ्ढा जानता था , भूंख लगेगी तो खॉ लेगी , ऐसे अन्‍न जल त्‍यागने की धमकीयों का सिलसिला भी तो उतना ही पुराना था जितने वर्ष इनकी शादी को हो चुके थे । परन्‍तु मुंशियान भी कम जिददी न थी , मुशी जी के दाम्‍पत्‍य इतिहास में शायद यह पहला मौका था जब मुन्शियान ने अन्‍न जल का परित्‍याग इतनी लम्‍बी अवधी तक यथावत जारी रखा था , मुन्शियान बूढी को अन्‍न जल त्‍यागे आज पूरे दो दिन हो चुके थे ,मुशी जी का मन आज किसी काम में नही लग रहा था ,लगता भी तो कैसे , बुढ़या भूंखी है, कचहरी के दोपहर के अल्‍प अवकाश में मुशी जी ने अपना कागज पत्रा पेटी में रख ताला लगाकर सीधे घर की राह ली । किसी अप्रत्‍याशित धटना की परिकल्‍पना के आते ही मुंशी जी कॉप जाते , कही इस बुढ़ापे मे बुढिया कुछ उल्‍टा सीध न कर बैढे, बडा लडका बाहर नौकरी करता था , बॅहू किसी प्राईवेट स्‍कूल में पढाने चली जाती थी । दोनों अविवाहित बच्‍चे स्‍कूल पढने चले जाते, अकेले घर में कहीं यह बेब़कूफ़ बुढियॉ  कुछ कर न बैढ ,मुंशी जी अपने इन्‍ही अप्रिय काल्‍पनिक घटनाओं के विचारों में खोय धीरे धीरे घर तक आ पहूचे थे , मु़शिजी ने आज अपने नित्‍य के आने के उपक्रमों में ऐसा परिर्ततन लाया कि मुंशियान को भनक भी न लगी , कि कोई आया है, मुंशी जी ने दबे पॉव अन्‍दर कमरे में प्रवेश ही किया था, कि अचानाक उनकी नजर बुढियॉ पर पडी जो रसोई में बैढे बैढे पतेली में कुछ खा रही थी ,बुढे ने अपनी उपस्थिती की सूचना किसी गुप्‍तचार की भॉति गुप्‍त रखना इन परस्थितियों में उचित समक्षा ,बुढ्ढे ने भी चाण्‍क्‍य नीती के सूत्रों का परिपालन किसी कुशल राजनीतिज्ञ की भॉति किया था , बुढा अपनी उपस्थिति का अहसास दिला कर भूंख हडताल में बैठी धर्मपत्‍नी का उपहास नही उडाना चाहते थे । मन ही मन पत्‍नी को सकुशल देख सन्‍तोष की सॉस लेकर पुन: कचहरी इस प्रकार से लौट आये थे कि बुढियॉ को कुछ खबर तक न हुई ।

  सन्‍ध्‍या मुंशीजी नित्‍य की भॉती कचहरी से लौट कर आ चुके थे , उन्‍होने अपनी पूर्व आदत के अनुसार आज भी बस्‍ते का बोझ बैठक के हवाले कर दिया ,अन्‍दर जाकर उन्‍होने हाथ मुंह धोकर बैठ चुके थे । नित्‍य की भॉती आज मु़शि़यान अपने आसन पर न थी बुढिया के मौखाग्र आदेशों का संचार भी, आज नही हो रहा था , बुढिया के बैठक की तरह सारा घर सुनसान था ,चाय नास्‍ते का इंतजाम ,बॅहू ने चुप चाप कर दिया था । मुंशी जी ने स्‍ंवय उठकर मुशियान के पान की टोकरी से पान निकाला स्‍वंय बनाकर इस प्रकार से खाया मानों वे मुशियान के विद्रोह से अन्‍जान हो , पान खॉ कर मुंशी जी पुन: अपने कार्यो में हमेशा की तरह से संलग्‍न हो गये । मुशियान को दो दिन से कोपगृह में अन्‍न जल त्‍यागे हो चुका था, परन्‍तु मुशीजी के कानों में जूं तक न रेंगी , बुंढी गृहणी ने मुशीजी के आने के पदचाप की ध्‍वनी से पहचान लिया था कि वे आ चुके है, शायद थोडी ही देर में आकर कहेंगें ,मान जाओ , खाना खा लो ? या फिर हो सकता है कि बुढ़ढा सोने के जेवर उठा लाया हो ?

 परन्‍तु जब बहुत देर हो गई , अब बुढियॉ से न रहा गया, वह अपने अनपढ़ ग्राम्‍य स्‍त्री सुलभ कृन्‍दन से हॉ हॉ हूं  हूं कर कराहने लगी , मुशीजी ने उसके कुल्‍हने कराहने को अनसूंनी कर मन ही मन हॅसते रहे ।

  रात्री नौ बजें बुढियां ने भूंख बेदना की सूचना देने के असफल प्रयासों में जोर जोर से कराहने की आवाज इतनी तीब्र कर दी थी कि इस निर्दयी वृद्ध जीवन साथी का ध्‍यान इस दुखिहारी भूखी प्‍यासी पत्‍नी पर आकृषित हो सके ।

  मुशी जी मन ही मन हॅसते रहे,एंव अपनी आदत के अनुसार अपने कार्यो मे लगे रहे दोनों बच्‍चे माताजी के अन्‍न जल के त्‍यागने से परेशान थे । बडी बहूं ने भी कई बार खाना खॉ लेने की बिनती करते हुऐ कहॉ था , माता जी खाने से क्‍या दुश्‍मनी, कुछ तो खॉ लो, आज पूरे दो दिन से कुछ नही खाया है, मॉ जी एक तारीख को मेरी तनखॉ मिलेगी मै, अपनी तनखॉ के पूरे पैसे आप को दे दूगीं आप ही सूनार के यहॉ से अपना सामान उढा लाना बहुं के सारे अनुयय विनय पर भी बुढ्ढा न प़सीजा था । बच्‍चों ने भी माता जी के भूंख हडताल को तुडवाने का पूरा प्रत्‍यत्‍न कर लिया, अब अपनी विद्रोही माता जी की भॉती पूरे घर के सदस्‍य बागी हो चूके थें ,छोटा पुत्र पिता विद्रोही बन, बुढ़े पिता के समक्‍क्ष किसी योद्धा की भांती खडे होकर कहॉ, बुढे पिता को वे दादा शब्‍द से सम्‍बोधित किया करते थे अत: उन्‍होने अपने उसी स्‍वाभाविक सम्‍बोधन से पिता के सम्‍मुख आकर कहॉ था परन्‍तु उस सम्‍बोधन में पूर्व की भॉती न तो मिठास थी, न ही अपनापन था, मातृत्‍व स्‍नेह में पुत्र का यह पिता के प्रति सम्‍बोधन इतना कठोर व अभद्र हो सकता था, इसके साक्षात्‍कार उस वृद्ध को आज ही हुआ, । उस 15;16 वर्ष के सबसे छोटे पुत्र ने बडे ही कठोर शब्‍दों में बडी ही र्निलज्‍जता से कहॉ था , मॉ ने दो दिन से कुछ भी नही खॉया और आप हो कि खॉ पी कर चुपचाप बैठे हो, अरे आप को शर्म आना चाहिये कि घर का एक प्राणी भूंखॉ है । मुंशी जी ने अपना चश्‍मा उतारकर रखते हुऐ अपने सबसे छोटे स्‍नेही पुत्र को प्रथमबार इस तरह क्रोधित होते देखा था , छोटे पुत्र के क्रोधाग्‍नी से झुलसे वृद्ध को क्‍या पता था कि अभी मंझले पुत्र व बडी बहूं की जली कटी भी सुनाना शेष है ,बडी बहूं ने संयुक्‍त परिवार की सम्‍पूर्ण मर्यादाओं की परिधि में रहते हुऐ कहॉ , दादा जी पैसों से कीमती जान थोडी है ,माताजी ने दो दिन से अन्‍न जल तक गृहण नही किया, उनकी हालत तो देखिये । मुंशी जी माताजी के रहस्‍यों को जानते थे , इसलिये शान्‍त मन ही मन हॅसते रहे , परन्‍तु घर के अन्‍य प्राणी इस सच्‍चाई से अनभिज्ञ थे ,बुढ्ढे ने कुछ जबाब न दिया ,परन्‍तु अपने चिरपरिचित हॅसी से कुछ इस तरह से हॅसे जैसे ज़ुआड़ी अपनी जीत पर मुस्‍कुराता है , बेरहम बुढ्ढे की हॅसी ने तीनों प्राणीयों के क्रोधाग्‍नी को और भड़का दिया था ,कोप कोठरी से मुंशियान कुल्‍हते कराहतें मुंशीजी के समक्‍क्ष बैठकर विलाप करने लगी, ग्रामीण अनपढ़ महिलाओं की तरह अपनी दु:ख गाथा रो रो कर सुनाने में सभ्‍यता असभ्‍यता के दायरों को भूल किसी निर्भक ग्रामीण की भांती सुनाने में कोई कसर न छोडी  । बुढ्ढा तो हमें मारने पर तुला है , मर जायेंगें तभी इसे शान्‍ती मिलेगी । हमारी तो किस्‍मत फूटी थी, जो इस भूंखे गरीब के साथ बॅधें , हमारा तो रिश्‍ता इतने बडे घर से आया था कि सोने चॉदी से लदे रहते ? यहॉ तो एक सोने की चेन तक नही जुडती , बुढी रोते जाती, रोने के साथ साथ अपने दु:खों का बॅखान भी करे जा रही थी , दो दिन से अन्‍न जल त्‍यागे हो गये पर इस बुढ्ढे को हम पर जड़ा भी दया नही है । स्‍वयंम को अन्‍न जल त्‍यागने के सम्‍बोधन के साथ बुढीयॉ के रोने का उपक्रम पहले की अपेक्षा और भी तीब्र हो चुका था । बुढिया को इस प्रकार से रोते देख पास पडोसियों ने किसी अनहोनी धटना के सन्‍देह में सारा घर घेर लिया , छोटे पुत्र की जली कटी बाते मुंशिजी के गले न उतर रही थी । बडी बॅहूं के विलाप ने नारी वर्ग के नेतृत्‍व की बाग डोर सम्‍हाल ली थी , जिसकी र्दुग्‍ान्‍ध बुढ्ढा भॉप गया था । रोती बिखलती दु:खहारी मुशियॉन बुढी ने अपने भीमकाय शरीर का बोझ बिना ‍किसी की परवाह करते हुऐ, आंगन में बने कुऐ में गिर कर  ,आत्‍म हत्‍या करने के प्रयासों में दौड़ कर कुंवे की मुडेर तक जा पहूंची थी  । बॅहू बच्‍चों ने उसे पकड लिया था , बुढ्ढे से अब बर्दास्‍त न हुआ बुढ्ढा भी पीछे पीछे जोर से दहाड़ते हुऐं दौडा , साली नाटक करती है ,!

बचाव के प्रयास को तेज होते देख बुढी ने इस प्रकार से कुंऐ के ऊपर पैर रखा था कि अगर जडा भी चूंक हो जाती तो बुढिया कुंऐ में कूद जाती । मुंशी जी के नाटक करती है ? शब्‍द को सुनते ही बुढीयॉ ने इस प्रश्‍न के प्रतियुत्‍तर में अपने आत्‍महत्‍या का संधन प्रसास ढीला करते हुऐ, जोर से कहॉ कैसा नाटक ? हम मर जाये , तो तुम्‍हे क्‍या , तुम्‍हे तो खुशी होगी ?

मुंशी जी ने कहॉ कैसी खुशी ?

 और नही तो क्‍या , आज दो दिन से हम भूंखे मर रहे है एक भी दाना अन्‍न का नही खाया परन्‍तु तुम्‍हे क्‍या ,तुम्‍हे तो सब नाटक लगता है ?

मुंशीजी ने परिहास ध्‍वनी में कहॉ हॉ हॉ तुमने दो दिन से कुछ नही खाया ,भूखे मर रही हो  । बुढिया ने व्‍यगात्‍मक उत्‍तर के विरूद्ध पुन: अपने प्रश्‍नों का हिद्रय भेदी बाणों का अचूक प्रहार करते हुऐ, जमीन पर इस तरह से गिरी जैसे कि भूंख से सिखस्‍त खा कर गिरी हो, सभी लोग बुढियॉ के इस प्रकार अचानक गिरने पर दौड पडे ,बुढ्ढे ने चिल्‍लाते हुऐ कहॉ कोई जरूरत नही है उठाने की  ! मुंशी जी ने रहसयोदधाटन के उपक्रम में बचाव कार्यो में संलग्‍न व्‍यक्तियों की तरफ देखते हुऐ कहा , ये साली भूंखे होने का नाटक कर रही है , जमीन पर पडी मुंशीयान ने जब अपने विषय में यह शब्‍द सुना तो उसे जैसे मृत्‍युमुखॅ में जाने से पूर्व किसी ने संजीवनी सुधा दी हो इस भॉती मुशियान कुछ ऐसे उठी थी ,जिसकी कल्‍पना तमाशाहीयों को नही थी ।

 क्‍या कहॉ ?  भूखे होने का मै नाटक करती हूं याने मै ख पी कर भूखॅ होने का बहाना कर रही हूं , मुशिजी ने बुढिया का हाथ पकडते हुऐ कहॉ आओ दोनो प्राणी रसाई की तरुफ बढने लगे पीछ पीछ बचाओं कार्य में संलग्‍न बुढ़‍ियॉ के प्रति पूर्ण संवेदना रखने वाले व्‍याक्तियों का समूह उन दोनो वृद्ध पति पत्‍नीयों का अनुशरण करते हुऐ रसोई की तरफ रहस्‍य जानने की जिज्ञासा में बढे जा रहे थे । बुढ्ढा इस प्राकर से बढे जा रहा था कि उसे जैसे बुढियॉ के सारे कारनामें मालुम हो , बुढियॉ इस अशंका में सहम सी गई कि कहीं मुंशीजी ने चुपचाप सब कुछ तो नही देख लिया ? बुढि़यॉ के विलाप व विद्रोह दोनों रहस्‍यों के भाडाफोड़ की शंका से कम क्‍या, बिलकुल शान्‍त हो चले थे, जब बुढ्ढे मुंशिजी ने लकडी़ के छप्‍पर के ऊपर से पतेली निकालते हुऐ उसे भीड़ के सम्‍मुख, इस प्रकार से पटका कि खिचडी के दाने चारों ओर बिखर गये , मुशियान बुढी को काटो तो खून न था, किसी भूचाल या शैलाब के बाद सारा जन समूह स्‍तब्‍ध हो जाता है ठीक उसी प्रकार की स्थिति बुढिया की थी परन्‍तु पास पडोसियों को बुढियॉ के इस द:ख से क्‍या लेना देना था ।

 वे सभी एक साथ जोर का ठहका मार हॅस पडे ।



 डॉ कृष्‍ण भूषण सिंह चन्‍देल   

  वृन्‍दावन बाड गोपालगंज सागर म0प्र0  

 http://krishnsinghchandel.blogspot.in

 krishnsinghchandel@gmail.com



 



नोट- मंगल फोड में भूॅखे चन्‍द्र बिन्‍दू नही बन रहा है इस लिये कही कही पर बिन्‍दू रखा गया है




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 रचना संसार की भीड़ से मै गुजरात गया  रचनाकारों की कलम से निकलती  धूप छाँओं से रंगें शब्दों में वो तसवीरें थी जिसमें सावन भादों सी मिढास थी । कहीं खुशी के मेले ,कही गमों का शोर था  । रचनाओं के विच

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  गुन गुन करती आई चिरईयॉ, कें बें कों शरमा रई । भीडतंत्र कों जमानों है, भईयाँ बहुमत को हे राज । लूट घसोंट (खरीद फरोक्‍त) कर सरकारें बन रई , जनता ठगी लूटी जा रई , अ, ब, स, को ज्ञान नईयॉ, सरकार,

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दद्दा बऊ की सुने ने भाईया साकें (शौक) को मरे जा रये ।

3 नवम्बर 2022
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दद्दा बऊ की सुने ने भाईया साकें (शौक) को मरे जा रये । अँगुरियों (अंगुलियों) मे सिगरट दबाये , और मों (मुँह) में गुटका खाँ रये । निपकत सो पेंट पेर रये , सबरई निकरत जा रये । दद्दा बऊ की सुने ने भाई

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अब तों फि़जओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ

14 अप्रैल 2023
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अब तों फि़जओं में, वो मस्तीयॉ कहॉ । जहॉ देखों बिरानी ही बिरानी छॉई है ॥ बुर्जुगों से भी अब कायदा नही । ज़ाम से ज़ाम टकराने,  की तहजीब सी आई है ॥ किसे कहते हों, तुम इसान यहॉ ? यहॉ तो कपडों की तरह

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ऐ जि़न्दगी ले चल मुझें वहाँ

2 दिसम्बर 2022
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ऐ जि़न्दगी ले चल मुझें वहाँ  जहाँ नफरतों की दिवारें न हो , इंसान का इंसान से, इंसानियत का नाता हो, हर सुबह मस्जिद मे आज़ान हो मंदिर मे घंटो की आवाज़ हो चर्चो में प्रभु इशु की प्रार्थनाएं गुरुद्वार

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मुंशी प्रेम चन्द की रचना

5 फरवरी 2024
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*मुंशी प्रेमचंद जी की एक "सुंदर कविता", जिसके एक-एक शब्द को, बार-बार "पढ़ने" को "मन करता" है-_*ख्वाहिश नहीं, मुझेमशहूर होने की," _आप मुझे "पहचानते" हो,_ &

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