इस्लाम के तीन प्रमुख त्यौहार हैं — ईद, बकरीद और मुहर्रम । जहां ईद का संबंध इस्लाम के जन्मदाता मुहम्मद पैगंबर और कुरान से है, वहीं बकरीद का यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों — तीनों के पहले पैगंबर यानी इब्राहीम से है । परन्तु मुहर्रम सारे मुसलमानों का त्यौहार न होकर केवल शियाओं का त्यौहार है और इसका संबंध मुहम्मद के वंशज अर्थात उनके नाती हसन और हुसैन तथा उनके दामाद अली से है । इस प्रकार मुहर्रम मुहम्मद और कुरान दोनों से बाहर का त्यौहार है ।
पर माजदा असद बताती हैं कि ईद वर्ष में दो बार मनाई जाती है । पहली रमजान के रोजों की समाप्ति पर, जिसे ईद–उल–फितर कहते हैं और दूसरी जिलहिज ( हिजरी संवत का अंतिम या बारहवां महीना ) महीने के दसवें दिन मनाई जाती है, जिसे ईद–उल–जुहा या ईद–उल–बकर या बकर–ईद कहते हैं । हमारी आम धारणा के विपरीत ईद को छोटा त्यौहार और बकरीद को बड़ा त्यौहार कहा गया है । बकरीद को बड़ा त्यौहार मानने का एक कारण यह हो सकता है कि बकरीद हज से जुड़ी हुई है । एक और इस्लामी त्यौहार जिसकी हाल के वर्षों में चर्चा होने लगी है, वह है ईद–मीलाद–उन्नबी । यह नबी अर्थात मुहम्मद के जन्म दिवस को मनाने का त्यौहार है । परंतु इसे इस्लाम में स्वीकृति नहीं है और इस प्रकार इसे गैर-इस्लामी माना जाता है । असद बताती हैं कि यही कारण है कि न तो मुहम्मद के आरंभिक अनुयायियों ने और न ही खलीफाओं ने कभी ईद-मीलाद-उन्नबी मनाई । इसलिए हमारे देश में भारत सरकार द्वारा इस त्यौहार के नाम पर जो छुट्टी दी जाती है उसका कोई औचित्य नहीं है । इस्लाम के पाकिस्तानी विद्वान जमरुद्दीन सिद्दिकी लिखते हैं कि इस्लाम केवल दो ही त्यौहारों — ईद और बकरीद — को मान्यता देता है । इस प्रकार न केवल ईद-मीलाद-उन्नबी, बल्कि मुहर्रम का त्यौहार भी इस्लाम में अमान्य है ।
ईद
वैसे यह ध्यान देने योग्य बात है कि मुहर्रम को छोड़कर शेष इस्लामी त्यौहारों में ईद शब्द जोड़ा गया है — ईद-उल-फितर, ईद-उल-जुहा और ईद-मीलाद-उन्नबी । ईद का अर्थ है ‘ लौटना ’ या ‘ फिर आना ’ । इस प्रकार ईद हर साल लौटकर आती है और इसीलिए ईद का अर्थ खुशी भी हो गया । इसी कारण से ईद और मुहर्रम ( शोक करना ) को साहित्य में विपरीतार्थक माना गया है । फिर भी आम धारणा यही है कि सर्वप्रमुख इस्लामी त्यौहार ईद है । सामान्य लोगों में इस त्यौहार की प्रधानता का कारण संभवतः यह हो सकता है कि इसे एक महीने तक रोजा रखने के बाद मनाया जाता है, जिससे यह लोगों की स्मृति में लंबे समय तक रहता है । हिजरी संवत के अनुसार रमजान साल का नौवां महीना होता है और ईद उसके अगले महीने अर्थात शव्वाल महीने के पहले दिन मनाई जाती है ।
रमजान के संबंध में उल्लेखनीय है कि यह अरबी भाषा का शब्द है, जिसमें इसे ‘ रमादान ’ कहा जाता है । परंतु भारत में फारसी भाषा के प्रभाव के कारण इसका फारसी रूप ‘ रमजान ’ ही प्रचलित है । रमजान के महत्व को लेकर कुरान में उल्लेख है कि कुरान इसी महीने में प्रकट हुआ । हालांकि कहते हैं कि संपूर्ण कुरान को प्रकट होने में तेईस वर्ष लग गए । फिर कैसे केवल एक महीना इतना पवित्र हो गया । इसका उत्तर यह दिया जाता है कि रमजान के महीने में ही कुरान का जमीन पर अवतरण आरंभ हुआ । परंतु इस मामले में कुरान को पढ़कर ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन प्रतीत होता है । कुरान की आयत ( 2 : 185 ) के अनुसार, “ रमजान का महीना वह है जिसमें कुरान उतारा गया लोगों को हिदायत करने के लिए……। इसलिए तुममें से जो कोई इस महीने में मौजूद हो उसे चाहिए कि रोजे रखे और जो बीमार हो या सफर में हो तो दूसरे दिनों में गिनती पूरी कर ले ।” पर कुरान की आयत ( 2 : 183 ) में लिखा है कि, “ ऐ ईमान1 लानेवालो ! तुम पर रोजे अनिवार्य किए गए, जिस प्रकार तुमसे पहले के लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुम डर रखनेवाले बन जाओ ।” बाद वाली आयत से तो यही समझ में आता है कि रोजा रखने की परंपरा इस्लाम-पूर्व की है । इस प्रकार यही लगता है कि अरब के कबाइली मूर्तिपूजकों में उपवास की परंपरा रही हो जिसे बाद में इस्लाम ने अपना लिया हो ।
पर जमील और उमर जैसे लोग अफसोस के साथ कहते हैं कि एक समय ऐसा था जब रमजान उम्मा ( वैश्विक मुस्लिम समुदाय ) की महानता का पर्याय माना जाता था । रमजान के महीने में ही बदर की लड़ाई जीती गई और मक्का को भी जीता गया । इसी महीने में स्पेन में इस्लाम का प्रवेश हुआ और येरुशलम की मस्जिदे अक्सा को ईसाइयों से मुक्त कराया गया । इस प्रकार जमील और उमर जैसे लोग रमजान को इस्लाम के शौर्य से जोड़ते हैं । परंतु इस विचार के साथ कठिनाई यह है कि बदर की लड़ाई और मक्का की जीत दोनों अन्यायपूर्ण कार्य थे । इन दोनों घटनाओं का मोहम्मद असगर अपनी पुस्तक में विस्तार से वर्णन करते हैं । असगर के अनुसार, बदर की लड़ाई ( 624 ई ) का उद्देश्य मक्का वालों के लगभग एक हजार ऊंटों के साथ सामान लेकर दमिश्क से लौट रहे एक काफिले को लूटना था । जहां तक मक्का की जीत की बात है तो इस समय तक मुहम्मद के नेतृत्व में इतनी बड़ी संख्या में मुसलमान मक्का पर अधिकार करने के लिए आए कि मक्का के लोगों के पास आत्मसमर्पण के अलावा कोई चारा ही नहीं था । अतः बिना किसी प्रतिरोध के मक्का पर अधिकार कर लिया गया । इस प्रकार यह कोई युद्ध नहीं था । स्पेन को जीतना सचमुच बहादुरी का काम था, पर उसी स्पेन ने कालांतर में मुस्लिम सत्ता को बुरी तरह पराजित किया और सारे मुसलमानों को स्पेन से या तो भगा दिया या ईसाई बना दिया । इसलिए यदि स्पेन की जीत के पराक्रम की बात की जाएगी तो घोर अपमानजनक पराजय की बात भी सामने आएगी । फिर येरुशलम के बारे में क्या कहा जाए, जिस पर आज एक छोटे से देश इस्राइल का कब्जा है, जिसे सारे अरब देश मिलकर एक बार भी नहीं हरा पाए और उल्टे तीन बार सामूहिक पराजय के शिकार हुए । इतिहास क्रूर होता है । इसका उपयोग बहुत सोच-समझकर ही करना चाहिए ।
रमजान के शुरू होने का जो भी कारण रहा हो, पर रमजान के महीने में सभी सामान्य मुसलमानों के लिए अनिवार्य है कि वे दिनभर अर्थात सूर्योदय से सूर्यास्त तक न खाएं और न पीएं । दिनभर भूखे-प्यासे रहने का परिणाम यह होता है कि लोग सूर्यास्त होते ही खाने पर टूट पड़ते हैं, जिसे इफ्तार कहा जाता है । फिर रात को भी खाते हैं और चूंकि अगले दिन खाना नहीं होता है, इसलिए सूर्योदय से पूर्व भोर में ही जगकर खाना खा लेते हैं, जिसे सहरी कहा जाता है । प्रकृति ने रात सोने के लिए बनाई है, पर इस्लाम के लिए इसमें खाना, खाना और खाना ही होता रहता है । इस खाने में सामान्यतः मांसाहार शामिल रहता है और मांसाहार वैसे ही गरिष्ठ होता है । अर्थात सबकुछ प्रकृति के नियम के विरुद्ध । हमारे यहां स्वास्थ्य की दृष्टि से आयुर्वेद में कहा गया है कि सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए । इस नियम का पालन आज भी अनेक जैन करते हैं । इसी तरह अनेक साधु-संत रात को नहीं खाते हैं । इस प्रकार रात को खाने से बचना न केवल प्रकृति के अनुकूल है, बल्कि वैज्ञानिक भी । स्वास्थ्य की दृष्टि से ही पश्चिम के देशों में शाम के सात बजे के आसपास रात्रि भोजन की परंपरा है ।
इस तरह रमजान के महीने में दिनभर भूखे-प्यासे रहना और रात को अधिक खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत हानिकारक है । संभव है पहले लोगों को इतना समझ में न आता हो, पर अब तो रमजान के महीने में अक्सर डॉक्टर की सलाह अखबारों में छपती रहती है । डॉक्टर बताते हैं कि मधुमेह रोगी यदि भूखे रहते हैं, या रात को अधिक खाते हैं तो उनके लिए बहुत अधिक नुकसानदेह होता है । इसी प्रकार अन्य बीमारियों की भी स्थिति है । जबकि रमजान में दिन में दवा लेने की भी मनाही है । रमजान के दौरान रात की नींद भी बाधित होती है, क्योंकि भोजन बनाने की प्रक्रिया तीन बजे भोर से ही शुरू हो जाती है । 1980 के दशक में जब मैं दिल्ली आया, तो यमुनापार के एक मुहल्ले में कुछ समय के लिए रहा । जिस घर में मैं रहता था उसके सामने मुसलमानों के अनेक घर थे । तभी रमजान शुरू हो गया । रमजान को लेकर यह मेरे जीवन का पहला और अंतिम अनुभव था । तीन बजे भोर से ही सारे-के-सारे मुसलमान जग जाया करते और इतना शोर मचाते कि मेरी नींद खुल जाती । मजबूरी में मुझे जगना पड़ता और उनके क्रिया-कलाप देखने पड़ते । पानी भरने से लेकर बर्तन मांजने और खाना बनाने से लेकर खाने तक की लंबी प्रक्रिया सूर्योदय से पहले यंत्रवत संपन्न की जाती । इसके बाद दिन में महिलाएं जमकर सोतीं और पुरुष काम करने बाहर जाते ।
विलियम डैलरिंपल अपनी पुस्तक ‘ आखरी मुगल ’ में 1857 के मई में पड़ने वाले रमजान के सोलहवें दिन की सुबह का वर्णन इस प्रकार करते हैं :
“ जामा मस्जिद में बार-बार घंटा बजने से लोगों की आंख खुलती है । सब जगह रोशनी जल जाती है और सहरी पकाने की तैयारी शुरू होने लगती है । दिनभर के लिए कुछ खाने का या पानी की एक बूंद भी पीने का कम-से-कम बारह घंटे बाद सूर्यास्त तक यह अंतिम अवसर होता है । सूर्योदय से पहले मुसलमान परिवारों में लोग सहरी खा रहे होते, मीठी सिवइयां या जिनको इतनी भूख लग सकती हो वे कबाब भी । सबकुछ जल्दी-जल्दी खाया जाता ताकि ( लाल ) किले से सहरी समाप्त होने के गोले की आवाज आने से पहले समाप्त हो जाए ।” ( पृष्ठ 145 )
इस प्रकार जामा मस्जिद में बार-बार घंटा बजाकर लोगों को जगाया जाता और तोप से गोला छोड़कर सहरी की समाप्ति की घोषणा की जाती । अब सोचिए कि जो मुसलमान नहीं होंगे उन्हें कितना कष्ट होता होगा । वे परिस्थितिवश मुसलमानों की दिनचर्या के अनुकूल सोने और जागने को विवश होते होंगे ।
हिजरी संवत के अनुसार रमजान का समय भी प्रत्येक वर्ष बदलता रहता है । इसका कारण यह है कि हिजरी संवत में प्रत्येक महीना 29 या 30 दिन का ही होता है, जिसके फलस्वरूप इसके एक वर्ष में 365 दिन की जगह 354 दिन ही होते हैं । इसलिए रमजान हर साल पिछले साल की तुलना में 11 दिन पहले आता है । अर्थात रमजान गर्मी, सर्दी और बरसात किसी भी मौसम में पड़ सकता है । परंतु भारत जैसे देशों में जहां आठ महीने या उससे अधिक समय के लिए गर्मी पड़ती है, वहां गर्मियों में रमजान के पड़ने की संभावना अधिक रहती है । और गर्मियों में स्पष्ट है कि दिनभर बिना पानी के रहना अत्यंत कष्टप्रद होता है ।
हमारे गांव में रमजान से जुड़ी अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं । जो कथा सबसे लोकप्रिय है उसमें एक मुसलमान जिसने रोजा रखा हुआ है वह भीषण गर्मी से बचने के लिए बार-बार नदी में जाकर स्नान करता है और वहीं डुबकी लगाकर अंदर-ही-अंदर पानी भी पी लेता है । एक बार ऐसा होता है कि उसके गले में एक मछली फंस जाती है । अब वह कितनी भी कोशिश करता है, पर मछली बाहर नहीं निकल पाती है । विवश होकर वह नदी से बाहर आता है और अन्य लोगों से सहायता मांगता है । अब लोगों के सामने उसकी पोल-पट्टी खुल जाती है और रोजा भ्रष्ट करने के लिए उसे दंड दिया जाता है । इस कथा से पता चलता है कि गर्मियों में पूरे तीस दिन तक पानी न पीना कितना कठिन है ।
दिनभर भोजन व जल ग्रहण न करने के कारण मुंह में लार का अभाव हो जाता है और एक प्रकार से मुंह बासी ही रहता है । इसलिए रोजा रखने वालों के मुंह से दुर्गंध निकलना बहुत स्वाभाविक है । मुझे याद है जब मैं मुजफ़्फरपुर ( बिहार ) में एक कॉलेज में पढ़ता था, तो वहां के अधिकतर लोगों की तरह मेरी भी पान खाने की आदत हो गई थी, विशेषकर शाम के समय । हम जिस दुकान पर पान खाने जाया करते थे, वह दुकान एक मुसलमान की थी । रमजान के महीने में मेरा अनुभव है कि दुकानदार और मेरे बीच अच्छी-खासी दूरी के बावजूद उसके मुंह की दुर्गंध मेरे पास तक आ जाती थी । मुझे उस दुकानदार पर बहुत दया आती थी । उसे अपनी जीविका के लिए पान बेचना पड़ता था । अन्यथा वह अपने घर में आराम करता । इसी तरह अधिकतर मुसलमान मजदूरों की भी स्थिति होती है । उन्हें भूखे-प्यासे काम करना पड़ता है ।
दिल्ली में हमारे पुराने ऑफिस में एक मुसलमान वकील थे । एक दिन उन्होंने लगभग बारह बजे मुझे फोन किया और मुझसे मिलने की अनुमति मांगी । संयोग से उस दिन मैं बहुत व्यस्त था । इसलिए उनसे कहा कि यदि आप चार बजे के बाद आएं तो मैं मिल सकता हूं । उन्होंने याचना करते हुए कहा कि, “ मैं आपका बस पांच मिनट का समय चाहता हूं, पर दोपहर से पहले ही ।” उनके इस आग्रह को मैं टाल नहीं सका और मिलने की अनुमति दे दी । वह थोड़ी ही देर में मेरे कमरे में आ गए । जल्दी-जल्दी में उन्होंने अपनी बात रखी । मैंने उत्सुकतावश पूछा कि ऐसा क्या था कि आप तुरंत मिलना चाह रहे थे । इतनी-सी बात के लिए तो आप बाद में भी मिल सकते थे । उनका उत्तर था कि, “ मैं बाद में भी मिल सकता था, लेकिन वकील हूं और आजकल रोजे पर हूं, इसलिए दोपहर तक जिरह करते-करते मैं थक जाता हूं और कोशिश करता हूं कि दोपहर के बाद न काम करना पड़े और न ही बोलना पड़े ।”
मैं देर तक सोचता रहा कि यह व्यक्ति कितने बड़े संकट में है । जैसे व्यवसाय में है उसमें तो दोपहर बाद भी कोर्ट में मामला लग सकता है । फिर यह क्या करेगा ? क्या कोर्ट से भी याचना करेगा कि मेरे मामले की सुनवाई दोपहर से पहले ही करा दीजिए ? और यही व्यक्ति यदि डॉक्टर होता तो क्या दोपहर के बाद इलाज नहीं करता ? आज अनेक ऐसे व्यवसाय हैं, जिनमें आपके पास इस बात की स्वतंत्रता नहीं है कि किस समय काम करना पड़ेगा और किस समय नहीं । सदियों पहले जब रोजा शुरू हुआ होगा तब ऐसे व्यवसाय लगभग नहीं रहे होंगे और लोग स्वतंत्र रहते होंगे कि काम करें या न करें । आज तो बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो यात्रा या दौरे पर रहते हैं । अनेक ऐसे व्यवसाय हैं, जिनमें दिन और रात में कोई अंतर नहीं है, जैसे रेलसेवा, हवाईसेवा, अस्पताल आदि । इनके अलावा छात्रों और शिक्षकों का भी ऐसा काम है, जिससे समझौता नहीं किया जा सकता । इस प्रकार आज के इस आधुनिक युग में मुसलमानों के साथ यह कितना बड़ा अन्याय है ! कोई आश्चर्य नहीं कि अब अनेक मुसलमान, विशेषकर जो बड़े-बड़े पदों पर हैं, रोजा नहीं रखते । खाड़ी के देशों के बारे में तो कहा जाता है कि लोग छुपकर खा लेते हैं ।
दो वर्ष पूर्व की बात है । न्यू यॉर्क टाइम्स में लिलिया ब्लेज लिखती हैं कि ट्यूनिशिया की राजधानी ट्यूनिस में सैकड़ों लोगों ने रेस्तरां और कैफे को बलात बंद रखने के विरुद्ध सड़कों पर निकल आए और भरी दोपहर में शहर के बीचोंबीच स्थित चौराहे पर पानी पीकर और सैंडविच खाकर रमजान के महीने में दिन में न खाने और न पीने के सरकारी फैसले का विरोध किया । उनका कहना था कि कौन खाता और नहीं खाता है इसे लोगों पर छोड़ देना चाहिए । इसे प्रदर्शनकारियों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता से भी जोड़ा । लेकिन सरकार के अतिरिक्त इसके लिए सामाजिक दबाव भी जिम्मेदार है, जो इस परंपरा में बदलाव नहीं लाने देता । जमरुद्दीन सिद्दिकी पाकिस्तान के बारे में ऐसी ही बात बताते हैं । जमरुद्दीन सिद्दिकी लिखते हैं कि पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर प्रांत में यदि कोई रमजान के दिनों में खा-पी ले तो उसे मारा-पीटा जाता है । ब्लेज आगे लिखती हैं कि मोरक्को में एक दंपति की लोगों ने केवल इसलिए पिटाई कर दी, क्योंकि उन दोनों पर आरोप था कि उन्होंने रमजान के महीने में शारीरिक संबंध बनाया था । अब सोचिए कि वह समाज कैसा है, जो इस सीमा तक व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर हमला करता है !
वैसे कुरान ( 2 : 187 ) में लिखा है कि, “ तुम्हारे लिए रोजों की रातों में अपनी औरतों के पास जाना जायज ( वैध ) हुआ । अल्ला को मालूम था कि तुम लोग अपने-आप से छल-कपट करते थे, तो उसने तुम पर रहम किया और तुम्हें माफ कर दिया ।” वैसे यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि कैसी-कैसी बातों में अल्ला की रुचि है ! फिर भी जिस काम को अल्ला ने वैध ठहराया उसे अल्ला के मानने वाले क्यों अवैध ठहरा रहे हैं ? अल्ला को लगा कि चूंकि लोग छल-कपट करके ऐसा काम करेंगे तो अल्ला को लोगों पर दया आ गई । पर इसी तरह खाने को लेकर भी अल्ला को क्यों दया नहीं आई ?
रमजान को लेकर सबसे बड़ी बात यह है कि रोजा रखना सभी सामान्य मुसलमानों के लिए ( बीमार, अपाहिज, छोटे बच्चे, गर्भवती स्त्री और जच्चा को छोड़कर ) अनिवार्य है । यहां तक कि रोगी और यात्री को भी स्वस्थ हो जाने और यात्रा पूरी कर लेने के बाद रोजे के दिन पूरे करने होते हैं । प्रश्न उठता है कि रोजे को लेकर इस्लाम इतना कठोर और कट्टर क्यों है ? तो इसका उत्तर संभवतः यह है कि मुसलमान होने की पांच शर्तें हैं और रमजान में रोजे रखना उनमें से एक है । ये पांच शर्तें हैं — कलमा पढ़ना और उस पर विश्वास करना; दिन में पांच बार नमाज पढ़ना; रमजान में रोजे रखना; जकात देना और आर्थिक रूप से सक्षम लोगों द्वारा हज करना । इसलिए इस्लाम शर्तों में बंधा हुआ मजहब है । यह हिंदू धर्म की तरह मुक्त नहीं है । मुसलमानों को इन शर्तों को पूरा करके सिद्ध करना पड़ता है वे मुसलमान हैं । इस प्रकार यदि कोई मुसलमान इन पांचों शर्तों में से एक को भी न माने तो वह अविलंब काफिर मान लिया जाता है । इस प्रकार ऐसी व्यवस्था की गई है कि मुसलमान इन शर्तों को पूरा करने के अलावा कुछ और कर ही न पाएं । यदि केवल पांच बार की नमाज को ही लीजिए, तो किसी भी व्यक्ति से सोलह घंटों की जागृत अवस्था में हर तीन घंटे बाद उसे अनिवार्यत: नमाज पढ़नी है । और नमाज के लिए यह भी कहा गया है कि समूह में नमाज पढ़ने से अधिक सवाब अर्थात लाभ या पुण्य मिलता है, इसलिए नमाजी को मस्जिद जाना पड़ता है । कोई आश्चर्य नहीं कि बार-बार मस्जिद जाने को लेकर एक कहावत चल पड़ी कि “ मिया की दौड़ मस्जिद तक ” । अर्थात मिया मस्जिद के सिवाय और कहां जाएगा ?
इस प्रकार इस्लामी तौर-तरीकों से सबसे अधिक नुकसान मुसलमानों का ही होता है । परंतु बात यहीं तक नहीं रुकती । इस्लामी तौर-तरीकों से गैर-मुसलमान भी प्रभावित होते हैं । सबसे अधिक तो शुक्रवार की नमाज के समय । दोपहर के समय शहरों में सभी मस्जिदों के आसपास इतनी भीड़ हो जाती है कि लोगों का आना-जाना बाधित होता है । इसी तरह मस्जिदों से आने वाली अजान की आवाज से भी लोग प्रभावित होते हैं, विशेषकर सुबह के समय जब उनकी नींद खराब होती है । रमजान से गैर-मुसलमान कैसे प्रभावित होते हैं इस बारे में भी एक घटना याद आती है । एक बार की बात है मैं कुछ अधिकारियों के साथ इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता गया । वहां के किसी मंत्रालय में हमारी बैठक होनी थी । हम लोग समय पर एक सम्मेलन कक्ष में पहुंच गए । थोड़ी देर बाद उस मंत्रालय के सभी बड़े अधिकारी आए और हमारी बैठक शुरू हुई । सबका परिचय हो जाने पर इंडोनेशिया के उस मंत्रालय के सचिव ने हमसे कहा कि, “ आजकल हमारा रमजान चल रहा है, इसलिए हम आपको चाय-पानी और खाने के लिए नहीं पूछ सकते । कृपया इस सामान्य शिष्टाचार को न निभा पाने के लिए हमें क्षमा कीजिए ।” मैं सोचता रहा कि कैसी विवशता है इन लोगों की ! ये बेचारे तो न खा सकते हैं और न ही खिला सकते हैं । स्वाभाविक है कि ऐसे समय में बाहरी लोग आने से कतराएंगे । इस प्रकार सरकारी और गैर-सरकारी काम पर भी असर पड़ेगा । बाद में मुझे जानकारी मिली कि खाड़ी के देशों में तो कानूनी रूप से दिनभर खाने-पीने की दुकानों पर ताला लगवाया जाता है । इस प्रकार न केवल मुसलमानों के लिए, बल्कि गैर-मुसलमानों के लिए भी रमजान कष्टकारी है । इसलिए इससे दूसरे संप्रदायों के लोगों के साथ सामाजिक मेलजोल बढ़ने की जगह घटता है ।
इसी से जुड़ी एक और घटना है । जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक हिंदू प्रोफेसर हैं । जैसे सब लोग अपना दोपहर का भोजन दफ़्तर ले जाते हैं, वैसे ही वह भी अपना भोजन ले जाते हैं । परंतु जब रमजान का महीना होता है, तो वह दोपहर के भोजन को लेकर दुविधा में पड़ जाते हैं । चूंकि वहां मुसलमान शिक्षकों और छात्रों की बहुतायत है, इसलिए वह नहीं चाहते कि कोई उन्हें खाते हुए देखे । इसलिए वह ऐसे समय की प्रतीक्षा में रहते हैं जब कोई उनके कमरे में न आए । कई बार तो उन्हें ऐसा उपयुक्त समय नसीब नहीं होता, इसलिए उन्हें अपना भोजन वापस घर ले जाना पड़ता है ।
रमजान के महीने में दिन में भोजन न करने के अलावा मुसलमानों से अपेक्षित है कि वे नमाज पर अधिक ध्यान दें और रात में मस्जिदों में होने वाली कुरान पर चर्चा में भी हिस्सा में । नमाज पर अधिक ध्यान देने से अभिप्राय है प्रतिदिन पांचों वक्त नमाज पढ़ने के अतिरिक्त नमाज पढ़ना । रात में कुरान पर चर्चा में हिस्सा लेना भी अपेक्षित है, विशेषकर रमजान की अंतिम दस रातों में । इसे तरावी कहा जाता है । तरावी में पूरा कुरान पढ़ा जाता है । इतनी मोटी पुस्तक पढ़ने में कई रातें लग जाती हैं । स्पष्ट है कि ऐसे लोग किस सीमा तक काम पर ध्यान दे पाते होंगे । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इन लोगों की कार्यक्षमता प्रभावित होती होगी ।
कई अर्थशास्त्री इस बात पर शोध करते रहे हैं कि रमजान के महीने में मुसलमान-बहुल देशों में किस सीमा तक कार्यक्षमता प्रभावित होती है । वैसे इसका कोई सटीक आकलन नहीं है, पर अनुमान यही है कि कार्यक्षमता में कमी आती है । इसलिए रमजान पर मुसलमानों को विचार करना चाहिए कि यह प्रथा वर्तमान समय में कितनी प्रासंगिक है । कम-से-कम रोजा रखने की अनिवार्यता तो समाप्त कर ही देनी चाहिए ।
बकरीद
मुसलमानों का दूसरा प्रसिद्ध त्यौहार है — बकरीद । कुरान का एक सूरा अर्थात अध्याय है — अल-बकरा । अल बकरा का अर्थ है गाय । इस प्रकार बकरीद का अर्थ हुआ गाय की ईद या गाय की कुर्बानी । बकरा-ईद शब्द में जो बकरा है, उसका हमारे बकरा या बकरी से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है । इसलिए इस ईद में गाय की हत्या की जाती है । वैसे जहां गाय नहीं मिलती या गाय की हत्या नहीं की जा सकती, तो बकरों की हत्या की जाती है । हां, यह भी सच है कि हमारे देश में कुछ मुसलमान ऐसे हैं, जो अपने हिंदू मित्रों के प्रति स्नेह के कारण गोमांस भक्षण से बचते हैं । इस्लाम के दोनों ही त्यौहार ईद और बकरीद में सारे संसार में लाखों-करोड़ों पशुओं की हत्या की जाती है । बकरीद के समय एक साथ और एक ही स्थान यानी मक्का में सबसे अधिक पशु मारे जाते हैं । पशु हत्या हज का एक अभिन्न अंग है और हज के समय ही बकरीद मनाई जाती है । इसलिए प्रत्येक मुसलमान की ओर से पशु हत्या की जाती है । यहां तक कि जो हज पर नहीं जा पाते हैं वे भी, जो हज के लिए जा रहे हैं उन्हें पैसे देते हैं कि उनकी ओर से भी पशु हत्या की जाए ।
संभवतः संसार के किसी भी संप्रदाय के लोग एक दिन विशेष में इतनी बड़ी संख्या में पशु हत्या नहीं करते, जितने कि मुसलमान । सैकड़ों सालों से चल रही अनगिनत पशुओं की प्राणहत्या की जो कुल जमा आह होगी, उससे शायद ही कभी इस्लाम उबर पाए । रमजान के महीने में भी प्रतिदिन इन्हें मांस चाहिए । आश्चर्य नहीं कि संत कबीर को कहना पड़ा कि, “ दिन में रोजा रखत हैं और रात हनत हैं गाय ।” कितना बड़ा विरोधाभास है । दिनभर उपवास करना अर्थात धार्मिक व सात्विक बनना और रात को हत्यारा बनना । जिस ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है, उसी ने पशु भी बनाया है । इस दृष्टि से पशु हमारे वृहत परिवार का सदस्य है । फिर कैसे अपने परिवार के सदस्य की हत्या करके हम आनंद की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं ।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि पशु-हत्या को लेकर इस्लाम में जो भाव है उसमें दया, करुणा, सहानुभूति जैसे मानवीय गुण नहीं हैं । असद लिखती हैं कि, “ कुर्बानी के जानवरों को काबे की तरफ मुंह करके लिटाया जाता है और एक दुआ पढ़ी जाती है । उसके बाद कुर्बानी कर दी जाती है । कुर्बानी करने के बाद भी दुआ पढ़ी जाती है । उचित यही माना जाता है कि अपने हाथ से कुर्बानी की जाए, नहीं तो उस समय वहां उपस्थित रहा जाए और कुर्बानी की दुआ पढ़ी जाए । कुर्बानी करते समय अपने दिल में यह इरादा करना जरूरी होता है कि मैं यह कुर्बानी अपनी तरफ से कर रहा हूं और यह सवाब ( पुण्य ) के लिए की जा रही है ।” ( पृष्ठ 31 ) असद की बातों से स्पष्ट है कि पशु की रेतकर हत्या करने ( जिसे हलाल करना कहा जाता है ) की पूरी प्रक्रिया को परिवार के सभी सदस्य अर्थात आबालवृद्ध देखने को विवश हैं । बार-बार ऐसी हिंसा देखकर या तो व्यक्ति हिंसक हो जाएगा या उससे विरक्त हो जाएगा ।
असद आगे लिखती हैं, “ बड़े पशु ( गाय, बैल, ऊंट, भैंस आदि ) की एक कुर्बानी में सात कुर्बानियां मानी जाती हैं अर्थात सात व्यक्तियों के हिस्से की कुर्बानी ही जाती है । छोटे पशु बकरा, भेड़ आदि की एक ही कुर्बानी मानी जाती है ।” ( पृष्ठ 30 ) कोई आश्चर्य नहीं कि बड़े पशुओं की ओर मुसलमानों का झुकाव अधिक होता होगा ताकि कम पशुओं से ही अधिक लोगों का काम बन जाए । असद यह भी बताती हैं कि, “ ऐसा माना जाता है कि कुर्बानी के जानवर के हर बाल के बदले एक नेकी मिलेगी और कुर्बानी करना उस दिन का सबसे अच्छा काम है । कुर्बानी अपनी तरफ से अनिवार्य है ।” ( पृष्ठ वही )
वैसे बलि प्रथा हिंदुओं में भी है । पर हिंदू दो प्रकार से मुसलमानों से भिन्न हैं । पहली बात तो यह कि न तो सभी देवी-देवताओं के लिए बलि चढ़ाई जाती है और न ही सभी हिंदू ऐसा करते हैं । इस प्रकार थोड़े-से ही हिंदू हैं, जो बलि प्रथा को मानते हैं । दूसरी बात यह कि धीरे-धीरे बलि प्रथा दुर्बल होती जा रही है । संभव है कालांतर में यह लगभग समाप्त हो जाए । लेकिन इस्लाम में सभी सामर्थ्यवान के लिए ऐसा करना अनिवार्य है । साथ ही, इस्लाम में जकात अर्थात दान देना भी अनिवार्य है और जिस पशु की हत्या की जाती है, उसके मांस को गरीबों में बांटना बहुत ही पुण्य का काम माना जाता है । इसलिए जकात जैसे नियम भी इस प्रथा को प्रोत्साहित करते हैं । वैसे देखा जाए तो गरीबों को दान देने के लिए सभी धर्मों में कहा गया है, लेकिन जिस प्रकार इस्लाम में इसे भी अनिवार्य बनाया गया है, वह पूरी तरह अनुचित है । प्रत्येक मुसलमान को अपनी आय का ढाई प्रतिशत अनिवार्यत: दान देना है । इसका परिणाम यह होता है कि पशु हत्या होती है और लोग मदरसों और मस्जिदों को दान देते हैं । कुल-मिलाकर ऐसे दान से मुसलमान और भी कट्टर और दकियानूसी बनते हैं । कई विद्वानों का मत है कि उद्देश्य गरीबी को दूर करना होना चाहिए, न कि अनिवार्य रूप से दान देना । कोई आश्चर्य नहीं कि इस अनिवार्य नियम के बावजूद आज मुसलमान सबसे अधिक पिछड़े और गरीब हैं । और जिन धर्मों में दान की अनिवार्यता या बाध्यता नहीं है, वे कहीं अधिक संपन्न हैं ।
हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस बकरीद की शुरुआत कैसे हुई । इस बारे में “ हजरत इस्माइल अलैहिस सलाम की याद में आज होगी कुर्बानी ” शीर्षक से दैनिक भास्कर में एक लेख प्रकाशित हुआ । इस लेख का सार आगे दिया जा रहा है । बकरीद का महीना वास्तव में पैगंबर इब्राहीम की याद में मनाया जाता है, जिनको अल्ला ने 80 साल की उम्र के बाद पहला बेटा इस्माइल के रूप में दिया । पूरे घराने में खुशी की लहर दौड़ गई । लेकिन अल्ला को कुछ और ही मंजूर था । अल्ला ने इब्राहीम से एक बड़ा इम्तिहान लिया जिसमें वह कामयाब रहे । सबसे बड़ा इम्तिहान तब देना पड़ा जब उनके पुत्र इस्माइल की उम्र बारह साल हुई । उम्र के अंतिम पड़ाव में हुए बेटे के जन्म के कारण इब्राहीम उसे बहुत प्यार करते थे । मगर अल्ला ने उस प्यारे बेटे को अल्ला की राह में कुर्बानी देने का हुक्म दे दिया । अल्ला के इस हुक्म से इब्राहीम खुश थे और वे हंसी-खुशी बेटे को कुर्बान करने को तैयार हो गए और अल्ला के इस हुक्म के बारे में जब इब्राहीम ने इस्माइल को बताया तो वह भी हंसी-खुशी अल्ला की राह में कुर्बान होने को राजी हो गए । हुक्म के मुताबिक इब्राहीम कुर्बानी के दिन अपने लाडले इस्माइल को सुबह नहला-धुला कर नए कपड़े पहनाकर मीना के मैदान ( मक्का ) में कुर्बानी देने के लिए ले गए और कुर्बानगाह में लिटा दिया और जैसे ही छुरी चलानी चाही तो बेटे ने कहा कि अब्बुजान छुरी चलाने से पहले आंख पर पट्टी बांध लें ताकि छुरी चलाते समय हाथ न कांपे । तब इब्राहीम ने आंख पर पट्टी बांध ली । उसके बाद जैसे ही छुरी चलाने लगे तो छुरी नहीं चली । दोबारा प्रयास किया गया तब छुरी चल गई और कुर्बानी भी हो गई, मगर जब आंख पर लगी पट्टी खोलकर देखा तो इस्माइल की जगह जिब्राइल2 द्वारा जन्नती दुम्बा ( एक पशु ) लेकर लिटा दिया गया था । दरअसल अल्ला इब्राहीम से इम्तिहान लेना चाह रहे थे और इब्राहीम सफल रहे । तब से ईदुल अजहा ( बकरीद ) के दिन मुसलमानों पर कुर्बानी फर्ज हो गई । कुर्बानी का गोश्त तीन हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा अपने लिए रखना है, दूसरा हिस्सा अपने बगलगीरों में एवं तीसरा हिस्सा अपने रिश्तेदारों तथा गरीबों के बीच वितरण करना है ।
ऊपर जिस नाटकीय अंदाज में इस घटना का वर्णन किया गया है, उसके लिए कुरान में थोड़े-से ही शब्द हैं । कुरान के सूरा साफ़्फ़ात की आयतें देखिए : सो जब वह लड़का ऐसी उम्र को पहुंचा कि इब्राहीम के साथ चलने-फिरने लगा, तो इब्राहीम ने फरमाया कि बेटा ! मैं ख्वाब में देखता हूं कि मैं तुमको जिबह कर रहा हूं, सो तुम भी सोच लो कि तुम्हारा क्या विचार है ? वह बोले कि मेरे पिता ! आपको जो हुक्म हुआ है आप कीजिए। अल्ला ने चाहा तो आप मुझे धैर्यवान पाएंगे । ( 102 ) अंततः उसने ( बाप ने ) उसे कनपटी के बल लिटा दिया । ( 103 ) और हमने ( अल्ला ने ) उसे पुकारा, ऐ इब्राहीम ! तूने स्वप्न को सच कर दिखाया । निस्संदेह हम उत्तम काम करने वालों को इसी प्रकार बदला देते हैं । ( 104-105 ) निस्संदेह यह खुली हुई परीक्षा थी । और हमने उसे ( बेटे को ) एक बड़ी कुर्बानी के बदले में छुड़ा लिया । ( 106-107 ) और हमने ( अल्ला ने ) पीछे आने वाली नस्लों में उसका जिक्र छोड़ा । ( 108 )
कुरान में कहीं भी बेटे के खुशी-खुशी कुर्बानी के लिए तैयार होने और इब्राहीम की आंखों पर पट्टी बांधने जैसी बातें नहीं हैं । पर सबसे बड़ी बात तो यह है कि कुरान में कहीं भी बकरीद मनाने और पशुओं की हत्या करने की बात नहीं है । बस इतना ही लिखा है कि आने वाली पीढ़ियां इसे याद रखेंगी । याद करने का अर्थ किसी भी प्रकार कुर्बानी नहीं हो सकता । ऊपर दिए गए नाटकीय वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि सामान्यतः मुल्ला-मौलवी किस प्रकार तिल का ताड़ बनाते हैं ।
पर कुरान तो बहुत बाद में आया है और इब्राहीम के बारे में कहा जाता है कि वह यहूदियों के पैगंबर मूसा और ईसाइयों के पैगंबर ईसा से भी पहले हो चुके हैं । इब्राहीम को वास्तव में पहला पैगंबर माना जाता है । और यह मान्यता यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों में एकसमान है । इसीलिए इन तीनों मजहबों को इब्राहिमी मजहब या Abrahmic religion कहा जाता है । वास्तव में इब्राहीम के विषय में सर्वप्रथम यहूदियों ने ही बाइबिल में लिखा है । कुरान तो वस्तुतः यहूदियों, ईसाइयों, पारसियों और अरब के मूर्तिपूजकों की प्रथाओं की खिचड़ी है । इसका अपना कुछ भी नहीं है । इसने अपने मजहब की सामग्री अनेक स्रोतों से ली है और सबसे बड़ी बात यह है कि उस सामग्री के विकृत रूप को अपने में समाहित किया है । इस प्रकार अब देखिए कि यहूदियों और ईसाइयों का बाइबिल इब्राहीम के विषय में क्या कहता है ।
बाइबिल, उत्पत्ति, अध्याय 22 — “ परमेश्वर ने, इब्राहीम से यह कहकर उसकी परीक्षा की, कि हे इब्राहीम, देख, मैं यहां हूं । उसने कहा, अपने पुत्र को अर्थात अपने इकलौते पुत्र इसहाक को, जिससे तू प्रेम रखता है, संग ले कर मोरिय्याह देश में चला जा, और वहां उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊंगा होमबलि करके चढ़ा । ( 1-2 ) सो इब्राहीम ने होमबलि की लकड़ी ले अपने पुत्र इसहाक पर लादी और आग और छुरी को अपने हाथ में लिया; और वे दोनों एक साथ चल पड़े । ( 6 ) इसहाक ने अपने पिता इब्राहीम से कहा, हे मेरे पिता; आग और लकड़ी तो हैं; पर होमबलि के लिए भेड़ कहां है ? ( 7 ) इब्राहीम ने कहा, हे मेरे पुत्र, परमेश्वर होमबलि की भेड़ का उपाय आप ही करेगा । ( 8 ) सो वे दोनों संग-संग आगे चलते गए । और वे उस स्थान पर पहुंचे जिसे परमेश्वर ने उसको बताया था; तब इब्राहीम ने वहां वेदी बनाकर लकड़ी को चुन-चुनकर रखा, और अपने पुत्र इसहाक को बांधकर वेदी की लकड़ी के ऊपर रख दिया । ( 9 ) और इब्राहीम ने हाथ में छुरी को ले लिया कि पुत्र को बलि करे । ( 10 ) तब परमेश्वर के दूत ने स्वर्ग से उसको पुकार के कहा, हे इब्राहीम, हे इब्राहीम; देख, मैं यहां हूं । ( 11 ) उसने कहा, उस लड़के पर हाथ मत बढ़ा, और न उसे कुछ कर : क्योंकि तूने जो मुझसे अपने पुत्र, वरन अपने इकलौते पुत्र को भी, नहीं रख छोड़ा; इससे मैं अब जान गया कि तू परमेश्वर का डर मानता है । ( 12 ) तब इब्राहीम ने आंखें उठाईं और क्या देखा कि उसके पीछे एक मेढ़ा अपने सींगों से एक झाड़ी में फंसा हुआ है : सो इब्राहीम ने जाकर उस मेढ़े को लिया और अपने पुत्र की संती ( के स्थान पर ) होमबलि करके चढ़ाया ।”
सबसे पहले तो बाइबिल की उपरोक्त पंक्तियों में ध्यान देने योग्य बात यह है कि इनमें होम, बलि, अग्नि, समिधा ( हवन की लकड़ी ) आदि का उल्लेख किया गया है, जो सीधे-सीधे वैदिक विधान का हवन है । इस बारे में अनेक विद्वानों ने लिखा भी है कि यहूदियों में वैदिक धर्म से प्रभावित हवन की प्रथा रही है । पर आश्चर्य है कि कुरान में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं है । दूसरी बात यह कि बेटे के खुशी-खुशी कुर्बान होने की बात तो छोड़िए इब्राहीम ने तो उसे बांधकर वेदी पर रखा । पर उससे भी बड़ी बात यह है कि जब बेटे ने इब्राहीम से पूछा कि आप होमबलि करने तो जा रहे हैं, पर भेड़ कहां है, तो इब्राहीम ने उत्तर दिया कि परमेश्वर होमबलि की भेड़ का उपाय आप ही करेगा । इसका अर्थ यह हुआ कि इब्राहीम ने अपने बेटे से झूठ बोला । इस प्रकार जिस व्यक्ति में अपने बेटे से सच बोलने का साहस न हो, वह पैगंबर कहां से हो सकता है ! एक और बात ध्यान देने योग्य है और वह यह कि बेटे को बलि चढ़ाने की बात परमेश्वर करता है, पर जब बेटे की बलि रोकने की बात आती है तो परमेश्वर के स्थान पर उसका दूत आता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जान लेने के लिए तो परमेश्वर है, लेकिन जान बचाने के लिए दूत है । इस तरह लगता है कि यह परमेश्वर भी इब्राहीम की तरह ही है ।
पर मूल बात तो यह है कि वह अल्ला कैसा है, जो किसी को अपने बेटे की बलि देने को कहता है । किसी भी व्यक्ति का अधिकार अपने ही शरीर पर होता है, दूसरे पर नहीं । पर यह कैसी परीक्षा थी, जिसमें बेटे की बलि देने के लिए कहा गया । और जब बेटा इस बलि से बच गया तो फिर किसी निर्दोष पशु की हत्या क्यों की गई ? और जो आज भी पशुओं की हत्या की जाती है, तो उसमें कैसा त्याग और कैसा बलिदान है ! यदि इब्राहीम की परीक्षा अपने सर्वप्रिय बेटे की बलि देकर करनी थी, तो आज किस प्रकार पशुओं को मारकर मुसलमान अपने सर्वप्रिय को बलि पर चढ़ा रहे हैं ! फिर देखिए कि कुरान में कहा गया है कि इब्राहीम ने सपने में देखा था कि अल्ला ने उसे अपने बेटे की कुर्बानी देने की बात की है, पर बाइबिल में सीधे-सीधे ईश्वर ने ही ऐसा करने को कहा है । वैसे तो बेटे की बलि देना जघन्य आपराधिक कृत्य है, पर फिर भी बाइबिल की बात तर्क के कुछ निकट है, क्योंकि किसी सपने के आधार पर बेटे की बलि देना तो घोर मूर्खता की बात होगी । पर यदि अल्ला स्वयं कहे तो संभव है कि कुछ लोग उसकी बात को स्वीकार कर लें । दूसरा, बेटे को बांधकर लिटाना थोड़ा स्वाभाविक लगता है, क्योंकि इतने छोटे बच्चे का खुशी-खुशी बलि के लिए तैयार होना बिल्कुल अस्वाभाविक और अतिरंजित लगता है ।
लेकिन बकरीद की नौटंकी अभी समाप्त नहीं हुई है, क्योंकि मुसलमानों ने इब्राहीम के बेटे का नाम इस्माइल बताया है, पर बाइबिल ने इसहाक । इसलिए अब हमें यह पता करना है कि सच क्या है ?
बाइबिल, उत्पत्ति, अध्याय 16 में लिखा है — “ इब्राहीम की पत्नी सारा के कोई संतान न थी और उसके हाजिरा नाम की एक मिस्री लौंडी थी । सो सारा ने इब्राहीम से कहा, देख, परमेश्वर ने तो मेरी कोख बंद कर रखी है सो मैं तुझसे विनती करती हूं कि तू मेरी लौंडी के पास जा; संभव है कि मेरा घर उसके द्वारा बस जाए । ( 1-2 ) और वह हाजिरा के पास गया और वह गर्भवती हुई । ( 4 ) और परमेश्वर के दूत ने उससे ( हाजिरा से ) कहा, देख तू गर्भवती है और पुत्र जनेगी, सो उसका नाम इस्माइल रखना । ( 11 ) जब हाजिरा ने इब्राहीम के द्वारा इस्माइल को जन्म दिया उस समय इब्राहीम छियासी वर्ष का था । ( 16 )”
बाइबिल, उत्पत्ति, अध्याय 17 — “ जब इब्राहीम निन्नानवे वर्ष का हो गया, तब परमेश्वर ने उसको दर्शन देकर कहा मैं सर्वशक्तिमान हूं, मेरी उपस्थिति में चल और सिद्ध होता जा । ( 1 ) और मैं उसको ( सारा को ) को आशीष दूंगा, और तुझको उसके द्वारा एक पुत्र दूंगा; और मैं उसको ऐसा आशीष दूंगा कि वह जाति-जाति की मूलमाता हो जाएगी; और उसके वंश में राज्य-राज्य के राजा उत्पन्न होंगे । तब इब्राहीम मुंह के बल गिर पड़ा और हंसा और अपने मन-ही-मन कहने लगा, क्या सौ वर्ष के पुरुष के भी संतान होगी और क्या सारा नब्बे वर्ष की होकर पुत्र जनेगी ? और इब्राहीम ने परमेश्वर से कहा, इस्माइल तेरी दृष्टि में बना रहे ! यही बहुत है । तब परमेश्वर ने कहा, निश्चय तेरी पत्नी सारा के तुझसे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम इसहाक रखना । और इस्माइल के विषय में भी मैंने तेरी सुनी है; मैं उसको भी आशीष दूंगा और उसे फुलाऊंगा-फलाऊंगा और अत्यंत बढ़ा दूंगा; उससे बारह प्रधान उत्पन्न होंगे और मैं उससे एक बड़ी जाति बनाऊंगा । ( 16-20 )”
वैसे तो यदि हम थोड़ी देर के लिए भूल जाएं कि क्या छियासी और सौ वर्ष के पुरुष बच्चा पैदा कर सकते हैं या नब्बे वर्ष की महिला गर्भधारण कर सकती है, क्योंकि ये दोनों बातें प्रकृति व विज्ञान के विरुद्ध लगती हैं, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि सारा इब्राहीम की पत्नी थी और हाजिरा सारा की लौंडी या दासी थी । दूसरी ओर हमें पता है कि मुसलमानों ने इस्माइल की बलि की बात की है और बाइबिल ने इसहाक की । अब देखिए कि इस्माइल और इसहाक के पीछे कितना बड़ा रहस्य छुपा है ! राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखते हैं कि दाऊद, ईसा और मूसा, ये तीन पैगंबर इब्राहीम के बड़े बेटे इसहाक के खानदान में पैदा हुए और मुहम्मद पैगंबर इब्राहीम के छोटे बेटे इस्माइल के वंश में हुए हैं । ( पृष्ठ 378 ) अब यह रहस्य खुल गया कि चूंकि यहूदी और ईसाई स्वयं को इसहाक से जोड़ते हैं, इसलिए बाइबिल में इसहाक की बलि की बात की गई है । परंतु मुहम्मद स्वयं को इस्माइल का वंशज मानते हैं, इसलिए कुरान में इस्माइल की बात की गई है ।
यूनुस वाई मिर्जा अपने लेख में बताते हैं कि अल-तबारी जैसे आरंभिक इस्लामी विद्वानों ने इसहाक की बलि की बात कही, तो थोड़े बाद के इस्लामी विद्वानों, जैसे इब्न तमिय्या और इब्न कसीर ने इस्माइल की । मिर्जा का अपना मत है कि बाद के विद्वानों की बात की ही आज मान्यता है । वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि अल-तबारी का मत अधिक तार्किक है, क्योंकि वैसे तो बलि के प्रकरण में कुरान में इस्माइल या इसहाक किसी का भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है । परंतु इस प्रकरण के तुरंत बाद अर्थात आयत सं 112 में इसहाक का ही उल्लेख आता है इस्माइल का नहीं । इस्माइल को लेकर एक दूसरे सूरा — ‘ इब्राहीम ’ में उल्लेख आता है — “ तमाम तारीफ खुदा के लिए है, जिसने मुझको बुढ़ापे में इस्माइल और इसहाक अता फरमाए। ” ( 39 ) कुरान की इस आयत में जिस क्रम में दोनों के नाम आए हैं वही क्रम बाइबिल का भी है । परंतु बाइबिल इस बात को और भी स्पष्ट करता है, क्योंकि उसमें उल्लेख है कि छियासी वर्ष की आयु में इब्राहीम के इस्माइल नामक बेटा हुआ और सौ वर्ष की आयु में इसहाक । इस तरह दिनकर ने जिस क्रम का उल्लेख किया है वह सही नहीं हो सकता ।
पर यक्ष प्रश्न तो यह है कि यदि इस्माइल बड़ा है और इसहाक छोटा और दोनों की उम्र में तेरह वर्ष का अन्तर है तो फिर बाइबिल छोटे बेटे की बलि की बात क्यों करता है और उससे भी बड़ा प्रश्न तो यह है कि क्यों बाइबिल में इसहाक को दो बार इकलौता बेटा कहा गया ? तो क्या बाइबिल का गॉड इस्माइल को इब्राहीम का असली बेटा नहीं मानता है ? लगता है इसमें कुछ सत्यांश है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता तो इस्माइल के होते हुए गॉड क्यों सारा के शरीर से पुत्र उत्पन्न कराता ? जबकि वंश चलाने के लिए सारा के कहने पर ही इब्राहीम हाजिरा के पास गया था । इस प्रकार वंश का काम तो चल गया था । परंतु बाइबिल की बातों से लगता है कि गॉड इब्राहीम और सारा को एक पुत्र देना चाहता था । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इब्राहीम अपनी ओर से इस्माइल की बात करते हैं और गॉड उन्हें आश्वस्त करता है कि वह इस्माइल का ध्यान भी रखेगा ।
उपरोक्त विश्लेषण से यही लगता है कि बाइबिल का गॉड केवल इसहाक को ही इब्राहीम की वैध संतान मानता है और इसीलिए उसकी बलि की बात करता है । लेकिन इस स्पष्टीकरण से मुसलमानों की समस्या गंभीर हो जाती है, क्योंकि वे तो यही मानते हैं कि इस्माइल की बलि की बात की गई और यह भी कि मुहम्मद इस्माइल के वंशज हैं । इस प्रकार जब मुसलमान इस्माइल और इसहाक दोनों में से किसकी बलि की बात है इसको लेकर ही एकमत नहीं हैं, तो किस बात की बकरीद मनाते हैं । इसके अलावा एक और ध्यान देने योग्य बात है और वह यह कि बाइबिल के इब्राहीम द्वारा मोरिय्याह देश अर्थात आज के इस्राइल में बलि की जाती है, तो मुसलमानों के इब्राहीम द्वारा मीना के मैदान अर्थात मक्का में बलि की जाती है । अब कोई भी प्रश्न कर सकता है कि इब्राहीम इस्राइल में हुए या मक्का में ? असल में इब्राहीम की कथा मूलतः बाइबिल में ही वर्णित है और कुरान बाइबिल के लिखे जाने के एक से दो हजार वर्ष बाद आया है । इस प्रकार कुरान ने यह कथा बाइबिल से ली है, क्योंकि इसका और कोई स्रोत नहीं दिखता । पर बाइबिल का भौगोलिक क्षेत्र आज का इस्राइल है और कुरान का हिजाज, जिसे अरब भी कहते हैं और जिसमें इस्लाम के सर्वप्रमुख स्थल मक्का और मदीना हैं । जबकि इस्राइल और मक्का के बीच की दूरी दिल्ली और मुंबई की दूरी से भी अधिक है ।
तो यह है बकरीद की कहानी, जिसका न कोई सिर है और न ही पैर । वास्तव में मुहम्मद ने स्वयं को सही ठहराने के लिए और इस्लाम को प्राचीन मजहबों — यहूदी और ईसाइयत — से जोड़ने के लिए कुरान में बाइबिल के पैगंबरों का उल्लेख किया है । फिर इससे इतना तो पता चलता है कि जिस इस्लाम का उदय मुहम्मद से हुआ उसका कोई प्रत्यक्ष संबंध इब्राहीम से नहीं है । न ही इब्राहीम उस क्षेत्र के हैं जिस क्षेत्र के मुहम्मद हैं । इब्राहीम का संबंध इस्राइल से है और मुहम्मद का हिजाज या अरब से । इसलिए यदि बकरीद जैसा कोई त्यौहार हो सकता है, तो वह यहूदियों और उसके बाद ईसाइयों का ही हो सकता है, इस्लाम का नहीं । पर विडंबना देखिए कि न तो यहूदी और न ही ईसाई ऐसा कोई त्यौहार मनाते हैं । जब बकरीद से इस्लाम का कोई संबंध नहीं है, तो इस त्यौहार के मनाने का क्या औचित्य है ? फिर भी यदि यह त्यौहार मनाना ही है कि कम-से-कम पशु-हत्या को तो रोक दें । अहिंसा धर्म का पालन करके कहीं अधिक पुण्य मिलेगा ।
मुहर्रम
ईद, बकरीद के बाद इस्लाम का तीसरा त्यौहार है — मुहर्रम । मुहर्रम की कहानी भी कम जटिल नहीं है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह एक ऐसा त्यौहार है, जिसे सामान्यतः सभी मुसलमान नहीं मनाते हैं, क्योंकि यह मूलतः शियाओं का त्यौहार है । परंतु अधिकतर मामलों में अज्ञानतावश और कभी-कभी शियाओं के साथ भाईचारा प्रदर्शित करने के लिए कुछ सुन्नी मुसलमान मुहर्रम में शामिल होते हैं, अन्यथा नहीं । मुहर्रम हिजरी संवत का पहला महीना होता है, जिसके पहले दस दिनों तक मुहर्रम मनाया जाता है । मुहर्रम के उदय के पीछे शिया-सुन्नी विवाद है, जिसकी शुरुआत चौथे खलीफा अली के समय में हुई । असल में जब 632 ई में मुहम्मद की मृत्यु हुई, तो उनके उत्तराधिकार को लेकर काफी वाद-विवाद हुआ । कहते हैं कि जब एकमत कायम नहीं हो पा रहा था तो अबू बकर, जो कि मुहम्मद के ससुर थे और अवस्था में काफी बड़े भी, उन्हें सर्वसम्मति से खलीफा चुन लिया गया । कहते हैं कि उनकी अवस्था देखकर सब शांत हो गए, क्योंकि सबको लगता था कि वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहेंगे । संयोगवश अबू बकर दो वर्ष ही जीवित रहे । अबू बकर की मृत्यु के बाद एक बार फिर उत्तराधिकार का प्रश्न खड़ा हुआ । इस बार उमर को खलीफा चुना गया । वैसे उमर भी मुहम्मद के ससुर थे । इस प्रकार दो बार ऐसा हुआ कि अली को, जो मुहम्मद के दामाद होने के कारण स्वयं को उनके सबसे निकट समझ रहे थे और इसीलिए वह मुहम्मद का स्वाभाविक उत्तराधिकारी भी मानते थे, दरकिनार किया गया । इससे अली और उनके समर्थकों के बीच रोष बढ़ने लगा । हद तो तब हुई जब उमर ने अपनी मृत्यु से पूर्व ही उस्मान को अपना उत्तराधिकारी बना दिया । अब तो अली और उनके समर्थकों का क्रोध सारी सीमाएं लांघ गया । पर फिर भी वे कुछ भी नहीं कर सके । अपने पूर्ववर्तियों की तरह उस्मान भी मुहम्मद के ससुर थे । इस प्रकार एक के बाद एक करके तीन खलीफे बनाए गए, लेकिन अली की बारी नहीं आई । अंततः उस्मान की हत्या के बाद अली को खलीफा बनाया गया ।
इस प्रकार 27 वर्षों की दीर्घ प्रतीक्षा के बाद अली की बारी आई । परंतु उनका शासनकाल केवल चार वर्षों का रहा और वह भी काफी संघर्षमय । सबसे पहले तो उन्हें अपने परिवार के ही विद्रोह का सामना करना पड़ा । मुहम्मद की एक पत्नी आइशा ही अली के विरुद्ध हो गईं । इस संघर्ष में अली विजयी रहे । फिर मुआविया नाम के एक कुटील सरदार ने अली के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । मुआविया स्वयं खलीफा बनना चाहता था । इस प्रकार अली और मुआविया के बीच युद्ध की स्थिति निर्मित हुई । परंतु कहते हैं अली ने बीच-बचाव का रास्ता अपनाया । इस बीच-बचाव के पश्चात एक समझौता हुआ, जिसमें मुआविया को दोषी नहीं माना गया, पर खलीफा के रूप में अली की स्थिति अक्षुण्ण रखी गई । अब मुआविया येरुशलम पहुंच गया और वहीं स्वयं को खलीफा घोषित कर दिया । इसके बाद अली के पास सिवाय मुआविया को युद्ध में हराने के और कोई चारा नहीं था, इसलिए वह युद्ध की तैयारी करने लगे, पर इससे पहले कि वह वहां पहुंच पाते उनकी हत्या कर दी गई ।
अब स्वाभाविक है कि मुआविया बेरोकटोक खलीफा या राजा बन बैठा और उसी के साथ खलीफे का पद वंशानुगत बन गया । यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस्लामी इतिहास के पहले चार खलीफे इस बात का प्रमाण हैं कि इस्लाम और हिंसा के बीच किस प्रकार का निकट का संबंध रहा है । चार खलीफों में से एक — अबू बकर, जो वृद्ध होने के कारण स्वाभाविक मौत मरे, शेष तीनों खलीफों की हत्या की गई । इस प्रकार अभी ठीक से इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था कि हिंसा का तांडव शुरू हो गया । और मुआविया के राजा बनने के बाद से तो सारी मजहबी बातें ताक पर रख दी गईं और मुआविया और उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग वैसे ही शासन चलाया जैसे आमतौर पर चलाया जाता है । मुआविया और उसके उत्तराधिकारियों ने लगभग 90 वर्षों तक शासन किया । हमारे लिए एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी शासनकाल में अरबों ने सिंध को जीत लिया ।
पर असल विषय यह है कि अली के समर्थक उनकी हत्या के बाद एक गुट में तब्दील हो गए, जिसे शिया कहा गया । इस प्रकार शियाओं के रुष्ट होने का पहला कारण तो यह हुआ कि क्यों मुहम्मद की मृत्यु के बाद अली को खलीफा नहीं बनाया गया । इस कारण से शिया पहले तीन खलीफों को स्वीकार नहीं करते और यह भी शिया-सुन्नी विवाद का एक कारण है । अली को तीन बार खलीफा न बनने देने को भी शिया दूसरे पक्ष अर्थात सुन्नियों की चाल मानते थे । तीसरा कारण अली की हत्या थी । शियाओं को लगता था कि सुन्नियों ने ही अली की हत्या करवाई । फिर भी अभी निर्णायक मोड़ आना शेष था । मुआविया के बाद उसका बेटा यजीद खलीफा बना । यजीद के समय में ही कर्बला का युद्ध हुआ । अली के दूसरे बेटे, हुसैन के लिए यजीद का खलीफा बनना असह्य था । हुसैन का मानना था कि खिलाफत मुहम्मद के परिवार वालों के पास ही रहनी चाहिए । अतः खिलाफत को फिर से प्राप्त करने के उद्देश्य से यह युद्ध किया गया । वैसे युद्ध बहुत ही असंतुलित था, क्योंकि एक ओर जहां पूरी राजकीय शक्ति थी, वहीं दूसरी ओर अली के दूसरे बेटे हुसैन के साथ मुश्किल से कुछ दर्जन लोग ही थे, जिनमें अधिकतर उनके परिवार के सदस्य और उनके निकट के मित्र थे । कहते हैं कि आरंभ में हजारों लोग हुसैन के पक्ष में खड़े हुए थे, लेकिन यजीद ने अपनी पूरी शक्ति झोंककर उनमें से अधिकतर को हुसैन से अलग कर दिया । चाहे जो भी कारण रहा हो, पर इससे इतना तो स्पष्ट है कि आम लोग हुसैन के उद्देश्य के लिए मरने-मिटने के लिए तैयार नहीं थे । और जब एक बार यजीद का शासन स्थापित हो गया तो उसके बाद से बीसवीं शताब्दी तक मुहम्मद के परिवार का कोई भी व्यक्ति खलीफा नहीं बन पाया । इससे यही लगता है कि सामान्य लोगों को इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा कि कौन खलीफा है । इसलिए वहां भी गोस्वामी तुलसीदास का प्रसिद्ध कथन ‘ कोउ नृप होय हमें का हानि ? ’ ही चरितार्थ हुआ ।
फिर भी कहते हैं कि इस असमान युद्ध में हुसैन ने बड़ी वीरता दिखाई । परंतु अंत में न केवल वह, बल्कि उनके परिवार के अधिकतर लोग मारे गए । कुछ विद्वानों का मत है कि इस प्रकार मुहम्मद की मृत्यु के चालीस वर्षों के अंदर ही उनका परिवार नष्ट कर दिया गया और जिन लोगों ने ऐसा किया वे सारे-के-सारे उनके बनाए मुसलमान ही थे । कर्बला के मैदान में, जो आज इराक में है, हुसैन की वीरतापूर्ण लड़ाई और उनकी शहादत ही वे विषय हैं, जिन पर मुहर्रम का त्यौहार आधारित है ।
मुहर्रम के दौरान एक साथ मिलकर शिया हुसैन के युद्ध की कहानी बड़े विस्तार से सुनते हैं । कहानी इस प्रकार सुनाई जाती है, जिससे शियाओं की भावना उमड़ने लगती है । वे जोर-जोर से चिल्लाने और रोने लगते हैं । दस-के-दस दिन मातम के ही होते हैं । दसवां दिन हुसैन की कुर्बानी का होता है । इस बारे में असद बताती हैं कि मुहर्रम का शोक इमामबाड़े में विशेष रूप से मनाया जाता है । यों तो हर शिया मुसलमान के घर में उन दिनों एक कमरा अलग करके उसे इमामबाड़े का स्वरूप दे दिया जाता है । पर बड़े इमामबाड़ों में मुहर्रम का शोक मनाने के लिए बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं । लकड़ी या कागज की बनी इमाम हुसैन की कब्र की अनुकृति इमामबाड़े में रख दी जाती है, जिसे ताजिया कहते हैं । ताजिया का अर्थ है मातमपुर्सी—रोना-धोना, शोक करना । ( पृष्ठ 41-43 )
आगे असद लिखती हैं कि ये ताजिए बड़ी धूमधाम के साथ एक जुलूस की तरह शहर में निकाले जाते हैं । उनके पीछे हरे, काले झंडे लिए हुए कुछ लोग होते हैं । ताजियों के पीछे-पीछे शोक मनाने वालों का समूह होता है जो जोर-जोर से ‘ या अली, हाय ! हाय ! या हसन, हाय ! हाय ! या हुसैन, हाय ! हाय ! चिल्लाते हैं । इस जुलूस में कुछ लोग मर्सिए पढ़ते जाते हैं और छाती पीटते चलते हैं । मर्सिया शोक गीत है, उसमें मृत्यु की चर्चा होती है । ( पृष्ठ वही )
पर असद यह भी बताती हैं कि बगदाद में चार सौ सालों तक खलीफाओं का जोर रहा जिनके डर से शिया खुले तौर पर अपना शोक प्रकट नहीं करते थे । वे सुन्नियों के साथ ही हिलमिल कर रहते थे । सन 1109 में शोक मनाने की प्रथा शुरू हो गई । शुरू-शुरू में लोग बाजारों में काले कंबल लटकाते और रोते-पीटते रहते । ईरान में यह त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । भारत में उत्सवप्रियता अधिक है, यहां यह त्यौहार बहुत लोकप्रिय है । मुहर्रम का सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम ताजिया बनाना है । प्रसिद्ध है कि चौदहवीं शताब्दी में तैमूरलंग ने सबसे पहले ताजिया बनवाया । उसके बाद से यह रिवाज प्रचलित हो गया । असद के शब्दों में, “ ताजिए निकालने की प्रथा भारत में ही प्रचलित है ।” ( पृष्ठ वही )
इसी ताजिए के दौरान अनेक शिया अपने कमर से ऊपर के नंगे हिस्से पर जोर-जोर से कोड़े से मारते हैं । कभी-कभी चाकू मारकर भी अपने बदन से खून बहाते हैं । इस प्रकार स्वयं को कुर्बान करने का भाव उत्पन्न होता है । पीठ पर हर साल कोड़ा मारने से सदा के लिए गहरा दाग हो जाता है और यह दाग शिया की पहचान बन जाता है । पीठ पर कोड़ा मारने को लेकर मुझे एक घटना याद आती है । कुछ समय पहले मेरे साथ झारखंड के एक मुसलमान पीए होते थे । उनके परिजन आजादी के समय से ही बिहार से पूर्वी पाकिस्तान जा-जाकर बसते रहे । कालांतर में इनमें से अधिकतर लोग पश्चिमी पाकिस्तान चले गए जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया । चूंकि बिहारी मुसलमानों को बांग्लादेशी अपना विरोधी मानते थे, इसलिए इनका उत्पीड़न शुरू हो गया । अब इनके पास पाकिस्तान जाने के अलावा कोई चारा नहीं था । वैसे आज भी बड़ी संख्या में बिहारी मुसलमान बांग्लादेश में नागरिकता-विहीन जीवन जी रहे हैं । ये सामान्यतः कैंपों में रहते हैं, जिन्हें जेनेवा कैंप कहा जाता है । ये कैंप असल में झोपड़पट्टी हैं । इनका दुर्भाग्य यह है कि इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है । इनके बारे में बौद्धिक वर्ग भी नहीं लिखता है ।
खैर, बात यह हुई कि मेरे पीए को बार-बार बताया जाता था कि, “ तुम्हारे मामू-मामी, मौसा-मौसी आदि कराची में हैं ।” पीए का तो कम पर उनकी मां का बड़ा मन होता कि कम-से-कम एक बार कराची जाकर अपने भाई-बहन को देख आएं । इस प्रकार पिछली शताब्दी के नब्बे के दशक में मां-बेटे अटारी सीमा पार करके लाहौर होते हुए कराची पहुंचे । इन्हें वहां का दृश्य बड़ा अजीब लगा । बात-बात पर दंगा भड़क जाता । भारत से गए मुसलमानों यानी मुहाजिरों और स्थानीय मुसलमानों के बीच, तो कभी शिया और सुन्नी के बीच । एक दिन शोर-शराबा सुनकर मेरे पीए अपने मामा के घर की छत पर चले गए, ताकि ठीक से पता चले कि क्या हो रहा है । उन्होंने देखा कि एक भागते व्यक्ति का कुछ लोग पीछा कर रहे हैं, जिसे उन लोगों ने थोड़ी ही देर में दबोच लिया और पीछे से उसका कुर्ता उठाया और उसके बाद चाकू मारकर अधमरा कर दिया । मेरे पीए को बार-बार ऐसे ही दृश्य देखने को मिले । असल में ये मारने वाले लोग सुन्नी होते थे और जिन्हें मारा जाता था, वे शिया होते थे । इन शियाओं की पीठ पर कोड़े के दाग होते थे । दूसरी तरफ शिया अपने घरों से सुन्नियों के ऊपर पेट्रोल बम चलाते थे ।
शियाओं में जो पढ़े-लिखे हैं वे अपनी पीठ पर कोड़े तो नहीं बरसाते, किंतु जब हुसैन की यंत्रणादायक कहानी सुनाई जाती है, तो जी भरकर आंसू बहाते हैं और शियाओं में आंसू बहाने को बड़ा पुण्य कार्य समझा जाता है । लखनऊ जैसे शहरों में जो इतने सारे इमामबाड़े हैं वे वास्तव में शोकभवन या शोकागार हैं जहां शिया सामूहिक रूप से मातम या शोक मानते हैं ।
इस तरह पिछले लगभग एक हजार साल से शिया मातम ही मानते रहे हैं । ये शाश्वत रूप से शोकग्रस्त रहते हैं । इनके शोक का कोई निराकरण नहीं है । इन्हें सदा वंचित रहने की पीड़ा सताती रहती है । अपने इतिहास से संभवतः यहूदी भी इतने पीड़ित नहीं होते होंगे, जितना कि शिया होते हैं । शिया वास्तव में एकमात्र ऐसा संप्रदाय है, जो मातम ही मनाता रहता है । उसे बस अफसोस-ही-अफसोस है और पछतावा-ही-पछतावा है । वह अली से पहले के तीनों खलीफों को खलनायक की तरह देखता है और उन पर अपनी भड़ास निकालता है । पर सबसे बड़ा खलनायक यजीद होता है, जिसने तड़पा-तड़पाकर हुसैन और उनके परिजनों को कर्बला के मैदान में मारा था ।
इन ऐतिहासिक कारणों के बावजूद शिया और सुन्नी के बीच के विवाद का मूल कारण सांस्कृतिक माना जाता है । अनेक विद्वानों का मत है कि प्राचीन ईरान अर्थात पर्शिया या फारस, जिससे फारसी भाषा का संबंध है और वहां के रहने वाले लोग पारसी कहलाते थे, जो संयोगवश सबसे अधिक संख्या में भारत में ही हैं, एक शक्तिशाली साम्राज्य था । एक समय में पश्चिम एशिया और यूरोप में दो ही साम्राज्य सबसे बड़े थे — रोमन और फारस । मुहम्मद के समय में ही रोमन और फारस के बीच भयंकर युद्ध हुआ, जिससे दोनों साम्राज्य दुर्बल हुए और जिसका लाभ इस्लामी अरब ने उठाया और मुहम्मद की मृत्यु के कुछ ही दशक के अंदर ईरान को जीत लिया गया । अरबों के हाथों हुई ईरान की यह पराजय ईरानियों के लिए असह्य थी । इससे भी बड़ी बात तो यह हुई कि पूरे ईरान को मुसलमान बनाया गया । पुरानी फारसी सभ्यता समाप्त कर दी गई । इस्लामी मजहब की भाषा अरबी होने के कारण ईरानियों को अरबी भी पढ़नी पड़ी । ईरानियों की पुरानी पहलवी लिपि भी समाप्त हो गई और अरबी लिपि चलने लगी । इस प्रकार ईरान की यह आहत सभ्यता कभी भी अरबी प्रभाव से उबर नहीं पाई और इसलिए शिया गुट के द्वारा ईरानियों ने अपनी भड़ास निकालनी शुरू की ।
आज की स्थिति यह है कि पूरा मुस्लिम समाज दो प्रमुख हिस्सों में बंटा हुआ है — सुन्नी और शिया । आज सुन्नी गुट का स्वयंभू सरदार सऊदी अरब है, तो शिया गुट का ईरान । दोनों देशों के बीच भयंकर संघर्ष जारी है । कहते हैं कि विश्व में सुन्नियों की संख्या 85 प्रतिशत है, तो शियाओं की केवल 15 प्रतिशत । सबसे अधिक शिया ईरान में हैं, उसके बाद इराक, सीरिया, भारत, पाकिस्तान आदि देशों में । दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने रहते हैं । ईरान-इराक के बीच का दीर्घ युद्ध सुन्नी-शिया के आधार पर ही लड़ा गया था । आज यमन में जो युद्ध चल रहा है, उसके पीछे भी सुन्नी-शिया का ही संघर्ष है । ईरान दरअसल अपनी तरह का इस्लाम बनाना चाहता है और वह किसी भी प्रकार से इस्लामी दुनिया में सऊदी अरब के वर्चस्व को बर्दाश्त नहीं करना चाहता है ।
इस्लाम के विद्वान मजहरुद्दीन सिद्दिकी शियाओं की एक और विशेषता की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं । वह कहते हैं शियाओं में एक प्रथा है, जिसे ‘ तकिया ’ कहते हैं । इस प्रथा में शिया प्रतिकूल परिस्थिति में अपनी मजहबी पहचान छुपा सकते हैं । इसका संभवतः यही अर्थ निकाला जा सकता है कि इस्लाम के आरंभ से ही अल्पसंख्यक होने के कारण यह संप्रदाय उत्पीड़ित रहा है । इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि स्वयं को बचाने के लिए शिया अपनी मजहबी पहचान छुपाने के लिए बाध्य हुए हों । यही कारण है कि पहले चार सौ सालों तक शिया मुहर्रम नहीं मना सके । भारत में भी शिया सुन्नियों द्वारा उत्पीड़न के शिकार हुए हैं । डॉ. सतीश चंद्र मित्तल अपनी पुस्तक ‘ मुस्लिम शासक तथा भारतीय जनसमाज ’ में लिखते हैं कि फिरोजशाह तुगलक ने हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्म के मानने वालों पर भी अत्याचार किए, शियाओं को भी उसके अत्याचार का शिकार बनना पड़ा । फिरोजशाह तुगलक द्वारा शिया नेता रूकुनुद्दीन को कत्ल करवा दिया गया ।
सुन्नी और शिया के बीच के संघर्ष के पीछे कुछ सैद्धांतिक पहलू भी हैं । सुन्नी के लिए मुहम्मद पैगंबर हैं और उनके बाद चाहे कितना भी बड़ा कोई व्यक्ति क्यों न हो उसका सम्मान तो हो सकता है, किंतु उसे मुहम्मद के समकक्ष नहीं रखा जा सकता । दूसरी ओर, शिया मुहम्मद के महत्व को तो कम नहीं करते, किंतु वे मुहम्मद के परिजनों को भी कम महत्व नहीं देना चाहते । उनके लिए अली, हुसैन और मुहम्मद के परिवार के अन्य सदस्य बहुत महत्वपूर्ण हैं । वे इन सबके गीत गाते हैं, उन पर लिखते हैं । और यह सारा काम इतना अधिक होता है कि उर्दू साहित्य में मर्सिया एक विधा की तरह है । दूसरा, चूंकि शिया मुहम्मद के साथ-साथ अन्य अनेक लोगों को महत्व देते हैं, इसलिए वे थोड़े समझौतावादी और अपेक्षाकृत कम कट्टर होते हैं । भारत में शिया सामाजिक दृष्टि से सुन्नियों से आगे हैं । वे तस्वीरों को लेकर सुन्नियों की तरह कट्टर नहीं होते । जहां सुन्नियों के घरों में इस्लाम से जुड़े किसी व्यक्ति की तस्वीर नहीं होती, वहीं शिया ईरान के अयातुल्लाओं की तस्वीरें टांगते हैं । सामान्यतः सुन्नी ही आतंकवादी गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं । भारत में एक साथ सबसे अधिक शिया लखनऊ में हैं, जहां के बारे में कहा जाता है कि इस शहर में हिंदू और मुसलमानों के बीच शायद ही कभी दंगा हुआ हो, पर शियाओं और सुन्नियों के बीच अनेक बार दंगे हो चुके हैं । तीन तलाक, रामजन्मभूमि जैसे विषयों पर शियाओं का रुख सुन्नियों के विरुद्ध और हिंदुओं के पक्ष में रहा है । कुल-मिलाकर भारत में शिया सुन्नियों की तुलना में कहीं अधिक उदार और प्रगतिशील रहे हैं । अली से पहले के तीनों खलीफों की निंदा करने और अली और उनके परिजनों को मुहम्मद के समकक्ष रखने के कारण सुन्नी शियाओं को मुसलमान ही नहीं मानते । साथ ही मातम मनाने को भी सुन्नी इस्लाम की भावना के विरुद्ध मानते हैं । दोनों के बीच इस्लाम के आरंभ से ही हर स्तर पर संघर्ष चलता रहा है । दोनों की मस्जिदें अलग-अलग होती हैं । दोनों के नमाज पढ़ने के तरीके में भी अंतर होता है । दोनों के शरिया कानून में भी अंतर है । शियाओं को काला यानी मातमी रंग बहुत पसंद है । त्योहारों के समय में भी अंतर होता है । बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार सालों बाद पहली बार वर्ष 2016 में इराक में शिया और सुन्नी ने एक ही दिन ईद मनाई । दोनों के बीच सदियों से घोर नफरत है । पाकिस्तान में शियाओं को अकारण मारा जाता है । भारत में भी यदा-कदा दोनों के बीच विवाद हो जाता है ।
एक बार की बात है मैं श्रीनगर की यात्रा पर था । हमारा ड्राइवर वहीं का एक मुसलमान था । हमें हजरतबल जाना था इसलिए डल झील के किनारे-किनारे हमारी गाड़ी चल रही थी । रास्ते में ड्राइवर ने बड़े जोश में आकर मुझसे कहा कि, ‘ साहब ! देखिए यह शियाओं की मस्जिद है ।’ मुझे उसकी बात बहुत अटपटी लगी । मुझे समझ में नहीं आया कि यह स्वयं मुसलमान है पर शियाओं की मस्जिद को लेकर क्यों इतना उत्तेजित हो रहा है । थोड़ी देर बाद और भी मस्जिदें आईं और उसका बोलना जारी रहा । हजरतबल पहुंचने से थोड़ा पहले शियाओं का एक मुहल्ला आया । अब तो वह मुझे जोर-जोर से बोलकर बताने लगा कि “ साहब, यह शियाओं का मुहल्ला है । ये बड़े गंदे लोग होते हैं । ये खाली ईरान की बात करते रहते हैं । वह यहां तक बोल गया कि साहब, हमारा असली दुश्मन हिंदू नहीं, बल्कि शिया हैं । ड्राइवर की बातें भले ही अतिशयोक्तिपूर्ण लगें, लेकिन बहुत हद तक वह सुन्नी भावना को व्यक्त कर रहा था ।”
वैसे यह भी सच है कि गैर-मुसलमानों से बातचीत करते हुए अपनी मुस्लिम एकता की खातिर पढ़े-लिखे मुसलमान शिया-सुन्नी विवाद को खूब छिपाते हैं । लखनऊ में मुझे कई मुस्लिम विद्वानों से बात करने का अवसर मिला है और मैंने पाया है कि वे अकारण बताते रहते हैं कि शिया-सुन्नी जैसा कोई विभाजन अब नहीं है । पर सत्य इससे बहुत दूर है । प्रमाण देखिए । दैनिक जागरण के 9 दिसंबर 2019 के अंक में “ शियाओं की अलग से हो गणना, ” शीर्षक से एक समाचार प्रकाशित हुआ, जिसमें जनगणना में शिया मुस्लिमों की अलग गणना कर आबादी के अनुसार सरकारी योजनाओं का लाभ देने के साथ ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा रखी गई 22 सूत्री मांगों का उल्लेख था । लखनऊ में आयोजित सालाना इजलास-ए-आम में अग्रलिखित प्रस्ताव पास किए गए : शिया-सुन्नी वक्फ बोर्ड को न मिलाया जाए, वक्फ संपत्तियों की सुरक्षा हो, हज कमेटी में प्रतिनिधित्व के साथ शियाओं को सहूलियत दी जाए, हज कमेटी बहाल कर ईरान व इराक में जियारत करने जाने वालों को विमान किराए में सब्सिडी मिले, हिंदुस्तानी सिटीजन बिल के तहत पाक, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के शियाओं को नागरिकता दी जाए, सच्चर कमेटी की तरह अलग कमीशन गठित किया जाए आदि आदि । इन मांगों से स्पष्ट है कि शिया किस सीमा तक सुन्नी से दूर हैं और दूर ही रहना चाहते हैं ।
दरअसल शियाओं के लिए भारत सारे विश्व में सर्वाधिक सुरक्षित देश है और यही कारण है कि ताजिया कहीं और नहीं बल्कि केवल भारत या यहीं की परंपरा होने के कारण भारतीय उपमहाद्वीप में ही निकाला जाता है । इसी प्रकार चूंकि भारत उत्सवधर्मी देश है, इसलिए इतने धूमधाम से केवल भारत में ही मुहर्रम मनाया जाता है। इनका मुहर्रम भी भारतीय संस्कृति से प्रभावित है और इसका बहुत सीमा तक भारतीयकरण भी हुआ है । लखनऊ इस बात का विशिष्ट उदाहरण है जहां हिंदू-शिया मिलकर ताजिए निकालते हैं । सुरक्षा के अतिरिक्त शियाओं को जितनी स्वतंत्रता भारत में मिली हुई है, अन्यत्र दुर्लभ है । चूंकि सुन्नी इन्हें एक प्रकार से काफिर मानते हैं, इसलिए सामान्यतः सुन्नी-बहुल देशों में ये उत्पीड़न के शिकार होते हैं । पर भारत में शिया मुल्ला-मौलवी शेर की तरह सुन्नियों के विरुद्ध दहाड़ते हैं, फिर भी सुरक्षित हैं । वैसे तो ऐसा करने वाले दर्जनों शिया मौलवी हैं, पर जो सबसे अधिक दहाड़ते हैं वह हैं — मौलाना शब्बीर अली वारसी । और यह सुरक्षा और स्वतंत्रता केवल शियाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अनेक अन्य अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय हैं, जो शियाओं की तरह ही निर्भय होकर जीते हैं । ऐसे समुदाय हैं — दाऊदी बोहरा, बहाई, अहमदिया आदि । ये सभी समुदाय सामान्य सुन्नी मुसलमान से कहीं अधिक समृद्ध और शिक्षित हैं । परंतु दूसरे देशों में ये प्रताड़ित समुदाय हैं । पाकिस्तान में अहमदिया को कानूनी रूप से मुसलमान नहीं माना जाता और नाना प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है। इसी प्रकार बहाई ईरान में प्रताड़ित समुदाय हैं ।
पर अत्यधिक शोकाकुल होना, हिंसक होना, स्वयं को लहू-लुहान करना आदि ऐसे तत्व हैं, जिनको मुहर्रम से बाहर करना चाहिए । दूसरा, सैद्धांतिक रूप से शिया विद्वानों को इस विषय पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए कि कैसे शिया समुदाय सदा वंचित होने के भाव से उबरे । यदि इन्हें अपनी विशिष्ट पहचान कायम रखनी है, तो इन्हें चाहिए कि अपने विकास पर और अधिक ध्यान दें । ऐसा करके वे अपने-आप शेष मुसलमानों से आगे बढ़ जाएंगे । इसके अतिरिक्त शिया समुदाय के पास यह सामर्थ्य है कि वह इस्लाम की कमियों को उजागर करके उसके सुधार का प्रयास करे । अरब केंद्रित इस्लाम को यदि कोई चुनौती दे सकता है, तो वह शिया समुदाय ही हो सकता है । रमजान, रोजा और नमाज जैसे शब्द फारसी के हैं और भारत में ये शब्द ही प्रचलित हैं । इस प्रकार भाषा के स्तर पर फारसी ने अरबी को चुनौती दी है । अब इन्हें चाहिए कि ये केवल और केवल भारतीय भाषाओं में ही कुरान पढ़ें, इससे न केवल कुरान अधिक लोगों की समझ में आएगा, बल्कि लोग इसके गुण-दोष की विवेचना भी कर पाएंगे ।
तो यह है कहानी ईद, बकरीद और मुहर्रम की । यदि त्योहार की मूल प्रकृति की दृष्टि से देखा जाए तो इन तीनों में से एक भी त्यौहार वास्तव में त्यौहार नहीं है ।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
29 सितम्बर 2020