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राजा राममोहन राय -एक रहस्यमय व्यक्तित्व

28 मई 2022

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राजा राममोहन राय, इस नाम से देश के सभी साक्षर और शिक्षित अवश्य परिचित होंगे, क्योंकि उनके विषय में इतिहास की विद्यालयी पुस्तकों में थोड़ा-बहुत उल्लेख अनिवार्यत: मिलता है। उन्हें भारतीय नवजागरण का अग्रदूत, भारत का पहला आधुनिक व्यक्ति, पहला आधुनिक प्रबुद्ध, पहला आधुनिक समाज सुधारक, पहला आधुनिक राजनीतिज्ञ, भारतीय पत्रकारिता का जनक आदि के अतिरिक्त उन्हें आधुनिक भारत का जनक भी माना जाता है। उदाहरण के लिए, हम एनसीइआरटी की तीन पुस्तकों को देखेंगे कि राममोहन राय के विषय में सामान्यतः क्या लिखा गया है। इसके बाद हमारा प्रयास यह जानने का होगा कि राममोहन राय के बारे में वे कौन सी बातें हैं, जो हमें जाननी तो चाहिएं पर बताई नहीं जातीं और इसी के साथ हम एनसीइआरटी की तीनों पुस्तकों में दी गई जानकारी का परीक्षण भी करेंगे कि इनमें कितना सत्यांश है।

बाल्मिकी प्रसाद सिंह द्वारा लिखित और एनसीइआरटी द्वारा प्रकाशित पुस्तक “आवर इंडिया” का उद्धरण प्रस्तुत है : 

“उन्नीसवीं शताब्दी से हमारे देश में धर्म और राजनीति दोनों ही क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन आरंभ हुए। 1828 में राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज बंगाल और पड़ोसी राज्यों में सक्रिय हुआ। राममोहन द्वारा प्रारंभ की गई सुधार की इस प्रबुद्ध परंपरा ने एक ऐसा आधार प्रदान किया, जिस पर कालांतर में स्वामी विवेकानंद ने धर्म की परिष्कृत व्याख्या करके उसका उद्देश्य निर्धन की सेवा बताया।”

एनसीइआरटी की कक्षा 8 की इतिहास की पुस्तक से कुछ उद्धरण दिए जा रहे हैं :

“देश के कुछ भागों में विधवाओं से उम्मीद की जाती थी कि वे अपने पति की चिता के साथ ही जिंदा जल जाएं। इस तरह स्वेच्छा से या जबरदस्ती मार दी गई महिलाओं को “सती” कहकर महिमामंडित किया जाता था। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही हमें सामाजिक रीति-रिवाजों और मूल्य-मान्यताओं से संबंधित विचार-विमर्श का स्वरूप बदलता दिखाई देता है। इस तरह की बहसें अक्सर भारतीय सुधारकों और सुधार संगठनों की तरफ से शुरू होती थीं। राजा राममोहन राय इसी तरह के एक सुधारक थे। उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म समाज नाम का एक सुधारवादी संगठन बनाया था।  राममोहन राय जैसे लोगों को सुधारक इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह मानते थे कि समाज में परिवर्तन लाना और अन्यायपूर्ण तौर-तरीकों से छुटकारा पाना जरूरी है। उनका विचार था कि इस तरह के परिवर्तन लाने के लिए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे पुराने व्यवहार को छोड़कर जीवन का नया ढंग अपनाने के लिए तैयार हों।

राममोहन राय देश में पश्चिमी शिक्षा का प्रसार करने और महिलाओं के लिए अधिक स्वतंत्रता व समानता के पक्षधर थे। उन्होंने इस बारे में लिखा है कि किस तरह महिलाओं को बलात घरेलू काम से बांधकर रखा जाता था, उनकी दुनिया घर और रसोई तक ही सीमित कर दी जाती थी और उन्हें बाहर जाकर पढ़ने-लिखने की अनुमति नहीं दी जाती थी। राममोहन राय इस बात से काफी दुखी थे कि विधवा महिलाओं को अपनी जिंदगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया था। राममोहन राय संस्कृत, फारसी तथा अन्य कई भारतीय एवं यूरोपीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गई है। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक बहुत सारे अंग्रेज अधिकारी भी भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाजों की आलोचना करने लगे थे। वे राममोहन राय के विचारों को सही मानते थे क्योंकि उनकी एक विद्वान व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा थी। अंततः 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 

राममोहन राय ने इस अभियान के लिए जो रणनीति अपनाई उसे बाद के सुधारकों ने भी अपनाया। जब भी वे किसी हानिकारक प्रथा को चुनौती देना चाहते थे, तो अक्सर प्राचीन ग्रंथों से ऐसे श्लोक या वाक्य ढूंढ़ने का प्रयास करते थे, जो उनकी सोच का समर्थन करते हों। इसके बाद वह तर्क देते थे कि संबंधित वर्तमान रीति-रिवाज प्रारंभिक परंपरा के विरुद्ध हैं।” (पृष्ठ 108-110)

कक्षा 12 की एनसीइआरटी की इतिहास की पुस्तक ( पुराना संस्करण ) में राममोहन राय के विषय में विस्तार से बताया गया है। अब इस पुस्तक से कुछ उद्धरण देखिए : 

“उनके मन में प्राच्य दार्शनिक विचारधाराओं के प्रति गहन प्रेम और आदर था। लेकिन वह यह भी सोचते थे कि केवल पश्चिमी संस्कृति से ही भारतीय समाज का पुनरुत्थान संभव था। विशेष रूप से वह चाहते थे कि उनके देश के लोग विवेकशील दृष्टि और वैज्ञानिक सोच अपनाएं तथा नर-नारियों की मानवीय प्रतिष्ठा और सामाजिक समानता के सिद्धांत को स्वीकार कर लें। साथ ही, वह चाहते थे कि देश में आधुनिक पूंजीवादी उद्योग आरंभ किए जाएं। 

राममोहन राय प्राच्य और पाश्चात्य चिंतन के संश्लिष्ट रूप के प्रतिनिधि थे। वह विद्वान थे और संस्कृत, फारसी, अरबी, अंग्रेजी, फ़्रांसीसी, ग्रीक और हिब्रू सहित एक दर्जन से अधिक भाषाएं जानते थे। युवावस्था में उन्होंने वाराणसी में संस्कृत साहित्य और हिंदू दर्शन तथा पटना में कुरान और फारसी तथा अरबी साहित्य का अध्ययन किया था। वह जैन धर्म और भारत के अन्य धार्मिक आंदोलनों तथा पंथों से अच्छी तरह परिचित थे। बाद में उन्होंने पाश्चात्य चिंतन और संस्कृति का गहरा अध्ययन किया। मूल बाइबिल का अध्ययन करने के लिए उन्होंने ग्रीक और हिब्रू भाषाएं सीखीं। उन्होंने 1809 में फारसी में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “एकेश्वरवादियों को उपहार” लिखी, जिसमें उन्होंने अनेक देवताओं में आस्था के विरुद्ध एकेश्वरवाद के पक्ष में बलवती तर्क दिए। 

वह 1814 में कलकत्ता में बस गए और उन्होंने शीघ्र ही युवाओं के एक समूह को अपनी ओर आकर्षित कर लिया, जिनके सहयोग से उन्होंने ‘आत्मीय सभा’ आरंभ की। तब से लेकर जीवन भर बंगाल के हिंदुओं में प्रचलित धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध उन्होंने एक जोरदार संघर्ष चलाया। विशेष रूप से उन्होंने मूर्तिपूजा, जाति की कट्टरता और निरर्थक धार्मिक कृत्यों के प्रचलन का भरपूर विरोध किया। इन परंपराओं को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने पुरोहित वर्ग की निंदा की। उनकी धारणा थी कि सभी प्रमुख प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों ने एकेश्वरवाद की शिक्षा दी है। अपने दावे को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने वेदों और पांच प्रमुख उपनिषदों के बांग्ला अनुवाद प्रकाशित किए। उन्होंने एकेश्वरवाद के समर्थन में कई पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं। 

प्राचीन शास्त्रों को उद्धृत करने के अतिरिक्त उनकी धारणा थी कि अंततोगत्वा मानवीय तर्क-शक्ति का ही सहारा लेना चाहिए। राममोहन राय ने अपने विवेकशील दृष्टिकोण का प्रयोग केवल भारतीय धर्मों और परंपराओं तक ही सीमित नहीं रखा। इससे उनके अनेक ईसाई धर्मप्रचारक मित्रों को निराशा हुई जिन्हें आशा थी कि हिंदू धर्म की विवेकशील समीक्षा उन्हें ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित करेगी। राममोहन राय ने ईसाई धर्म, विशेषकर उसमें निहित अंध आस्था के तत्वों को भी विवेक शक्ति के अनुसार देखने पर जोर दिया। उन्होंने 1820 में ‘प्रेसेप्ट्स ऑफ जीसस’ ( ईसा के उपदेश ) नाम की पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने ‘न्यू टेस्टामेंट’ के नैतिक और दार्शनिक संदेश को उसकी चमत्कारी कहानियों से अलग करने की कोशिश की। पर उसके नैतिक और दार्शनिक संदेशों की प्रशंसा की। वह चाहते थे कि ईसा मसीह के उच्च नैतिक संदेश को हिंदू धर्म में समाहित कर लिया जाए। इससे ईसाई धर्म प्रचारक उनके विरोधी बन गए। 

राममोहन राय का कहना था कि विवेक बुद्धि का सहारा लेकर नए भारत को सर्वोत्तम प्राच्य और पाश्चात्य विचारों को प्राप्त कर संजोए रखना चाहिए। अतः उनकी इच्छा थी कि भारत पश्चिमी देशों से सीखे। परंतु सीखने की यह प्रक्रिया एक बौद्धिक और सर्जनात्मक प्रक्रिया हो, जिसके द्वारा भारतीय संस्कृति और चिंतन को बल मिले। इस प्रक्रिया का अर्थ भारत पर पाश्चात्य संस्कृति को थोपना नहीं हो। इसलिए वह हिंदू धर्म में सुधार के पक्षधर और हिंदू धर्म के स्थान पर ईसाइयत लाने के विरोधी थे। उन्होंने ईसाई मिशनरियों की हिंदू धर्म और दर्शन पर अज्ञानपूर्ण आलोचनाओं का समुचित उत्तर दिया। उनकाविश्वासथाकिमौलिकरूपसेसभीधर्मएकहीसंदेशदेतेहैंकिउनकेअनुयायीभाई–भाईहैं।

राममोहन राय ने 1828 में ब्रह्म सभा ( बाद में ब्रह्म समाज ) नाम की एक नई धार्मिक संस्था की स्थापना की, जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म को स्वच्छ बनाना और एकेश्वरवाद की शिक्षा देना था। इस संस्था के दो आधार थे — तर्क शक्ति और वेद-उपनिषद। इसे अन्य धर्मों की शिक्षाओं को भी समाहित करना था। 

राममोहन राय एक महान चिंतक और कर्मठ व्यक्ति थे। राष्ट्र-निर्माण का शायद ही कोई पहलू था, जिसे उन्होंने अछूता छोड़ा हो। वस्तुतः जैसे उन्होंने हिंदू धर्म को अंदर रहकर सुधारने का काम आरंभ किया, वैसे ही उन्होंने भारतीय समाज के सुधार के लिए आधार तैयार किया। सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध उनके आजीवन संघर्ष का सर्वोत्तम उदाहरण अमानवीय सती प्रथा को समाप्त करने का ऐतिहासिक आंदोलन था। उन्होंने 1818 में इस प्रश्न पर जनमत खड़ा करने का काम आरंभ किया। एक ओर प्राचीन शास्त्रों का प्रमाण देकर दिखलाया कि हिंदू धर्म सती प्रथा के विरोध में था, दूसरी ओर उन्होंने लोगों की तर्कशक्ति, मानवीयता और दया भाव की दुहाई दी। अंततः विलियम बेंटिंक ने सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। 

महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए उन्होंने मांग की कि उन्हें विरासत और संपत्ति संबंधी अधिकार दिए जाएं। 

राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के सबसे प्रारंभिक प्रचारकों में से थे। डेविड हेअर ने 1817 में कलकत्ता में प्रसिद्ध हिंदू कॉलेज की स्थापना की। इस कॉलेज की स्थापना और हेअर की अन्य शिक्षा संबंधी परियोजनाओं का राममोहन राय ने जोरदार समर्थन किया। उन्होंने कलकत्ता में 1817 से अपने खर्च से एक अंग्रेजी विद्यालय भी चलाया। 1825 में एक वेदांत कॉलेज की स्थापना की जिसमें भारतीय विद्या और पाश्चात्य सामाजिक और भौतिक विज्ञानों की पढ़ाई की सुविधाएं उपलब्ध थीं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्हें स्कॉटिश धर्म प्रचारक अलेक्जेंडर डफ से बहुत सहायता मिली। 

राममोहन राय बंगाल में बांग्ला भाषा को बौद्धिक संपर्क का माध्यम बनाने के लिए समान रूप से उत्सुक थे। उन्होंने बांग्ला व्याकरण पर एक पुस्तक की रचना की। उन्होंने जातिप्रथा की कट्टरता का विशेष रूप से विरोध किया, जो उनके अनुसार, “हमारे बीच एकता के अभाव का स्रोत ( कारण ) रहा है”। राममोहन राय भारतीय पत्रकारिता के अग्रदूत थे। जनता के मध्य वैज्ञानिक, साहित्यिक और राजनीतिक ज्ञान के प्रचार, समसामयिक विषयों पर जनमत तैयार करने और सरकार के समक्ष जनता की मांगों और शिकायतों को देखने के लिए उन्होंने बांग्ला, फारसी, हिंदी और अंग्रेजी में पत्र-पत्रिकाएं निकालीं। 

वह देश के राजनीतिक प्रश्नों पर जन-आंदोलन के प्रवर्तक भी थे। …….अंतरराष्ट्रीयता और राष्ट्रों के बीच मुक्त सहयोग में राममोहन राय का पक्का विश्वास था।……सिंह की तरह राममोहन राय निडर थे।”

सामान्यतः विद्यालयों में छात्रों को राममोहन राय के विषय में उपरोक्त बातें पढ़ाई जाती हैं और ये बातें उनके मन-मस्तिष्क पर सदा अंकित रहती हैं। परंतु राममोहन राय के बारे में अनेक बातें नहीं बताई जाती हैं, जिस कारण से उनका संपूर्ण व्यक्तित्व हमारे सामने उभरकर नहीं आता है। सबसे पहले तो कहीं भी यह नहीं बताया जाता कि राममोहन राय अपने जीविकोपार्जन के लिए काम क्या करते थे ? इसको छिपाने के पीछे संभवतः उद्देश्य यह हो सकता है कि पाठक उनकी महानता को लेकर कहीं संदेहशील न हो जाएं। फिर भी हमें सच जानने का अधिकार है। वास्तव में राममोहन राय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सेवक थे। कंपनी की नौकरी करने के कारण ही कंपनी के अधिकारियों से उनका अतिघनिष्ठ संबंध विकसित हुआ जो अंत तक यथावत या प्रगाढ़तर ही हुआ।

वैसे तो राममोहन राय पर अनेक शोधकार्य हुए हैं, जिनको देखने से पता चलता है कि उनके विषय में सामान्य पाठकों से बहुत कुछ छिपाया गया है और इसके पीछे, जैसा कि हम देखेंगे एक सोची-समझी रणनीति रही है। राममोहन राय वास्तव में एक रहस्य हैं, जिनके बारे में अधिक से अधिक जानना हमारे लिए और हमारे देश के लिए नितांत आवश्यक है। सबसे पहले मेरे सामने राजीव मल्होत्रा के कुछ वक्तव्य आए जो चौंकाने वाले थे। राजीव मल्होत्रा भारतीय-अमेरिकन हैं। पहले वह किसी आइटी कंपनी में कार्यरत थे। कालांतर में अपनी नौकरी छोड़कर भारत, भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म पर अध्ययन करने लगे। अपने अध्ययन के दौरान ही उन्हें कुछ ऐसे पश्चिमी विद्वानों के विचार जानने का अवसर मिला, जिनके अनुसार भारत का ‘नया हिंदू धर्म’ केवल दो सौ साल पुराना है और इसका प्रादुर्भाव राजा राममोहन राय जैसे राष्ट्रवादियों के द्वारा हुआ था। पश्चिमी विद्वानों का यह भी कहना था कि यह ‘नया हिंदू धर्म’ ईसाइयत से प्रभावित है और यह भी कि इसका वेदों से कोई लेना-देना नहीं है। तात्पर्य यह कि आज का हमारा धर्म ईसाइयत से पोषित है। हिंदू धर्म को लेकर निर्मित ऐसे कृत्रिम विचारों ने राजीव मल्होत्रा को राममोहन राय पर गहन अध्ययन करने के लिए विवश किया और अंततः इन विचारों को खारिज करने के उद्देश्य से राजीव मल्होत्रा ने एक पुस्तक लिखी — ‘Indra’s Net’ ( इंद्र का जाल )।

राजीव मल्होत्रा ने राममोहन राय के विषय में जो कुछ कहा उसका सार आगे दिया जा रहा है : 

‘राममोहन राय ने हिंदू धर्म को ठीक से नहीं समझा। उलटे हिंदू धर्म में बहुत कुछ बाहर से लेकर मिला दिया और इस प्रकार एक तरह की खिचड़ी बनाई गई। और यह खिचड़ी अकारण नहीं है। वास्तव में राममोहन राय कुख्यात बैप्टिस्ट एवैंजेलिस्ट ( इंजीली ) विलियम केरी, जिसने श्रीरामपुर सेमिनेरी की शुरूआत की,  के निकट के साथी और सहयोगी थे। विलियम केरी घोर हिंदू विरोधी था। पर इससे भी दुखद बात यह थी कि राममोहन राय ने संस्कृत शिक्षा प्रणाली के स्थान पर यूरोपीय शिक्षा व्यवस्था अपनाने की वकालत की।  संस्कृत शिक्षा प्रणाली के विरुद्ध राममोहन राय ने इंग्लैंड में अभियान चलाया। 1823 में राममोहन राय ने भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल को एक पत्र लिखा कि संस्कृत शिक्षा प्रणाली को अपनाने से हमारा समाज अंधकार में ही रहेगा। संस्कृत साहित्य में तर्कशास्त्र का अभाव है। इसमें विज्ञान नहीं है। संस्कृत के व्याकरण को व्यर्थ बताया। अपने पत्र के अंत में राममोहन राय स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कुछ प्रबुद्ध यूरोपीयों को भारत बुलाया जाए और पश्चिमी शिक्षा शुरू की जाए ताकि हमारे देश के लोगों में ज्ञान-विज्ञान का संचार हो। कुल-मिलाकर उनकी बातों से लगता है कि वह मान चुके थे कि भारत असभ्य है और यदि अंग्रेजों की कृपा होगी तभी यहां सभ्यता पनपेगी। हम लोग व्यर्थ ही मैकॉले को अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा प्रणाली को भारत में लागू करने और भारतीय शिक्षा को संस्कृत विहीन करने के लिए उत्तरदायी मानते हैं। जबकि सच तो यह है कि जब मैकॉले ने अपना वह कुख्यात भाषण ब्रिटेन की संसद में दिया, जिसमें उसने भारतीय शिक्षा पद्धति की धज्जियां उड़ाईं और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का गुणगान किया उससे बारह वर्ष पहले ही राय वैसी ही बातें गवर्नर जनरल को संबोधित अपने पत्र में लिख चुके थे। इसलिए एक प्रकार से शिक्षा संबंधी विचार तो मैकॉले और अंग्रेजों को राममोहन राय की ओर से एक उपहार के समान थे।’

राजीव मल्होत्रा आगे कहते हैं कि यह कितना बड़ा संयोग है कि जिस समय भारत में संस्कृत भाषा और साहित्य के विरुद्ध अभियान चलाया जा रहा था, ठीक उसी समय पूरे यूरोप में संस्कृत में समाहित ज्ञान को प्राप्त करने की उत्कट इच्छा पनप रही थी। उन्हीं दिनों सारे यूरोप के प्रमुख विश्वविद्यालयों में संस्कृत पीठ की स्थापना हुई और संस्कृत के सागर से ज्ञान को निकालने का काम शुरू हुआ। और इस अपूर्व ज्ञान ने उनके विचारों को प्रभावित भी किया। 

राजीव मल्होत्रा इस प्रश्न से भी जूझते हैं कि क्या संस्कृत के आधार पर भारत आधुनिक और वैज्ञानिक सोच वाला देश नहीं बन सकता था ? उनका उत्तर है कि जापान और चीन दो ऐसे गैर-यूरोपीय देश हैं, जिनमें यूरोप की तरह ही विज्ञान का प्रसार हुआ और वे आधुनिक भी बने, लेकिन यह सब उनकी अपनी भाषाओं के माध्यम से ही हुआ। राममोहन राय ने 1823 में गवर्नर जनरल को पत्र लिखा और 1835 में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली लागू हुई। पर उसके लगभग एक सौ बारह साल बाद भारत स्वतंत्र हुआ। इस प्रकार नई शिक्षा प्रणाली का कोई शुभ परिणाम जल्दी नहीं मिला। न ही अंग्रेजों ने हमें वैज्ञानिक सोच वाला देश बनने दिया। सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि तकनीकी शिक्षा में भारत अत्यंत पिछड़ा रहा, क्योंकि तकनीकी संस्थान नहीं खोले गए। वैज्ञानिक अनुसंधान और शोध के नाम पर तो कुछ भी नहीं हुआ। जो कुछ भी विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय हुआ है वह स्वतंत्रता के बाद ही हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वास्तव में अंग्रेज हमें विज्ञान में आगे नहीं बढ़ने देना चाहते थे। 

राजीव मल्होत्रा ने राममोहन राय के विषय में एक और चौंकाने वाली बात बताई और वह यह कि राममोहन राय यूनिटेरियन चर्च के अनुयायी अर्थात ईसाई बन गए थे। इंग्लैंड में उन्हें किंग विलियम चतुर्थ के राज्याभिषेक समारोह में आमंत्रित किया गया, जिसमें अनेक देशों के राष्ट्रप्रमुख और राजदूत जैसे गणमान्य माननीय उपस्थित थे। इस राजकीय सम्मान के पीछे भी बहुत सीमा तक उनके ईसाई होने का हाथ है। राजीव मल्होत्रा ने यह भी बताया कि राममोहन राय की इंग्लैंड में ही मृत्यु हुई और उन्हें वहीं दफनाया गया। आज भी वहां उनकी कब्र है। 

राजीव मल्होत्रा के बाद संयोगवश हमें जस्टोपिल नामक एक और शोधार्थी मिले, जिन्होंने राममोहन राय पर 2002 में एक शोधपत्र लिखा। जस्टोपिल ने राममोहन राय के इंग्लैंड प्रवास का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है। जस्टोपिल, राममोहन राय और अंग्रेज अधिकारियों के बीच निकट संबंध की शुरुआत कैसे हुई इस बारे में लिखते हैं कि राममोहन राय ने अंग्रेज अधिकारियों का मुंशी या सचिव और सांस्कृतिक मध्यस्थ या जस्टोपिल के शब्दों में “cultural broker” बनने के लिए अपनी फारसी शिक्षा और सांस्कृतिक ज्ञान का उपयोग किया। राममोहन राय ने जिन अधिकारियों के साथ काम किया उनमें सर्वपमुख था जॉन डिग्बी। डिग्बी के कारण ही राममोहन राय की ईसाइयत और यूरोपीय ज्ञान के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। अनेक भाषाओं में निष्णात होने और उत्तर भारतीय न्यायालय की कार्यप्रणाली से परिचित होने के कारण अंग्रेज अधिकारियों में राममोहन राय की मांग सदा बनी रहती थी। राममोहन राय अपने यूरोपीय संपर्कों का लाभ उठाकर नई आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने लगे और इस प्रकार उन्होंने प्रचुर धन कमाया और ईस्ट इंडिया कंपनी तक में भी उन्होंने पैसा लगाया। इसके अलावा अपने अर्जित धन से उन्होंने ग्रामीण संपत्ति भी खरीदी। इस प्रकार अपने समय के वह पर्याप्त समृद्ध व्यक्ति थे और यह सब उनके अंग्रेजों के साथ के घनिष्ठ संबंध के कारण संभव हुआ। 

सबसे बड़ी बात तो यह है कि राममोहन राय ने अपने जीवन के अंतिम ढाई वर्ष इंग्लैंड में बिताए। इस अवधि में इंग्लैंड में उन्हें अतिप्रतिष्ठित व्यक्ति ( सेलेब्रिटी ) के रूप में सर्वत्र सम्मान मिला। जैसा कि पहले ही बताया गया है, उन्हें किंग विलियम चतुर्थ के राज्याभिषेक समारोह में आमंत्रित किया गया, जिसमें अनेक देशों के राजा और राजदूत उपस्थित थे। इतना ही नहीं, उन्हें ब्रिटेन की संसद का सदस्य बनाने की  भी तैयारी चल रही थी। पर उसके लिए एक शर्त यह थी कि तब के कानून के अनुसार वहां वही व्यक्ति संसद सदस्य बन सकता था, जो ईसाई हो। राममोहन राय यह अर्हता भी पूरी करते थे, क्योंकि वह यूनिटेरियन चर्च के सदस्य थे। सितंबर 1833 में उनकी मृत्यु वहीं हो गई और उनके शव को वहीं ब्रिस्टल शहर के ईसाइयों के कब्रिस्तान में दफना दिया गया। ऐसा कहा जाता है कि तब ब्रिटेन में शव के दाह-संस्कार का कोई कानून नहीं था। परंतु ऐसा भी संभव है कि चूंकि वह ईसाई बन चुके थे, इसलिए उन्हें दफना दिया गया हो। 

उत्सुकतावश सभी जानना चाहेंगे कि आखिर वह कौन सी बात थी जिसके लिए राममोहन राय इंग्लैंड गए। वास्तव में राममोहन राय अनेक कारणों से इंग्लैंड गए। सर्वप्रमुख कारण तो था नाममात्र के मुगल बादशाह अकबर शाह के वजीफे या पेंशन की राशि को बढ़वाने के लिए ब्रिटिश सरकार से पैरवी करना। इस विषय में विलियम डैलरिंपल विस्तार से जानकारी देते हैं। जैसा कि सर्वविदित है, तब तक मुगल बादशाह का शासन दिल्ली शहर तो छोड़िए अपने किले पर भी पूरी तरह नहीं था, क्योंकि किले को लेकर भी सारे फैसले बादशाह नहीं कर सकता था। वहां ब्रिटिश रेजिडेंट कुंडली मार कर चौबीसों घंटे बैठा रहता था। बादशाह स्वयं अंग्रेजों की पेंशन पर पलता था। लेकिन पेंशन की राशि कम पड़ती थी। इसलिए अकबर शाह ने राममोहन राय को इंग्लैंड भेजा। लेकिन यह घटना विवादास्पद बन गई। हुआ यह कि अकबर बादशाह अपने पहले बेट— बहादुरशाह जफर, जो ज्येष्ट होने के कारण उत्तराधिकारी और पिता की मृत्यु के बाद बादशाह बन सकता था, के स्थान पर अपने दूसरे और बदचलन बेटे— मिर्जा जहांगीर को बादशाह बनाना चाह रहा था। पर बादशाह तो नाम का बादशाह था और सारे फैसले अंगेजों द्वारा और ब्रिटिश रेजिडेंट की अनुशंसा पर ही लिए जाते थे, इसलिए अकबर शाह ने ब्रिटिश रेजिडेंट आर्चिबाल्ड सीटन को एक पत्र लिखा, जिसमें उसने बहादुरशाह की बुराई और मिर्जा जहांगीर की बड़ाई की। पर सीटन सच्चाई जानता था, इसलिए उसने अपने कलकत्ता स्थित मुख्यालय को पत्र लिखकर बताया कि बहादुरशाह बहुत अच्छे किरदार के हैं। लेकिन चूंकि वह बादशाह के चहेते नहीं है, इसलिए अकबर शाह उनको अनदेखा करके मिर्जा जहांगीर को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसको वह बहुत चाहते हैं। यही वह समय था जब राममोहन राय को अकबर शाह ने अपना वजीफा बढ़वाने का आवेदन देकर इंग्लैंड भेजा। पर क्योंकि उत्तराधिकार का विषय ज्वलंत था, इसलिए बहादुरशाह को संदेह हो गया कि उसे विरासत से वंचित करने के लिए ऐसा किया गया है और प्रतिक्रियास्वरूप उसने राममोहन राय और गवर्नर जनरल दोनों को बहुत आक्रोश भरे पत्र लिखे। राय ने इस आरोप को गलत बताते हुए उत्तर दिया, “जो लोग अपना ही अच्छा बुरा नहीं समझ सकते, दूसरों का क्या समझेंगे।” (डैलरिंपल पृ 48)

इस घटना से इस बात का पता चलता है कि राममोहन राय की पहुंच मुगल बादशाह से लेकर शीर्ष अंग्रेजों तक थी। मुगलों ने उन्हें ‘राजा’ की उपाधि दी और संभवतः अंग्रेजों से उन्हें ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिली होगी, क्योंकि उनकी कब्र के पत्थर पर उनका जो नाम लिखा है, वह है— ‘राजा राममोहन रायबहादुर’। इस प्रकार वह अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनकी इंग्लैंड यात्रा के विषय में दूसरी बात यह है कि अकबर शाह के खर्चे पर वह इंग्लैंड गए। पर इंग्लैंड में उनके उद्देश्य या लक्ष्य बहुत बड़े थे। उन्हें तो ब्रिटेन की संसद का सदस्य बनना था और वहां लोकप्रिय भी होना था। वहां के लोग उन्हें इसी कारण इतना सम्मान देते थे कि बंगाल के सबसे बड़े बौद्धिक और प्रतिष्ठित व्यक्ति ने ईसाइयत स्वीकार की है। यह वास्तव में ईसाइयत की, उस समय की, सबसे बड़ी विजय थी और राममोहन राय उस विजय के प्रतीक। अंग्रेजों को लगता था कि जब इतना बड़ा व्यक्ति ईसाइयत को स्वीकार कर चुका है तो अब तो संपूर्ण भारत में ईसाइयत फैलाना केवल समय की बात है। इंग्लैंड प्रवास के बाद राममोहन राय की योजना अमेरिका जाने की थी, जिसका उद्देश्य स्पष्ट नहीं है। संभव है वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध होना चाहते थे। यह भी संभव है कि अमेरिका जाने के लिए उनके यूनिटेरियन मित्रों ने उन्हें प्रोत्साहित किया हो, क्योंकि अमेरिका में यूनिटेरियन का इंग्लैंड से कहीं अधिक प्रभाव था। 

जस्टोपिल बताते हैं कि ये यूनिटेरियन ही थे, जिनसे बहुत पहले ही राममोहन राय का संपर्क स्थापित हुआ। अपने लेखों के माध्यम से ईसाई मत की पारंपरिक धारणाओं पर यूनिटेरियन की ही तरह राममोहन राय ने भी प्रहार किया। इसका फल यह हुआ कि वह इंग्लैंड के यूनिटेरियन के मध्य लोकप्रिय हो गए। यूनिटेरियन को यह भी लगा कि जैसे वे अपने मजहब में सुधार के लिए संघर्षरत हैं, वैसे ही राममोहन राय भी हिंदू धर्म में सुधार के लिए उद्धत हैं।

इंग्लिश हेरिटेज से हमें पता चलता है कि उन्नीसवीं शताब्दी का इंग्लैंड पूरी तरह ईसाई देश था। वहां कुछ यहूदियों ( जिनकी संख्या 1880 में 60,000 ) को छोड़कर शेष सभी ईसाई थे। ईसाइयों में आधे से अधिक ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’, जो इंग्लैंड का आधिकारिक या सरकारी चर्च था, के अनुयायी थे। इनमें भी दो तरह के अनुयायी थे — ‘इंजीली’ या ‘एवैंजेलिकल’ और ‘हाई चर्चमेन’, जिन्हें हम सुविधा के लिए ‘बड़े गिरजावाले’ कह सकते हैं। जहां इंजीली उपदेशों और बाइबिल पर ध्यान देते थे वहीं  ‘बड़े गिरजावाले’ कर्मकांडी थे। पर घोर आश्चर्य की बात है कि 1820 से पहले जो ईसाई ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’ के अनुयायी नहीं थे अर्थात कैथोलिक और मेथोडिस्ट थे, उन्हें अधिकतर सार्वजनिक पदों तथा ऑक्सफ़ोर्ड और केम्ब्रिज की शिक्षा से भी वंचित रखा गया था। पहली बार 1820 में कानून बनाकर कैथोलिक और मेथोडिस्ट को भी ये सुविधाएं दी गईं । इस प्रकार जब कैथोलिक और मेथोडिस्ट जैसे पारंपरिक ईसाई अब तक अनेक सुविधाओं से वंचित थे, तो यूनिटेरियन का कहना ही क्या था। 1851 में की गई जनगणना से पता चला कि इंग्लैंड की एक तिहाई से भी कम आबादी ‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’ में जाती है। इसका परिणाम यह हुआ कि गैर-‘चर्च ऑफ इंग्लैंड’ अनुयायियों को और भी सुविधाएं दी गईं। इसी शताब्दी में पहली बार बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी सामने आए जिन्होंने अपने आप को किसी भी मजहबी विश्वास से नहीं जोड़ा। और भी आश्चर्य की बात तो यह है कि पहली बार इंग्लैंड बौद्ध और हिंदू धर्मों के प्रभाव में आकर अध्यात्मवाद से परिचित हुआ और इसके परिणामस्वरूप थियोसोफी जैसी संस्थाओं का अभ्युदय हुआ। 

इसी उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के प्रभाव में यूनिटेरियन नाम का ईसाइयों का एक समूह चर्चा में आया। कहा जाता है राममोहन राय इसी यूनिटेरियन चर्च के अनुयायी बने। यूनिटेरियन अनुयायी मजहबी विश्वासों को तर्क और विवेक की कसौटी पर कसने लगे। ईसाई मत में ‘ट्रिनिटी’ की उपस्थिति उन्हें सबसे बड़ी विसंगति दिखाई दी।  ‘ट्रिनिटी’ पर विश्वास करने वाले मानते हैं कि गॉड के तीन पृथक स्वरूप हैं — पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। यूनिटेरियन ने इसी विधान पर प्रहार किया। उनका कहना था कि गॉड एक ही है। एक गॉड को मानने के कारण ही वे यूनिटेरियन या एक ईश्वरवादी अर्थात एकेश्वरवादी कहलाए। यूनिटेरियन का मानना था कि ईसा मसीह की नैतिक शिक्षा गॉड द्वारा प्रेरित है और वह रक्षक भी हैं। परंतु वह न तो दैवीय हैं और न ही गॉड के अवतार। इस प्रकार यूनिटेरियन चर्च ने पारंपरिक धारणाओं को न केवल चुनौती दी, बल्कि तर्क, विवेकशील विचार, विज्ञान तथा दर्शन को ईश्वर में विश्वास से जोड़ा।

जस्टोपिल बताते हैं कि राममोहन राय इंग्लैंड में कितने लोकप्रिय या महत्वपूर्ण थे कि टॉमस मैकॉले जैसा व्यक्ति एक पूरी शाम उनकी प्रतीक्षा में बैठा रहा, जब कि वह नहीं आए और मैकॉले पूरी तरह निराश हुआ। राममोहन राय के इंग्लैंड प्रवास के दौरान एक बेंथम नाम के प्राणी ने राममोहन राय को ब्रिटिश इंडिया के एक प्रतिनिधि, एक हाफ कास्ट ( अर्धमनुष्य ), और एक निग्रो ( काला निंदनीय मनुष्य ) के रूप में संसद सदस्य बनाने का प्रस्ताव रखा। उसका कहना था कि इससे गोरे होने के कारण हमारे प्रति जो पूर्वाग्रह हैं उनमें कमी आएगी और इससे अन्य विजित लोगों में प्रोत्साहन और आशा का संचार होगा। लेकिन जस्टोपिल का सुझाव है कि बेंथम की बातों को संदेह की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। फिर भी यह सच है कि राममोहन राय ने वहां के संविधान विशेषज्ञ सी.डब्ल्यू.डब्ल्यू. विन से स्वयं इस बारे में सलाह ली और विन ने उन्हें बताया कि ब्रिटिश भारत का हिस्सा होने के कारण वह संसद सदस्य के लिए प्रत्याशी बन सकते हैं। यहां ध्यातव्य है कि यह विन ही था जिसने 1826 में सभी गैर-ईसाइयों को भारत में ज्यूरी बनने के लिए अयोग्य ठहरा दिया था। परंतु बाद में, संभवतः राममोहन राय द्वारा तैयार की गई एक याचिका और यह जानकर कि भारत में अब अंग्रेजी जानने वाले हैं, उसने अपना मत बदल लिया था। 

जस्टोपिल बताते हैं कि राममोहन राय की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह था कि इंग्लैंड के लोग उन्हें धर्मपरिवर्तित ईसाई मानते थे। जस्टोपिल स्वयं उन्हें यूनिटेरियन मानते हैं। रॉबर्ट ऐस्पलैंड उन यूनिटेरियन में मुख्य था जिन्होंने राममोहन राय को इंग्लैंड में लोकप्रिय बनाने का बहुत प्रयास किया। जस्टोपिल लिखते हैं कि राममोहन राय की धार्मिक समझ उन्हें एक सार्वभौमिक धर्म की ओर ले गई, जिसमें इस्लामी तार्किक क्षमता, हिंदू वेदांत और उग्र ईसाई परंपरा तीनों का योगदान था। लेकिन राममोहन राय के बारे में यह भी कहा गया है कि बहुभाषाविद होने के कारण अलग-अलग भाषाओं में वह अलग-अलग तरह से धर्मों की विवेचना करते थे। बांग्ला में लिखते समय वह अधिक हिंदू, फारसी में अधिक मुसलमान और अंग्रेजी में अधिक ईसाई की तरह लिखते थे। उनके अंग्रेजी लेखों से उनकी यूनिटेरियन से निकटता परिलक्षित होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि वह अपने पाठक की अभिरुचि के हिसाब से लिखते थे। यदि उनके सभी लेखों को जोड़कर देखा जाए तो राममोहन राय एक कंफ्यूज्ड व्यक्ति की तरह दिखते हैं। पर जस्टोपिल का सुझाव है कि ऐसा वह जानबूझकर करते थे, क्योंकि ब्रिटेन का संसद सदस्य बनने के लिए यह कंफ्यूजन बहुत आवश्यक था।  

यूनिटेरियन से राममोहन राय की निकटता उनके इंग्लैंड प्रवास से लगभग एक दशक पहले ही कलकत्ता में आरंभ हो चुकी थी। यहां तक कि उनके द्वारा 1820 में लिखा गया ‘द प्रेसेप्ट्स ऑफ जीसस’ में यूनिटेरियन चर्च के मुख्य बिंदु समाहित थे। उन्होंने बंगाल की बैप्टिस्ट मिशनरी को सुझाया भी कि मिशनरी को चाहिए कि ‘न्यू टेस्टामेंट’ की धार्मिक और नैतिक बातों को सरलतापूर्वक भारतीय समाज में पहुंचाए। इतना ही नहीं, इसके लिए उन्होंने स्वयं सरल उपदेशों को चुन-चुनकर प्रस्तुत किया। किलिंगले का मानना था कि ‘द प्रेसेप्ट्स ऑफ जीसस’ में ही राममोहन राय ने स्वयं को यूनिटेरियन से जोड़ लिया था। वहीं ऐसप्लैंड का कहना था कि राय एक हिंदू यूनिटेरियन सुधारक हैं।

कलकत्ता के निकट श्रीरामपुर स्थित बैप्टिस्ट मिशनरी के साथ तीन वर्षों तक राममोहन राय का शास्त्रार्थ चलता रहा और अंततोगत्वा, कहा जाता है कि विलियम ऐडम नाम के एक मिशनरी को उन्होंने यूनिटेरियन के निकट  ( अर्थात ऐरियन ) ला खड़ा किया। इसकी इंग्लैंड में बड़ी जोरदार प्रतिक्रिया हुई। यहां ध्यातव्य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी किसी भी ईसाई मिशनरी को अपने क्षेत्र में नहीं आने देती थी। इसलिए श्रीरामपुर, जो कि डेनिश कंपनी के अधीन था वहां 1799 में पहली बैप्टिस्ट मिशनरी स्थापित हुई। जब 1813 के चार्टर के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने ईसाई मिशनरियों को भारत में आने की अनुमति दे दी तब दूसरी बैप्टिस्ट मिशनरी कलकत्ता के पास स्थापित हुई और बाद में ऐंग्लिकन मिशन भी आ गया। अब इन तीन मिशनरियों के बीच की प्रतिस्पर्धा के कारण राममोहन राय का महत्व बहुत बढ़ गया। विशेषकर बैप्टिस्ट इस बात को लेकर परेशान थे कि एक अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति उनके हाथ से निकल रहे हैं। वे इसलिए भी परेशान थे कि उनके बीस वर्षों के अथक प्रयासों के बावजूद केवल सात सौ लोग ही ईसाई बनाए जा सके थे, जिनमें तीन सौ ऐंग्लो-इंडियन और शेष अत्यंत निर्धन लोग थे, जिन्हें ईसाइयत से कम और आर्थिक लाभ से अधिक मतलब था। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे जी-जान से राममोहन राय से तर्क-वितर्क करने लगे।

जहां तक यूनिटेरियन का प्रश्न है, तो पूरी अठारहवीं शताब्दी में अनेक कारणों से वे एक प्रताड़ित समूह थे। उन पर ईशनिंदा के आरोप लगते थे। कैथोलिक की तरह उन्हें भी बहुत सारी सुविधाओं से वंचित रखा गया था। इसलिए यूनिटेरियन को राममोहन राय के रूप में एक ऐसा व्यक्ति मिला, जिसके सहारे वे अपनी स्थिति को बदल सकते थे। इंग्लैंड के यूनिटेरियन द्वारा राममोहन राय को ईसाई मत की यूनिटेरियन शाखा के अनुयायी होने का ठोस आधार राममोहन राय के स्वयं के क्रियाकलाप थे। राममोहन राय ने अनेक यूरोपीयों और भारतीयों को मिलाकर 1821 में ‘कलकत्ता यूनिटेरियन समिति’ के गठन में सक्रिय भूमिका निभाई। कालांतर में इस समिति ने एक यूनिटेरियन छापाखाना और एक पुस्तकालय स्थापित किया और विधिवत चर्च की प्रार्थना की शुरुआत की। उनकी योजना एक चैपल बनाने की भी थी। इन क्रियाकलापों की जानकारी जब ऐंग्लो-अमेरिकन यूनिटेरियन को हुई तब वे खुशी से झूम उठे। इसके बाद इंग्लैंड स्थित यूनिटेरियन से राममोहन राय के साथ बौद्धिक विचार-विमर्श आरंभ हुआ। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि इंग्लैंड जाने से पहले ही राममोहन राय इंग्लैंड के बौद्धिक वर्ग में एक परिचित नाम थे। 

1813 में संसद में यूनिटेरियनों के प्रयास से एक कानून पास हुआ, जिसके फलस्वरूप ट्रिनिटी-विरोधियों के ऊपर ईशनिंदा की जो तलवार लटक रही थी, उससे छुटकारा मिल गया और 1827 में एक तत्कालीन कानून को समाप्त करके यूनिटेरियन सहित सभी ईसाइयों को संसद सदस्य बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस प्रकार अब कोई भी यूनिटेरियन संसद सदस्य बनने की पात्रता रखता था। लेकिन संसद सदस्य को अग्रलिखित शपथ लेनी थी — ‘एक ईसाई के सच्चे विश्वास के नाम’। इसका अर्थ यह निकाला गया कि कोई भी गैर-ईसाई यहां तक कि इंग्लैंड में रह रहे यहूदी भी संसद सदस्य नहीं बन सकते थे। पर चूंकि राममोहन राय संसद सदस्य बनने के लिए प्रयासरत थे, इसलिए इंग्लैंड में उन्हें स्पष्ट रूप से ईसाई ही माना जाता था। 

ऐसा प्रतीत होता है कि अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान राममोहन राय ने एक बार भी अपने को हिन्दू की तरह प्रस्तुत नहीं किया, न ही उन्होंने हिंदू धर्म, हिंदू दर्शन और हिंदू संस्कृति की चर्चा की। उन्होंने हिंदू धर्म की विशेषताओं से भी अंग्रेजों को परिचित कराने का प्रयास नहीं किया। लगभग साठ साल बाद उसी बंगाल से निकले स्वामी विवेकानंद ने जैसा काम सारे संसार में किया, वैसा कुछ भी राममोहन राय ने इंग्लैंड में नहीं किया।

यद्यपि राममोहन राय को संस्कृत का ज्ञान था, फिर भी उन्होंने उस समय संस्कृत का विरोध ही किया। यह बात मैकॉले द्वारा अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम घोषित करने के लगभग बारह वर्ष पूर्व की बात है। सच तो यह है कि मैकॉले का काम अत्यंत आसान था, क्योंकि उसे पहले से ही पता था कि राममोहन राय अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के पक्षधर हैं। यह भारत और इसकी संस्कृति के साथ घोर अन्याय था। इससे पता चलता है कि या तो राममोहन राय का संस्कृत ज्ञान सतही था या भारतीय शिक्षा व्यवस्था की समझ कम थी। जब यह स्वयं सिद्ध है कि अपनी भाषा में शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है, तब उन्होंने अंग्रेजी का पक्ष क्यों लिया ? यदि उन्हें संस्कृत से कोई समस्या थी, तो स्थानीय भाषाओं में ही शिक्षा देने का उपक्रम किया जाता। ऐसे में बंगाल में उनकी बांग्ला शिक्षा का माध्यम बन सकती थी। इससे यह भी पता चलता है कि भारत की संस्कृति से वह किस सीमा तक अपरिचित थे ! उनका ऐसा मानना कि ‘केवल पश्चिमी संस्कृति से ही भारतीय समाज का पुनरुत्थान संभव है’ पूरी तरह दर्शाता है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की बहुत कच्ची समझ थी। 

उनकी बहुचर्चित उपलब्धि सती प्रथा को समाप्त करने के कारण है। बल्कि यूं कहें कि उनकी प्रतिष्ठा और ख्याति का यह सबसे बड़ा आधार है, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके साथ-साथ विलियम बेंटिंक भी इस कारण अमर हो गया है। उसे भी हम भारत के समाज सुधारक के रूप में सम्मान देते हैं, क्योंकि हमें इसी प्रकार पढ़ाया गया है। पर हमें ‘सती का सच’ जानना चाहिए। सर्वप्रथम तो हमें यह पता होना चाहिए कि भारतीय समाज का सुधार न तो ईस्ट इंडिया कंपनी की नीति थी और न ही कालांतर में ब्रिटिश सरकार की। इसलिए हमें इस विषय की गहन पड़ताल करनी चाहिए कि ‘सती का सच’ क्या है। 

मीनाक्षी जैन ने भारत में सती प्रथा पर लंबा शोध किया है। उनके शोध का आधार हैं — शिलालेख, स्थापत्य संबंधी साक्ष्य और आंखो देखी रिपोर्ट। उन्हें सबसे पहला सती संबंधी प्रमाण अलेक्जेंडर के समय का मिला।  अलेक्जेंडर का एक भारतीय सेनापति था — शशि गुप्त, जिसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसकी दो विधवा पत्नियों में इस बात पर विवाद आरंभ हुआ कि किसे पति की चिता पर जलना होगा। यह अलेक्जेंडर के सैनिकों द्वारा देखी गई घटना पर आधारित है। इसके आठ सौ साल बाद अर्थात पांचवीं शताब्दी में मीनाक्षी जैन को सती संबंधी एक और घटना के बारे में जानकारी मिली। यदि इन दोनों घटनाओं को पूरी तरह सच मान लिया जाए तब भी आठ सौ साल में सिर्फ दो घटनाओं के बारे में ही जानकारी मिली। 

लेकिन अचानक पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से जब से यूरोपीय भारत आने लगे सती संबंधी जानकारी में वृद्धि देखी गई। वास्को डि गामा के भारत आने के बाद से यूरोप में भारत के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ी। उन्हें सती जैसी घटना बहुत अजीब या अनोखी लगी। इसलिए उनकी मांग पर यूरोपीय यात्री सती के विषय में लिखने लगे। उस समय के यात्रा वृत्तांतों की एक विशेषता यह है कि लगभग सभी वृत्तांतों में एक-सी बात होती थी और सती संबंधी घटनाओं की संख्या भी एक-सी होती थी। इससे पता चलता है कि वृत्तांत एक-दूसरे की नकल हुआ करते थे। इनमें कहीं भी सती संबंधी घटनाओं के स्थान विशेष या क्षेत्र विशेष का उल्लेख नहीं होता था। इससे स्पष्ट होता है कि वे यूरोपीयों की मांग पर यूं ही सती संबंधी बातें लिख देते थे। इस प्रकार न तो वे लेखकीय दृष्टि से बहुत धीर-गंभीर दिखते हैं और न ही उनका लेखन ही गंभीर और शोधपरक है। फिर भी, जैसा कि मीनाक्षी जैन कहती हैं, तब तक सती की संख्या अत्यंत कम होती थी। 

परंतु सती को लेकर उपलब्ध जानकारी में अप्रत्याशित रूप से उछाल आई 18-19वीं शताब्दी में। अब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन आरंभ हो चुका था और ईसाई मिशनरी भारत को धर्मांतरण की उर्वर भूमि मानकर ‘आत्माओं की फसल काटने’ के लिए यहां आने को व्यग्र थे। परंतु तब ईस्ट इंडिया कंपनी का एकमात्र उद्देश्य येन केन प्रकारेण केवल और केवल पैसा बनाना था, जिसमें उन्हें ईसाई मिशनरी की संभावित गतिविधियां एक अवरोध की तरह दिखती थीं। इसलिए ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। अगर वे कभी आते भी थे तो, मीनाक्षी जैन के शब्दों में, ‘अगले ही जहाज से उन्हें वापस भेज दिया जाता था’। इसके परिणामस्वरूप ईसाई मिशनरियों ने ब्रिटिश संसद में कहना शुरू किया कि भारत में अनेक अमानवीय सामाजिक कुरीतियां हैं और उनको समाप्त करने के लिए हमारा वहां जाना बहुत आवश्यक है। अब एकाएक सती होने वाली महिलाओं की संख्या हजारों और लाखों तक पहुंच गई। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी जानकारी केवल बंगाल से ही आती थी। लेकिन विडंबना तो यह है कि बंगाल में सती प्रचलन में नहीं थी। 

मीनाक्षी जैन के अतिरिक्त रविशंकर ने “भारत में यूरोपीय यात्री : उद्देश्य, वर्णन और यथार्थ” नामक अपनी पुस्तक में यूरोपीय यात्रियों ने भारत के विषय में जो कुछ लिखा है उसका विशद विश्लेषण किया है। चूंकि  यूरोपीय यात्री सती पर तो अनिवार्यत: लिखते ही थे, इसलिए उन यात्रियों द्वारा दी गई सती संबंधी जानकारी और रविशंकर का विश्लेषण दोनों इस लेख के लिए प्रासंगिक और उपयोगी हैं। रविशंकर लिखते हैं कि मार्को पोलो और सत्रहवीं शताब्दी तक के यूरोपीय यात्री भारत के वर्णन में शहरों और राज्यों के जो नाम बताते हैं, वे काफी अस्पष्ट हैं। अधिकतर नामों को समझने के लिए अनुमान लगाना पड़ता है। कई बार वे अनुमान सच भी होते हैं, परंतु कई बार गलत भी हो होते हैं। यही समस्या उनके शेष वर्णनों के साथ भी है। भारतीय रीति-रिवाजों के प्रति उनमें उत्सुकता तो थी, परंतु उन्हें समझने का उनके पास अवकाश और मानस नहीं था। इसलिए वे सुनी-सुनाई बातों को भी प्रत्यक्षद्रष्टा की भांति लिखते गए। और उन कहानियों को चटपटा बनाने के लिए उनमें नमक-मिर्च भी लगाते रहे। मार्को पोलो कई बार ऐसे वर्णन करता है, जो सुनने में ही अविश्वसनीय लगते हैं। मार्को पोलो लिखता है, “मैं इस राजा ( मलाबार क्षेत्र का कोई ) के बारे में एक बात बताऊंगा। उसके पास बड़ी संख्या में विश्वसनीय सामंत हैं। वे हर जगह उसके साथ रहते हैं, दरबार में, घूमते समय, राजा जहां जाता है, ये साथ जाते हैं। जब राजा की मृत्यु हो जाती है, तो वे उसके साथ उसकी चिता में जल मरते हैं, ताकि दूसरी दुनिया में भी उसके साथ रह सकें।” रविशंकर का विचार है कि ‘इसे सती प्रथा के यूरोपीय वर्णन का प्रारंभ कहा जा सकता है।’ इस घटना में संभवतः कोई सत्यता नहीं है, क्योंकि अब तक इस प्रकार का वर्णन भारत के साहित्य में नहीं देखा गया है। 

मार्को पोलो अब उस सती का वर्णन करता है, जिसे हम सती मानते हैं। वह लिखता है, “मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि इस राज्य में एक और रिवाज है। जब कोई व्यक्ति मर जाता है और उसका शरीर जलाया जाता है, तो उसकी पत्नी उसकी चिता में कूद जाती है और साथ में जल जाती है। जो स्त्री ऐसा करती है, उसे काफी प्रतिष्ठा मिलती है और मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि ऐसी स्त्रियां काफी संख्या में हैं।”

रविशंकर लिखते हैं, “हम समझ सकते हैं कि मार्को पोलो के इस वर्णन में कितनी सत्यता होगी ! ऊपर के दोनों तथ्यों को सामने रखें तो साफ हो जाता है कि वह केवल कुछेक कथाओं और अफवाहों के सहारे भारत का एक रोचक उपन्यासात्मक वर्णन तैयार कर रहा था, जो यूरोप के लोगों को पढ़ने में अजीब किंतु मजेदार लगे। परंतु उसके इन वर्णनों ने उसके बाद आने वाले यूरोपीय यात्रियों के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी। आगे चलकर ऐसे विवरणों के आधार पर ही देश में सती नामक ‘प्रथा’ की परिकल्पना और उसको समाप्त करने की पृष्ठभूमि तैयार की गई।”

रविशंकर आगे लिखते हैं, “देखा जाए तो भारत में सती कोई ‘प्रथा’ नहीं थी। यह एक आस्था थी, विश्वास था, जीने का एक तरीका था, चरित्र का उच्चतम मानदंड था। स्त्रियां सती-सावित्री बनना चाहती थीं, परंतु इसके लिए उन्हें पति के साथ मरने की नहीं, वरन जीने की आवश्यकता होती थी। सती होने का अर्थ आग में जलना नहीं होता था। पतिनिष्ठ या पतिव्रता स्त्रियों को ही सती माना जाता था। पति के संकटकाल में भी उसका साथ देने वाली, शारीरिक तप करके पति के संकटों को दूर करने वाली स्त्रियों को सती माना जाता था। इसलिए सामान्यतः सधवा स्त्रियां ही सती मानी जाती थीं। कहीं-कहीं जो कि गिनती में ऊंगलियों पर गिने जा सकते थे, कुछेक स्त्रियां अपने मृत पति के साथ जल कर सती भी हुईं। परंतु यह आम घटना नहीं थी। प्रथा उसे कहते हैं, जो आमतौर पर सभी करते हों……। मार्को पोलो और अन्य यूरोपीय यात्रियों ने सती होने को एक ‘प्रथा’ के रूप में लिखा था, इसलिए उसे ‘प्रथा’ मान लिया गया। हिंदुओं से अभी तक जिनका परिचय भी नहीं था, वे लोग हिंदुओं की प्रथाओं और रिवाजों का निश्चयात्मक वर्णन कर रहे थे।” 

रविशंकर, मीनाक्षी जैन द्वारा किए गए एक शोध का भी उल्लेख करते हैं, “विजयनगर साम्राज्य की ही भांति मदुरै के राज्य की विधवाओं के सती होने के हैरतअंगेज आंकड़े प्रस्तुत किए जाते हैं। उनकी संख्या डिलन के 400-500 से लेकर विंसेंजो के 11,000 तक जाती है। एक जेसुइट मिशनरी टेकशिरा का दावा था कि वर्ष 1611 में मदुरै के राजा के मरने पर उसकी चार सौ रानियां उसके साथ जलकर सती हो गईं। चूंकि राजाओं के अंतिम संस्कार का कोई लिखित विवरण कहीं नहीं पाया जाता है, इसलिए इन वर्णनों के अफवाहों पर आधारित होने की अधिक संभावना है।” 

इसके बाद रविशंकर पिएट्रो डेला वेले द्वारा दिए गए एक विवरण को उद्धृत करते हैं, “नवंबर 16 को मुझे बताया गया कि ( उपरोक्त ) स्त्री, जिसने अपने पति की मृत्यु के बाद स्वयं को जलाने का निर्णय लिया है, आज शाम को मरने वाली है। परंतु उसके घर जाने पर मुझे पता चला कि इसमें अभी कुछ दिन और लगने वाले हैं। मैंने उसे आंगन में देखा। उसके आसपास ढोल बज रहे थे। वह सफेद कपड़ों में थी और सोने के ढेर सारे आभूषण पहने हुए थी। सिर पर फूलों का मुकुट लगाए हुए थी। कुल-मिलाकर वह एक दुल्हन के लिबास में थी और एक हाथ में नींबू लिए हुए थी, जोकि एक रिवाज है। वह काफी खुश थी और और हमारे देश की दुल्हनों की तरह हंस रही थी। पिएट्रो आगे बताता है कि उसने एक दुभाषिए की सहायता से उस स्त्री, जिसका नाम वह जियाकॉमा बताता है, से काफी बातचीत की। वह बताता है कि उसके पति की दो और भी पत्नियां थीं, जो बच्चों के कारण सती नहीं हो रही थीं। इस स्त्री के भी दो बच्चे थे, परंतु वह बच्चों को उनके चाचा के भरोसे छोड़कर सती होने के लिए तैयार थी।” पिएट्रो के वर्णन के अनुसार, उसने जियाकॉमा को सती होने से रोकने के लिए समझाने की काफी कोशिश की, परंतु वह नहीं मानी।

रविशंकर उपरोक्त विवरण पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं, “इस पूरे वर्णन में पिएट्रो ने एक भारतीय स्त्री के दुख को दिखाने का प्रयास किया है। किसी भी भारतीय स्त्री से, वह भी दुल्हन के वेश में सजी हुई, सती होने के लिए तैयार, किसी विदेशी की इतनी लंबी बातचीत हो और वह भी किसी दुभाषिए द्वारा, मनगढ़ंत अधिक प्रतीत होती है, वास्तविक कम। भारत के गांवों में आज भी हम देख सकते हैं कि आमतौर पर स्त्रियां बाहरी लोगों से न्यूनतम बातें करती हैं। पिएट्रो को किसी स्त्री के बारे में किसी ने बात दिया होगा कि वह सती होने वाली है या फिर सती हो गई है। इस पर उसने यह सारी कहानी गढ़ ली।”

इस प्रकार उपरोक्त उद्धरणों से रविशंकर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि, “यदि हम भारतीय वर्णनों को देखें तो सती होने की कहानियां सामान्यतः क्षत्रिय वंशों की हैं। परंतु इन सभी यात्रियों के वर्णनों में अधिकांश वर्णन निम्न वर्ग की स्त्रियों के हैं। निम्न वर्ग की स्त्रियों में विधवा विवाह कभी भी प्रतिबंधित नहीं रहा है। पिएट्रो ने जिसका वर्णन किया है, वह एक ढोल बजाने वाले की पत्नी थी। विलियम मेटहोल्ड एक सुनार की पत्नी का वर्णन करता है, जिसने सती होने से रोके जाने पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। डेनिश मिशनरियों ने भी इस बात को दर्ज किया है कि सती की घटना केवल क्षत्रियों या फिर राजपरिवारों तक सीमित थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिस कालखंड में यूरोपीय सती का वर्णन कर रहे थे, ठीक उसी काल में पूरे यूरोप में विचहंटिंग ( डायनों को पकड़ने ) के नाम पर स्त्रियों को जलाए जाने का काम जोरों पर था।  इसके बावजूद एक भी यूरोपीय यात्री अपने वर्णनों में विचहंटिंग का उल्लेख नहीं कर रहा है। पोंपा बनर्जी इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखती हैं, “मैं उस मौन से प्रारंभ करना चाहूंगी, जो इस पुस्तक में छाया हुआ है। भारत में विधवाओं को जलाए जाने के यूरोपीय वर्णनों से विचहंटिंग को मिटा देना इस प्रश्न को जन्म देता है। जब सती के साक्षी रहे यूरोपीयों ने विधवाओं को जलते देखा तो उन्होंने एक अपरिचित घटना को समझाने के लिए अपने देश में विचों ( डायनों ) को जलाए जाने की घटना से उसकी समानता का उल्लेख क्यों नहीं किया ?”

यहां ध्यातव्य है कि सती और जौहर मूलतः राजस्थान में प्रचलित थे। प्रमाण के लिए मीनाक्षी जैन कहती हैं कि स्वतंत्रता के बाद से अब तक सती के कुल चालीस मामले प्रकाश में आए हैं, जिनमें से दो-तिहाई राजस्थान से ही आए पर बंगाल से एक भी नहीं। वास्तविकता यह है कि किसी भी सामाजिक कुरीति को समाप्त करने का जब कानून बनता है तब रातोंरात वह कुरीति समाप्त नहीं हो जाती, बल्कि घटने लगती है और लंबे समय के बाद ही पूरी तरह समाप्त होती है। दहेज प्रथा और बाल-विवाह जैसी प्रथाओं पर प्रतिबंध के बावजूद इन प्रथाओं का जारी रहना इसका प्रबल प्रमाण है। सती को लेकर दूसरी बड़ी बात यह है कि सती केवल पश्चिमी भारत और वह भी राजस्थान में प्रचलित थी और वह भी सर्वाधिक संपन्न घरों या राज-परिवारों में। बंगाल में सती बहुप्रचलित रही हो इसका कोई ठोस आधार अभी तक सामने नहीं आया है। मैं स्वयं बिहार का रहने वाला हूं और 1912 तक बिहार, बंगाल का हिस्सा रहा, पर मेरे बहुत पता करने पर भी सती के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं मिली। पर घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि विलियम बेंटिंक ने सती समाप्त करने का कानून बनाया और सती प्रथा बंगाल में अचानक समाप्त भी हो गई। उसके बाद से बंगाल में सती होने का प्रमाण भी नहीं मिलता। 

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि सती की समस्या को एक ‘प्रथा’ के रूप में चित्रित करके वास्तव में ईसाई  मिशनरियों ने इसे विकराल बनाया और फिर अंग्रेजों ने स्वयं को ही सती प्रथा को समाप्त करने का श्रेय भी दिया। 1813 में अंग्रेज मिशनरियों को भारत में प्रवेश की अनुमति मिली और उसके सोलह साल बाद ही सती पर प्रतिबंध लगाया गया, जिससे इन ईसाई मिशनरियों का भारत आगमन सार्थक हुआ। 

सती प्रथा के विरोध के लिए राममोहन राय ने प्राचीन हिंदू शास्त्रों के उद्धरणों को अपने पक्ष में उद्धृत किया, यह अच्छी बात है। पर सती जिस सीमा तक भी प्रचलित हुई, तो किस कारण हुई ? इस प्रश्न पर राममोहन राय ने विचार नहीं किया। वास्तव में इसका सर्वप्रमुख कारण था मुसलमान आक्रमणकारियों द्वारा राजपरिवार की महिलाओं का मान-मर्दन। इस तरह के वहशी आक्रमण भारत में पहले देखे नहीं गए थे। इसलिए महिलाओं ने अपना बलिदान करना ही श्रेयस्कर समझा। इसी प्रकार सामूहिक आत्मबलिदान का जौहर भी अपनाया गया। यहां ध्यातव्य है कि चाहे वह सती हो, जौहर हो या पर्दा प्रथा ये सब अधिकतर उत्तर भारत में ही प्रचलित थे। दक्षिण भारत में इनके प्रचलन का न के बराबर ही प्रमाण है। इससे बड़ी सहजता से सिद्ध होता है कि जहां मुसलमान आक्रमणकारियों ने सर्वाधिक बर्बरता दिखाई, वहीं ये प्रथाएं चलन में आईं। डॉ बिल वार्नर, जो पिछले दो दशकों से इस्लाम के प्रसार पर अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि सोलहवीं शताब्दी में मुसलमानों द्वारा किए गए हमलों के बाद भारत की प्रतिष्ठित महिलाओं ने बलात्कार और सुल्तान की काम-वासना की पूर्ति के लिए उसके हरम में जबरन लिए जाने से बचने के लिए सामूहिक आत्महत्या अर्थात सती की शुरूआत की। यह संभव है कि वार्नर यहां जौहर और सती दोनों को एक साथ मिला रहे हों, पर मुसलमानों की बर्बरता, आत्याचार और अमानवीयता दिखाने और उनके कारण सती, जौहर और पर्दा जैसी प्रथाओं के चलन के लिए मुसलमानों को उत्तरदायी ठहराने में कोई दुविधा नहीं हो सकती।  

पर वास्तविक समस्या यह थी कि यदि राममोहन राय ऐसी बातें करते तो विदेशी आक्रमणकारी होने के कारण अंग्रेज भी इस लपेटे में आ जाते। भले ही भारतीय महिलाओं पर वैसा अत्याचार अंग्रेजों ने न किया हो, जैसा कि मुसलमानों ने किया था, फिर भी अंग्रेजों ने हत्या, नरसंहार जैसी बर्बरता रत्ती भर भी कम नहीं की। इसके अतिरिक्त इससे यह भी सिद्ध होता है कि अनेक ऐसी कुरीतियां जिनके लिए हिंदुओं को सारे संसार में बदनाम किया जा रहा था, उनके लिए असल में विदेशी आक्रमणकारी ही उत्तरदायी थे। साथ ही, यह बात भी प्रकाश में आती कि भारतीय महिलाओं ने अपने स्त्रीत्व और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अतः यदि राममोहन राय इस प्रकार की बातें करते, तो अंग्रेज उनकी सहायता कदापि नहीं करते। सती को लेकर अंग्रेजों की नीति स्पष्ट थी। उन्हें भारतीय संस्कृति का माखौल उड़ाना था। उन्हें संसार को दिखाना था की हिंदू संस्कृति सड़-गल चुकी है और इसका एकमात्र उपाय है ईसाइयत को अपनाना।

इसके अतिरिक्त क्या राममोहन राय को यूरोपीय विचहंटिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं थी ? बाइबिल को समझने के लिए तो उन्होंने ग्रीक और हिब्रू सीखी और उसकी समुचित व्याख्या करने के लिए बाइबिल की जर्मन आलोचना भी मंगवाकर पढ़ी। फिर यह विचहंटिंग कैसे उनकी दृष्टि से ओझल हो गई ? स्पष्ट है कि विचहंटिंग उनकी प्राथमिकता में नहीं थी। वह तो अंग्रेजों द्वारा परोसे गए ज्ञान को ही अंतिम सत्य मानकर चल रहे थे। 

अब हम राममोहन राय ने जो कुछ हिंदू धर्म या सामान्यतः धर्म को लेकर कहा है, उस पर विचार करते हैं।  ऊपर हमने देखा कि राममोहन राय काविश्वासथाकिमौलिकरूपसेसभीधर्मएकहीसंदेशदेतेहैंकिउनकेअनुयायीभाई–भाईहैं।क्यायहकथनसहीहै ? क्यासभीधर्मएकहीसंदेशदेतेहैं ? परमविद्वानएवंधर्मकेमर्मज्ञशंकरशरणकाकहनाहैकिइसतरहकीबातेंसामान्यतःधर्मोंकेमध्यआपसीसौहार्द्रबढ़ानेकेउद्देश्यसेकहीजातीहैं, लेकिनइनकाकोईशास्त्रीयआधारनहींहोता।विशेषकरहमारेदेशकेधर्मोंऔरइब्राहिमीमजहबों— इस्लामऔरईसाइयतकेबीचतोसचमुचआकाशऔरपातालकाअंतरहै।इसलिएसभीधर्मोंमेंएकहीसत्यहैयहबातइब्राहिमीमजहबोंकेलिएनहींकहीजासकतीं।वेअपनेकोअन्यधर्मोंसेश्रेष्ठमानतेहैं।उनकाउपास्यएकमात्रईश्वरहैऔरवेऐसामानतेहैंकिदूसरेधर्मझूठेहैंऔरइसीकारणमिशनरीभावनाजागृतहोतीहै।वेदूसरोंकोपगान, हीथेन, मूर्तिपूजक, काफिर, अविश्वासीजैसेघृणितनामोंसेपुकारतेहैं, जोवस्तुतःगालीहैं।वेदूसरोंकोशैतानकाअनुयायीमानकरउन्हेंअपनेमजहबोंमेंशामिलकरनाअपनादैवीयअधिकारसमझतेहैं।यदिशब्दार्थपरविचारकरें, तोरिलीजनबांधताहै,जबकिधर्ममुक्तकरताहै।इसप्रकाररिलीजनयामजहबएकबंधनहै, जबकिधर्ममुक्तिकासाधनहै।इब्राहिमीग्रंथललकारतेहैं; भर्त्सनाकरतेहैं; धमकीदेतेहैं; उनमेंउद्वेगहै; येग्रंथआदेशप्रधानहैं; चेतावनीदेतेहैं; उनमेंआवेशहै।येग्रंथनर्ककाभयऔरस्वर्गकेसपनेदिखातेहैं।दूसरीओरहिंदूदृष्टिचिंतन–परकहै, अनेकांतहै, उसकेकईमार्गहैं।अंतर्मुखीहैऔरशांतभावसेआपकोनिरंतरआगेकीओरबढ़नेकेलिएप्रेरितकरतेहैं।आपकीचेतनाकोजागृतऔरविकसितकरनेकाकामकरतेहैं।दोनोंकेबीचकीभिन्नतामौलिकऔरआधारभूतहै।ईश्वरहमारेअंदरहैऔरइसीलिएवहसबजीवमेंहै।ईश्वरकासंदेशभीसबकोप्राप्यहै,जबकिइब्राहिमीमजहबोंमेंईश्वरऔरव्यक्तिकेमध्यएकपैगंबरहैऔरबिनाउसकीकृपाकेआपईश्वरतकनहींपहुंचसकते।इसीलिएइब्राहिमीमजहबअंततःव्यक्तिपूजाहै।ईसामसीहकोपूजनेवालेईसाईकहलातेहैंऔरमोहम्मदकोपूजनेवालेमोहम्मडनया मोहम्मदी कहलातेहैं।

धर्मऔरमजहबकेबीचकेमौलिकअंतरपरप्रकाशडालतेहुए ‘भारतीयसंस्कृति’ नामकपुस्तककेरचयितापंडितसातवलेकरलिखते हैं कि ईसाई और मुसलमानी धर्मों में ईश्वर तो हैं, पर ये ईश्वर उन धर्मानुयायियों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते, क्योंकि “नर से नारायण” होने की संभावना भी उन धर्मों में नहीं है। “मैं ईश्वर बनूंगा” यह ध्येय ही जिन धर्मों में नहीं है, उनमें ईश्वर के गुण और उन गुणों के द्वारा मनुष्यों के मार्गदर्शन का प्रश्न ही उनके मन में उत्पन्न नहीं हो सकता। इन धर्मों के अनुसार ईश्वर है तो सही, पर वह अप्रत्यक्ष है, उसकी आज्ञा का पालन बिना किसी किंतु-परंतु के करना चाहिए। उसके द्वारा प्रेषित प्रतिनिधियों पर विश्वास करना चाहिए, तभी तारण हो सकता है। यह एक प्रकार की मानसिक गुलामी इन धर्मों में है। इसकेअतिरिक्तइतरधर्मोंकाघोषणापत्रहीयहहैकि “हमारेधर्मोंमेंआओ, दूसरेकेधर्मोंमेंमतजाओ।” इसप्रकारधर्मांतरणएकऐसातत्वहैजोधर्मऔरमजहबकोपासभीनहींआनेदेता।असलमेंधर्मशिकारहैऔरमजहबशिकारी।

अपनेब्रह्मसमाजकेलिएराममोहनरायनेव्यवस्था दी कि इसमें अन्य धर्मों की शिक्षाओं को भी समाहित करना है। अब देखिए कि ऐसे घालमेल से क्या निकलता ? इस संदर्भ में पंडित सातवलेकर का स्पष्ट मत है कि धर्मों के साथ इस प्रकार का घालमेल अच्छा परिणाम नहीं देता। इससे पूर्व गुरु नानक ने हिंदू और मुसलमानी संस्कृति को मिलाने का बड़ा प्रयत्न किया, पर वे भी इस दिशा में असफल ही रहे। हुआ यूं कि हिंदू सिख बन गए पर थोड़े से भी मुसलमान सिख नहीं बने, जबकि नानक का उद्देश्य था कि हिंदू और मुसलमान दोनों को मिलाकर एक ऐसे स्थान पर ले आएं जहां वे दोनों एक जैसे हो जाएं। पर जैसा कि स्पष्ट है ऐसा हुआ नहीं। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि राममोहन राय को हिंदू धर्म की महानता का भान नहीं था। उन्हें भारतीय शिक्षा प्रणाली की भी समुचित समझ नहीं थी। यह वह भारत था जिसके कई हिस्सों की साक्षरता दर 1881 में भी अर्थात राममोहन राय की मृत्यु की आधी शताब्दी बाद भी यूरोप की साक्षरता दर के बराबर थी या उससे ऊपर। धर्म के विषय में इसकी स्थिति अतुलनीय थी। तभी तो स्वामी विवेकानंद ने ईसाई मिशनरियों को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत में धर्म की प्रचुरता है। कमी है तो धन-धान्य की। यदि आप देना चाहते हैं तो धन-धान्य दीजिए, धर्म नहीं। परंतु ईसाई मिशनरी तो धर्म देने पर ही आमादा थे और आज भी हैं। राममोहन राय की समस्या यह है कि उनका ईसाई मिशनरियों से बड़ा घनिष्ठ संबंध-संपर्क रहा। चाहे विलियम केरी हो या अलेक्जेंडर डफ दोनों से उनका घनिष्ठ संबंध रहा, जबकि दोनों का उद्देश्य भारतीयों को ईसाई बनाना था। राममोहन राय ने तो लिख-लिखकर मिशनरियों को ईसा के ऐसे उपदेश दिए, जो भारतीयों में लोकप्रिय हो सकते थे। इस प्रकार राममोहन राय स्वयं एक ईसाई मिशनरी जैसे हो गए। अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान एक बार भी उन्होंने खुलकर नहीं कहा कि वह ईसाई नहीं हैं। बल्कि उन्होंने इस प्रकार के व्यवहार किए, जिससे साफ जाहिर हो कि वह ईसाई ही हैं। इंग्लैंड में उनके विरोधियों ने यह बात चलाई कि राममोहन राय अंग्रेजों के साथ अपनी जाति के भ्रष्ट होने के डर से भोजन नहीं करते और न ही उन्होंने अपना नाम ही बदला है, इसलिए हम कैसे उन्हें ईसाई मानें ? फिर भी उनके पक्षधरों ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और उलटे प्रश्न किया कि आप साबित करें कि राममोहन राय ईसाई नहीं हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि यूनिटेरियन चर्च इतना उदार है कि ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देता।      

कुल-मिलाकर राममोहन राय का जो चित्र हमारे सामने उभरकर आता है, वह कुछ इस प्रकार है। राममोहन राय ने ईस्ट इंडिया कंपनी की नौकरी की। वह अंग्रेजों के परम आज्ञाकारी सेवक की तरह ही जीवन पर्यन्त रहे। जीवन के अंत में वह इंग्लैंड गए, जहां उन्हें एक ईसाई के रूप में सर-माथे पर बिठाया गया। वहीं अपने शुभचिंतकों के समर्थन से वह संसद सदस्य बनने के लिए जी-जान से लग गए। ईसाई होना संसद सदस्य बनने की एक अर्हता थी और राममोहन राय ने बड़ी कुशलता से स्वयं को एक ईसाई के रूप में प्रस्तुत किया। अंततः उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को ईसाइयों की कब्रगाह में दफनाया गया। उनकी कब्र के पत्थर पर जो लिखा है, उससे पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें ईसाई मानकर ही दफनाया गया —

लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।

28  अप्रैल 2020 



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पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार

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भारत-अफ्रीका के गहराते संबंध और इनके निहितार्थ

28 मई 2022
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भारत-अफ्रीका फोरम शिखर सम्मलेन के तीसरे संस्करण का आयोजन 26 से 29 अक्टूबर 2015 तक नई दिल्ली में होने जा रहा है। सभी 54 अफ़्रीकी देशों को निमंत्रण देकर भारत सरकार ने अफ्रीका से अपने संबंधों को आगे ले जा

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1857 की क्रांति की 160वीं जयंती

28 मई 2022
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आज ही के दिन ठीक एक सौ साठ साल पहले यानी 10 मई 1857 को जिस ऐतिहासिक क्रांति का सूत्रपात मेरठ से हुआ वह कई अर्थों में विलक्षण थी । क्रांति का क्षेत्र व्यापक था और इसका प्रभाव लम्बे समय तक महसूस किया गय

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