अमरीका के प्रतिष्ठित हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्टीवन पिंकर, जो हाल ही में भारत की यात्रा पर थे, की स्थापना है कि ‘हमें ऐसा लग सकता है कि विश्व में गिरावट आ रही है। परंतु यह हमारी समझ की समस्या है। यदि हम आकड़ों पर ध्यान दें तो हमें दिखेगा कि कुल मिलाकर मानवता ने प्रगति की है।’ पिंकर प्रतिप्रश्न करते हैं कि, ‘हमें यह स्वीकार करना मुश्किल क्यों लगता है कि पचास वर्ष पूर्व की तुलना में आज विश्व बेहतर स्थिति में है ?’
अपनी अवधारणा को पुष्ट करने के लिए पिंकर कहते हैं कि, ‘सारे विश्व में एक अरब से अधिक लोग पिछले 25 वर्षों में गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं पर इसे कोई नहीं जानता है। इसका कारण संभवतः यह है कि हम सभी वर्तमान में घट रही घटनाओं में इतने खो जाते हैं कि लंबे कालखंड में जो प्रगति होती है उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते। जबकि सच्चाई यह है कि अब हम पहले की तुलना में दीर्घजीवी हुए हैं, हमारा स्वास्थ्य पहले से कहीं बेहतर हुआ है, हम कहीं अधिक सुरक्षित हैं, अधिक समृद्ध हैं, अधिक स्वतंत्र हैं, अधिक शांतिप्रिय हैं और कुल मिलाकर हम बेहतर जीवन व्यतीत कर रहे हैं।’
इसी तरह भारत की जाति समस्या को लेकर भी उनकी दृष्टि सकारात्मक है। उनका कहना है कि, “भारत की नस्लीय (जाति) संबंधी समस्या पर भी यदि आकड़ों का अध्ययन किया जाए, तो मेरा अनुमान है कि पहले की तुलना में स्थिति में सुधार हुआ है।”
पिंकर की अवधारणा के प्रकाश में यह बात कितनी विडंबनापूर्ण लगती है जब हमारे देश में अक्सर लोग जातिप्रथा के बारे में विपरीत राय जाहिर करते हैं कि यह और भी बदतर हुई है! हमारी नजर में इस तरह की राय सत्य को नकारने जैसा ही है। वैसे तो जातिप्रथा एक जटिल विषय है और इसके अनेक आयाम हैं। परंतु हम इस लेख में विवाह को लेकर जाति की जो तथाकथित अनिवार्यता की अवधारणा है, उसी पर विचार किया जाएगा। सामान्यतः हमारे समाज में और विशेष रूप से शहरों में जातिप्रथा अब सबसे अधिक विवाह को लेकर ही दिखती है, क्योंकि विवाह ही वह संस्था है जिसके लिए जाति अनिवार्य मानी जाती रही है।
चार वर्णों में विभक्त हमारे देश का समाज अनेक जातियों में विभाजित रहा है और ये जातियां अनेक उपजातियों में। वैसे तो भगवान बुद्ध से लेकर भक्तिकाल के भक्तों तक ने इस प्रथा के विरुद्ध मुखर आवाज उठाई। परंतु इस प्रथा को सबसे अधिक जोर से आधुनिकता ने ही झकझोरा। आधुनिक युग में शहरीकरण और आवागमन की नई-नई सुविधाओं के फलस्वरूप नाना प्रकार की जातियां एक ही स्थान पर मिलने को बाध्य हुईं। फिर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कानून के माध्यम से भी इस दिशा में प्रयास किया गया।
इस सब का मिलाजुला फल यह है कि जातिप्रथा की तीव्रता बहुत सीमा तक घट गई है। अब देश के नगरों और विशेषकर महानगरों में इस बात की प्रबल संभावना है कि महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में पढ़नेवाले या पढ़कर निकलने वाले छात्र-छात्राएं अंतर्जातीय विवाह करें। यहां उल्लेखनीय है कि यह उच्च शिक्षा ही है जिसके दौरान छात्र-छात्राएं या जिसके उपरांत उच्च शिक्षा प्राप्त नौकरीशुदा व्यक्ति विवाहोन्मुख होते हैं। अब यह बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं रह गई है कि महानगरों यथा – दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, बेंगलुरु आदि में कुल छात्र-छ्त्राओं में से एक चौथाई से आधे तक अपनी पसंद से ही विवाह करें। मेरा अनुभव बताता है कि महानगरों में जितने विवाहों में मुझे शामिल होने का अवसर मिलता है उनमें से आधे में लड़के-लड़कियां अपनी पसंद से विवाह करती हैं। ऐसे विवाहों में दोनों पक्षों के माता-पिता का काम विवाह आयोजन तक ही सीमित रहता है।
आखिर ऐसा परिवर्तन क्यों आया ? इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमें वर्तमान शताब्दी में देश की उच्च शिक्षा में आए क्रांतिकारी प्रसार पर दृष्टिपात करना होगा। सन 2000 तक हमारे देश की उच्च शिक्षा आभिजात्य वर्ग तक ही सीमित थी और 18 से 23 के आयुवर्ग के केवल पांच प्रतिशत छात्र ही उच्च शिक्षा में थे। वर्तमान शताब्दी में प्राइवेट शैक्षणिक संस्थानों के बड़ी संख्या में प्रवेश से उच्च शिक्षा में 18 से 23 के आयुवर्ग के छात्रों का प्रतिशत विस्फोटक गति से बढ़कर अब 30 प्रतिशत के पास पहुंच गया है। अब देश में पहली बार उच्च शिक्षा में कुल छात्रों की संख्या बढ़कर सबा तीन करोड़ हो गई है। इसी शताब्दी में हमने इस दिशा में अमरीका को पीछे छोड़ कर चीन के बाद विश्व में उच्च शिक्षा में छात्रों की संख्या को लेकर दूसरे स्थान पर पहुंच गए हैं। और चूंकि उच्च शिक्षा का संबंध बढ़ती आय से होता है, इसलिए संभावना जताई जा रही है कि शीघ्र ही यह प्रतिशत 50 को पार कर जाएगा। पर यह प्रतिशत वहां पर भी नहीं रुकेगा और संभव है कि कालांतर में यह 100 को भी छू ले। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि अधिकतर विकसित देशों में यह प्रतिशत 100 के आसपास पहुंच चुका है।
अतः हम बड़ी आसानी से कह सकते हैं कि आनेवाले दो-तीन दशकों में ही बहुत बड़ी संख्या में लड़के-लड़कियां अपनी पसंद से विवाह करेंगी। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे छोटे शहरों और फिर कस्बों-गांवों तक भी पहुंचेगी। यह जातिप्रथा पर सबसे सशक्त प्रहार होगा।
पर क्या ऐसे विवाह जो मूलतः माता-पिता द्वारा तय किए जाते हैं उनमें जातिगत आग्रह को लेकर कोई परिवर्तन आया है ? यह अत्यंत स्वाभाविक प्रश्न है। हमारी आम धारणा रही है कि समाचारपत्रों में प्रकाशित वैवाहिकी जातिप्रथा के प्रचलन का एक संकेतक है। वैवाहिकी को लेकर आम तौर पर यह आरोप लगता रहा है कि अपनी जाति में विवाह करने के लिए किस प्रकार हमारा समाज आग्रही या दुराग्रही रहा है। उदाहरण के लिए, राजेन्द्र यादव अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ के जून 1996 के अंक में ‘अप्रासंगिक पाठ के टूटने का दर्द’ शीर्षक वाले लेख में दक्षिणपंथियों की कटुआलोचना करते हुए लिखते हैं कि, “[वे] हजारों अखबारों के पांच-पांच पन्नों में अपनी ही जाति के वर-वधू तलाश कर रहे थे ………।”
परन्तु सुखद आश्चर्य की बात है कि हमारी चिरसंचित धारणा के विपरीत माता-पिता द्वारा तय किए जा रहे विवाहों में भी जातिप्रथा के प्रति दुराग्रह में अभूतपूर्व कमी आई है। इसके लिए हमने केवल एक दिन का लखनऊ से प्रकाशित संडे टाइम्स ( 29 अप्रैल 2018 ) के वैवाहिकी पृष्ठों का अध्ययन किया। इसमें 233 परिवारों द्वारा अपने लड़कों के लिए दुल्हन पाने और 250 परिवारों द्वारा अपनी लड़कियों के लिए दूल्हा पाने के लिए विज्ञापन दिए गए थे।
इस अध्ययन से पता चला कि 233 लड़के वाले परिवारों में से आधे से भी कम यानी 106 ने ही स्वयं को जाति के वर्ग में रखा है। इससे कहीं अधिक यानी 127 परिवारों ने स्वयं को जाति से इतर वर्गों में रखा है। इस तरह 44 परिवारों ने विभिन्न सम्प्रदायों में स्वयं को रखा है। 12 परिवारों ने व्यवसायों का वर्ग चुना है। 18 परिवारों ने धर्म, 17 परिवारों ने भाषा और शेष ने ‘जाति बंधन नहीं’ के वर्ग में रखा है। जिन 106 परिवारों ने स्वयं को जाति वर्ग में विज्ञापन दिए हैं उनमें से भी 7 परिवारों ने ‘जाति बंधन नहीं’ लिखा है। इसका अर्थ यह हो सकता है कि ये परिवार स्वयं को जाति के वर्ग में तो रखते हैं, लेकिन वे किसी भी जाति की दुल्हन पाने के लिए तैयार हैं। इस तरह केवल और केवल अपनी जाति तक सीमित रहने वाले परिवारों का प्रतिशत लगभग 42 बनता है। यह स्थिति मेरी समझ से अत्यंत उत्साहवर्धक है। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार होगा और शहरीकरण बढ़ेगा वैसे-वैसे जाति तक सीमित रहने वाले परिवारों का प्रतिशत और भी घटेगा।
जिन परिवारों ने स्वयं को जाति के वर्ग में रखा है उनमें से भी कइयों ने उपजाति का बंधन नहीं रखा है। उदाहरण के लिए एक जैन परिवार ने जैन व अग्रवाल दोनों समुदायों की दुल्हन पाने की इच्छा जताई है। इसी तरह एक ब्राह्मण परिवार ने पंजाबी ब्राह्मण या खत्री दुल्हन की इच्छा जताई है। अनेक परिवारों ने नौकरीशुदा दुल्हन पाने की इच्छा जताई है। स्पष्ट है ऐसे में वरीयता नौकरीशुदा दुल्हन को दी जाएगी न कि जाति विशेष को।
यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि विज्ञापन देने वाले किस वर्ग में अपने आप को रखना चाहते हैं इससे भी बहुत कुछ पता चलता है। जाति से इतर वर्गों को चुनने का अर्थ यह नहीं है कि उनके लिए जाति महत्व नहीं रखती। परंतु इससे यह जरूर जाहिर होता है कि जाति की तुलना में उनके लिए व्यवसाय, भाषा, सम्प्रदाय आदि अधिक महत्वपूर्ण हैं। सम्प्रदाय चुननेवालों की दो विशेषताएं देखी जा सकती हैं। पहली तो यह कि यह वर्ग उपजाति बंधन को बिल्कुल ही नहीं मानता है और दूसरी यह कि इसमें ‘जाति बंधन नहीं’ की संभावना भी बढ़ जाती है। क्योंकि जहां जाति वर्ग में 106 में से 7 के लिए जाति कोई बंधन नहीं है वहीं सम्प्रदाय वर्ग में सिर्फ 44 में से 5 के लिए जाति कोई बंधन नहीं है। जिन 12 परिवारों ने व्यवसाय वर्ग को चुना है वे और भी उदार हैं। ये न केवल दुल्हन की जाति को लेकर बहुत दुराग्रही नहीं हैं, बल्कि इनमें से तीन ने तो अपनी जाति भी नहीं बताई है। इसी तरह एक वर्ग अपने आप को आभिजात्य कहता है और इस वर्ग में चार परिवार हैं जिनमें से तीन किसी भी सम्प्रदाय की दुल्हन पाने के इच्छुक हैं।
एक वर्ग अनिवासी भारतीय ( एनआरआइ ) तथा ग्रीनकार्ड वालों का है जिसमें सात परिवार हैं। सात में से दो के लिए जाति कोई बंधन नहीं है, एक के लिए ऊंची जाति कोई बंधन नहीं है और चार ने ऐसी कोई बात नहीं कही है। चूंकि ये विदेश में हैं इसलिए माना जा सकता है कि जाति को लेकर बहुत दुराग्रही नहीं होंगे। भाषा वर्ग वाले जाति की तुलना में भाषा को कहीं अधिक महत्व देते हैं। अंततः एक स्पष्ट वर्ग ‘जाति बंधन नहीं’ का है।
फिर भी इस अध्ययन का सबसे आश्चर्यजनक परिणाम यह है कि मुस्लिम और सिख समुदायों में भी जाति की लगभग वही स्थिति है जैसी हिंदुओं में है। उदाहरण के लिए, जिन 12 मुस्लिम परिवारों ने दुल्हन पाने के लिए विज्ञापन दिए हैं उनमें से सिर्फ एक को छोड़कर बाकी 11 परिवारों ने अपनी जाति बताई है – सुन्नी मंसूरी-1, शिया सैयद-1, अंसारी-1, सुन्नी सैयद-1, सुन्नी-3, सैयद-1, सुन्नी शेख-2, और मेवाती-1। जिस एक परिवार ने अपनी जाति नहीं बताई है उसने लिखा है कि लड़का कनाडा में कार्यरत है और उसके लिए जाति कोई बंधन नहीं है।
इसी तरह जिन पांच सिख परिवारों ने दुल्हन के लिए विज्ञापन दिए है उनमें से सिर्फ एक को छोड़कर बाकी सभी ने अपनी जाति बताई है – खत्री सिख, जाट सिख, गुरसिख और रामगढ़िया सिख।
जहां तक लड़की के परिवारों की बात है तो 250 में से लगभग आधे यानी 127 ने ही जाति का वर्ग चुना है। शेष यानी 123 ने दूसरे वर्ग – सम्प्रदाय-34, धर्म- 26, भाषा- 23, व्यवसाय- 9, जाति बंधन नहीं – 15 चुने।
जाति वर्ग में शामिल 127 परिवारों में से सात के लिए जाति बंधन नहीं है। सम्प्रदाय वर्ग के 34 परिवारों में से एक के लिए जाति बंधन नहीं है और एक के लिए ऊंची जाति बंधन नहीं है। व्यवसाय वर्ग वाले 9 परिवारों में से एक के लिए ऊंची जाति बंधन नहीं है। धर्म वाले वर्ग में चार हिंदू परिवारों में से चारों के लिए जाति बंधन नहीं है। यदि इन जाति बंधन वालों को उन परिवारों के साथ जोड़ दिया जाए जिन्होंने जाति वर्ग को नहीं चुना है तो यह संख्या 123 से बढ़कर 136 पर पहुंच जाएगी और इस प्रकार विज्ञापन देने वाले कुल 250 परिवारों में से उन परिवारों का प्रतिशत पचास से काफी ऊपर होगा जो स्वयं को जाति वर्ग से इतर दूसरे वर्गों में रखते हैं।
भाषा वर्ग के 23 परिवारों के लिए जाति वरीयता नहीं है क्योंकि स्पष्ट रूप से उन्होंने जाति का उल्लेख भी नहीं किया है। फिर एक आभिजात्य वर्ग है जिसमें चार परिवार हैं जिनमें से तीन के लिए भारत का कोई भी सम्प्रदाय ग्राह्य है। अंततः 15 परिवार ऐसे हैं जिनके लिए जाति कोई बंधन नहीं है।
इस्लाम वर्ग में 22 परिवार है जिनमें सुन्नी खान -4, सुन्नी-4, सुन्नी सैयद-3, सैयद शेख-1, सुन्नी हनफी-1, शिया-1, सिद्दिकी-1, शेख -1, शिया सैयद-1, मंसूरी-1, शेख सिद्दिकी- 1 और मुस्लिम-3 हैं। इन 22 परिवारों में से जिन तीन ने स्वयं को सिर्फ मुस्लिम कहा है जाहिर है उनके लिए जाति का कोई बंधन नहीं होना चाहिए। परंतु फिर भी एक ने ऊंची जाति की इच्छा जताई है। एक सुन्नी खान परिवार ने खान या सैयद या शेख या सिद्दिकी दूल्हे की इच्छा जताई है। सिर्फ एक तलाक शुदा सुन्नी सैयद परिवार ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उसके लिए जाति कोई बंधन नहीं है।
कुल मिलाकर तस्वीर इस तरह बनती है कि अब विवाह का सबसे बड़ा आधार जाति नहीं है। जाति के बजाय लोग शिक्षा, भाषा, सांस्कृतिक निकटता, सामाजिक और आर्थिक हैसियत आदि अधिक देखने लगे हैं। अब लोग अपने घर से दूर दूसरे राज्य और दूसरे देशों में भी रहने लगे हैं। ऐसे में उनके लिए जाति से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है सांस्कृतिक लगाव। जाहिर है, यदि वे जाति पर अधिक जोर देंगे तो सम्भव है उन्हें मनपसंद दुल्हन न मिले।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दूल्हा या दुल्हन को लेकर जाति संबंधी सोच लगभग एक जैसी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि मुस्लिम सम्प्रदाय भी उतना ही जातिवादी है जितना कि हिंदू। बल्कि लगता तो यही है कि जिस तीव्र गति से शिक्षा का प्रसार गैर-मुस्लिम समुदायों में हो रहा है उसके फलस्वरूप आने वाले समय में हिंदू समाज कहीं अधिक जाति विमुख होगा।
यह विश्लेषण सिर्फ 483 परिवारों पर आधारित है जो संख्या इतने बड़े देश के लिए नगण्य है। दूसरी बात यह है कि यह विश्लेषण एक अंग्रेजी अखबार पर आधारित है। इसलिए प्रश्न उठ सकता है कि ऐसे अखबारों में विज्ञापन देने वाले समाज के कहीं अधिक पढ़े-लिखे और अपेक्षाकृत समृद्ध परिवार होंगे और ऐसे लोग जाति को लेकर अधिक उदार होंगे। ये दोनों ही बातें अपनी जगह दुरुस्त हैं। परंतु इस विश्लेषण से लोगों की प्रवृत्ति का तो पता चलता ही है। साथ ही यह अखबार लखनऊ से प्रकाशित है और चूंकि लखनऊ महानगर नहीं है इसलिए हम मान सकते हैं कि यह विश्लेषण विवाह को लेकर भारतीय शहरों की आम प्रवृत्ति को दर्शाता है।
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अधिसंख्यक परिवार अब जाति वर्ग से अधिक दूसरे वर्गों को वरीयता देते हैं। इस संदर्भ में अखबारों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि वैवाहिकी वाले पृष्ठों की शुरुआत जातियों से करना कहां तक उचित है ? अतः अब वैवाहिकी पृष्ठों पर विभिन्न वर्गों का जो क्रम होता है उसको पलट देना ही तर्कसंगत होगा। इस प्रकार सबसे ऊपर ‘जाति बंधन नहीं’ लिखा जाए और उसके बाद दूसरे वर्गों यथा – संप्रदाय, व्यवसाय, भाषा, धर्म, एनआरआइ आदि को रखा जाए और अंततः जाति वर्ग को रखा जाए। इसके परिणामस्वरूप कम-से-कम विवाह को लेकर जाति के प्रति हमारी धारणा बदल सकेगी।
इस अध्ययन से पिंकर की अवधारणा पुष्ट होती है कि लंबी समयावधि में होने वाले सकारात्मक सामाजिक परिवर्तन हमें तब तक दिखाई नहीं देते जब तक कि हम इस बारे में उपलब्ध आंकड़ों की विवेचना नहीं करते। यदि इस अध्ययन को आगे बढ़ाया जाए तो हम पाएंगे कि विवाह के परे भी हमारे बृहत् समाज में जातिगत दुराग्रह में भारी कमी आई है। कम-से-कम महानगरों में तो आज की पीढ़ी जाति को लेकर लगभग अन्यमनस्क या उदासीन सी है। वैसे तो विवाह से बाहर राजनीति और विशेषकर वोट की राजनीति में ही अब भी जाति मुखर होती है। फिर भी महानगरों में होने वाले चुनावों में जाति से इतर विषय कहीं अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। इस प्रकार आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में जाति वोट की राजनीति तक ही सिमट जाएगी और संभव है, कालांतर में जब सर्वत्र इस आधार पर वोट का मिलना सुनिश्चित नहीं हो पाएगा, तो स्वमेव इसका प्रयोग भी कम हो जाएगा।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
21 सितम्बर 2018