अनावश्यक अजान और पांच बार नमाज की अनिवार्यता के परिणाम।
इन दिनों वाराणसी में गंगा नदी में नौका विहार करते हुए एक विदेशी पर्यटक का वीडियो सोशल मीडिया में काफी वायरल ( प्रचलित ) हुआ है। वीडियो में यह विदेशी भारत की दस ऐसी चीजों के बारे में बताता है जो उसे बिल्कुल पसंद नहीं हैं। इनमें से एक चीज है अजान की आवाज से उसकी नींद में होने वाली खलल। इस विदेशी ने अन्य विदेशी पर्यटकों को सलाह दी है कि भारत में होटल बुक करते समय इस बात का अवश्य खयाल रखें कि आस-पास मस्जिद न हो। उसे यह बात बहुत अजीब लगती है कि कोई लोगों को मस्जिद में नमाज के लिए बुलाए !
अभी थोड़े दिन हुए लोकप्रिय गायक सोनू निगम ने कई बार ट्वीट करके अपनी इस व्यथा को जग-जाहिर किया कि कैसे अजान से उनकी नींद टूट जाती है। प्रसिद्ध पत्रकार तारिक फतेह ने अपने एक टीवी शो में बताया कि जब वह नैनीताल के पास कहीं रात को सो रहे थे तब उनकी नींद अजान की तेज आवाज से टूट गई। उन्हें इतना क्रोध आया कि वह चलते-चलते उस मस्जिद तक पहुंच गए। जब उन्होंने पास जाकर देखा तो सिर्फ छह-सात लोग नमाज पढ़ रहे थे। उन्होंने मुअज्जिन से पूछा कि क्यों इतने ही लोगों के लिए आप सारे इलाके के लोगों की नींद खराब करते हैं ? मुअज्जिन लज्जित हुआ। मुंबई में मुझे स्वयं अजान की आवाज से परेशानी हुई। मैं बांद्रा कुर्ला इलाके में एक होटल में सो रहा था। अचानक अजान की इतनी तेज आवाज सुनाई पड़ी कि मेरी नींद टूट गई। इसके बाद कोशिश करके भी मुझे दोबारा नींद नहीं आई। सोनू निगम के प्रकरण में वरिष्ठ राजनेता अहमद पटेल ने टिप्पणी की थी कि अजान के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल बंद होना चाहिए। पर मूल प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या अजान जरूरी है ?
इस्लाम में मुस्लिम समुदाय को अपने दिन भर की पांचों नमाजों के लिए बुलाने के लिए ऊंचे स्वर में जो शब्द कहे जाते हैं, उन्हें अजान कहते हैं। अजान सुना कर लोगों को मस्जिद की तरफ बुलाने वाले को मुअज्जिन कहते हैं। मदीना में जब जमात में ( यानी इकट्ठे होकर ) नमाज देने के लिए मस्जिद बनाई गई तो जरूरत महसूस हुई कि लोगों को नमाज पढ़ने का समय करीब होने की सूचना देने का कोई तरीका तय किया जाए। इस बारे में चार प्रस्ताव सामने आए: प्रार्थना के समय कोई झंडा बुलंद किया; किसी ऊंचे स्थान पर आग जला दी जाए; यहूदियों की तरह बिगुल बजाया जाए; और ईसाइयों की तरह घंटियां बजाई जाए। इन प्रस्तावों को गैर-मुस्लिमों से मिलते-जुलते होने के कारण पसंद नहीं किया गया। इसके बाद किसी व्यक्ति को इस काम पर लगाने का निर्णय लिया गया। अजान के दौरान मुअज्जिन ऊंचे स्वर में पुकारता है कि अल्लाह सबसे महान है; मैं दावा करता हूं कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा इबादत के काबिल नहीं; मैं दावा करता हूं कि मुहम्मद अल्लाह के आखिरी पैगंबर या रसूल हैं; आओ नमाज की ओर; आओ सफलता की ओर; और नमाज सोने से बेहतर है ( यह सिर्फ सुबह की नमाज में कहा जाता है )।
अपनी पुस्तक ‘अजान और नमाज क्या है ?’ में नसीम गाजी लिखते हैं, “दिन में पांच बार नमाज पढ़ना इस्लाम के प्रत्येक अनुयायी ( स्त्री और पुरूष ) के लिए अनिवार्य है। इस्लाम के किसी अनुयायी के लिए नमाज छोड़ना अधर्म ठहराया गया है। सच्ची बात तो यह है कि नमाज के बिना इस्लाम का अनुयायी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।” गाजी का मानना है कि अजान को लेकर समाज में अनेक भ्रांतियां हैं। इन भ्रांतियों को दूर करने के उद्देश्य से ही उन्होंने यह पुस्तक लिखी है। गाजी के अनुसार, बहुत से लोग अज्ञानतावश यह समझते हैं कि अजान में अकबर बादशाह को पुकारा जाता है। गाजी कबीरदास का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि उनके जैसे महापुरुष तक ने अपनी अनभिज्ञता के कारण अजान के संबंध में कह डाला :
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
अभी तक की चर्चा से स्पष्ट है कि अजान की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई क्योंकि तब नमाज के ठीक समय की जानकारी आम लोगों के पास नहीं थी। घड़ी बहुत बाद का आविष्कार है। फिर भी जब से घड़ी उपलब्ध हो गई और विशेषकर जब से घड़ी आम हो गई तब से ही नमाज का समय बताना निरर्थक हो गया और विचार-विमर्श करके मुस्लिम समाज द्वारा तब से ही अजान की परंपरा पर रोक लग जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। पहले जाहिर है मुअज्जिन अपनी आवाज से ही काम चलाता था। परंतु कालांतर में जब लाउडस्पीकर आ गया तब से इसका प्रयोग शुरू हो गया। मस्जिद पर ऊंची-ऊंची मीनार बनाकर उस पर लाउडस्पीकर लटका दिए गए। अब अजान की आवाज दूर-दूर तक जाने लगी। सुबह की नमाज के लिए अजान की आवाज इस कद्र खलने लगी कि चारों ओर से लोगों की शिकायतें सामने आने लगीं। वैसे तो कबीरदास भले ही अजान और नमाज की बारीकी से अनभिज्ञ रहे हों, पर उनके दोहे से इतना तो पता चलता ही है कि उन्हें भी बार-बार अजान की आवाज सुनाई देती रही होगी। इससे सहज ही कल्पना की जा सकती है कि जब बिना लाउडस्पीकर के इतनी आवाज होती थी तो लाउडस्पीकर के साथ सुननेवालों का क्या हाल होता है !
वैसे तो मंदिरों, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों से भी कभी-कभार बहुत तेज आवाज आती है जिसे रोकने की जरूरत है और कई शहरों में इस पर दस बजे रात के बाद रोक लगाई भी जाती है। परंतु इस आवाज और अजान की आवाज में एक मौलिक भेद है। मंदिरों, गुरुद्वारों और गिरिजाघरों से किसी विशेष अवसर पर ही आवाज आती है। लेकिन अजान बिना नागा तीन सौ पैंसठ दिन चलती है और वह भी दिन में पांच बार। अजान सुनकर ऐसा लगता है कि अजान देने वालों को गैर-मुस्लिमों की उपस्थिति का कुछ भी खयाल नहीं है। अजान एक तरह का ध्वनि प्रदूषण है, जिसका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। ठीक से न सो पाने के कारण अनेक तरह की बीमारियां भी हो सकती हैं। शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए अच्छी नींद अत्यंत आवश्यक है।
अजान नमाज के लिए दी जाती है। पर प्रश्न किया जा सकता है कि आखिर पांच बार नमाज ही क्यों अनिवार्य है ? आज के युग में जब नित नई आर्थिक गतिविधियों के कारण लोग सदा अपने-अपने काम में लगे होते है तब क्या यह व्यावहारिक है कि कोई पांच बार नमाज के लिए समय निकाले ? सच तो यह है कि मैं स्वयं अपने अनेक मुस्लिम मित्रों को जानता हूं जो पांच बार क्या एक बार भी नमाज के लिए समय नहीं निकाल पाते। कई मुस्लिम तो ऐसे हैं जिन्होंने शायद ही कभी नमाज पढ़ी हो ! कुछ मुस्लिम तो यहां तक कहते हैं कि वे प्रैक्टिसिंग मुस्लिम नहीं हैं, यानी वे न तो नमाज पढ़ते हैं और न ही मस्जिद जाते हैं। वैसे भी जुमे की नमाज में उमड़ने वाली भीड़ भी यही दर्शाती है कि इनमें से अधिक ऐसे लोग होते हैं जो प्रतिदिन पांचों वक्त की नमाज नहीं पढ़ते। यदि मुसलमान होने की शर्त पांच बार नमाज पढ़ना है तो जाहिर है कि अधिकतर मुसलमान मुसलमान नहीं माने जाएंगे।
असल बात यह है कि यदि इस्लाम में सुधार हुआ होता तो पांच बार नमाज की अनिवार्यता, निरर्थक अजान को जारी रखने, अरबी भाषा की अनिवार्यता आदि पर गहन विमर्श होता और उपासना पद्धति सरल, सहज और उदार बनाई जाती। पिछले दिनों जब मैं श्रीनगर में था तो मेरा ड्राइवर बता रहा था कि कैसे उसे इतनी ठंड में सुबह-सुबह नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद में जाना होता है। मुझे तो सोच कर ही कंप-कंपी छूटने लगी कि उस पर क्या गुजरती होगी !
वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार, ‘कहावतें मानवी ज्ञान के चोखे और चुभते हुए सूत्र हैं’। मुसलमानों को लेकर एक बहुप्रचलित अनुभवमूलक कहावत है : ‘मियां का दौर मस्जिद तक’। यह कहावत नमाज के लिए बार-बार मस्जिद जाने के कारण ही बनी होगी। आज हम अक्सर सुनते हैं कि अमुक पार्क में अमुक स्थान पर प्रशासन ने नमाज करने से मुसलमानों को रोका। आखिर लोग काम करने जाते हैं कि नमाज के लिए जगह तलाशने। इस्लाम में मान्यता है कि जमात में नमाज पढ़ने से अधिक पुण्य मिलता है। इसीलिए लोग बड़ी संख्या में एकत्रित होकर एक साथ नमाज पढ़ते हैं। परंतु इस अधिक पुण्य के लाभ से मुस्लिम महिलाओं को आज तक वंचित रखा गया है क्योंकि उनके मस्जिद जाने पर रोक है। इसलिए यदि मुस्लिम महिलाएं कम पुण्य कमाने को विवश हैं तो फिर मुस्लिम पुरुष भी उसी तरह क्यों नहीं कर सकते ? कम से कम इससे पुरुष महिला के बीच का भेदभाव तो कम होगा। जूमे की नमाज के समय तो क्या पटना और क्या लखनऊ लगभग सभी शहरों के उन हिस्सों में जहां मुस्लिम बड़ी संख्या में रहते हैं, सड़क पर जाम की समस्या खड़ी हो जाती है। बढ़ती आबादी के साथ भविष्य में यह समस्या विकराल रूप धारण कर सकती है।
उपासना के तौर तरीकों को अनिवार्य करने से आस्था नहीं पनपती। आस्था पनपती है धार्मिक व्यवस्था को उत्तरोत्तर उदार बनाने से। ईसाइयों में रविवार की प्रार्थना की अनिवार्यता है। इसका परिणाम आज यह है कि पश्चिमी देशों में रविवार को चर्चों में पर्याप्त संख्या में ईसाई नहीं जुटते जिसके फलस्वरूप चर्चों की कमाई में लगातार गिरावट देखी जा रही है। सिर्फ इंगलैंड में ही हजारों चर्च बिजली का बिल न भर पाने के कारण रेस्तरां में तब्दील हो गए हैं। कमोबेश यही हाल अमेरिका का है जहां के कई विशाल चर्च हिंदू मंदिर में परिवर्तित हो गए हैं। स्पष्ट है कि किसी भी धर्म में लंबे समय तक जोर-जबर्दस्ती नहीं चल सकती। परंतु इस मामले में इस्लाम की स्थिति सबसे दयनीय है। आखिर क्यों कबीरदास जैसे ज्ञानी अजान और नमाज के बीच अंतर नहीं कर पाए। इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि चाहे अजान हो या नमाज दोनों में सिर्फ अरबी का प्रयोग होता है। इसलिए केवल हिंदी जानने और बोलने वाले कबीरदास को क्या पता चलता कि मस्जिद से क्या बोला जा रहा है। कबीरदास के बाद सदियां बीत गईं लेकिन अरबी का प्रयोग यथावत है। यह समझना मुश्किल है कि क्यों मुसलमान अरबी के गुलाम हैं ! ‘अल्लाहु अकबर’ के लिए ‘अल्लाह महान है’ क्यों नहीं कह सकते ? यह अरबी का प्रयोग ही है जिसके कारण मैंने अपने कई मुस्लिम मित्रों से नमाज के बारे में जानकारी चाही, पर वे दे नहीं पाए। बातचीत में एक मुस्लिम विद्वान ने अपनी मां के बारे में बताया कि ‘मेरी मां जब अड़सठ साल की थीं तब मैंने एक दिन उनसे पूछा कि आप जो नमाज पढ़ती हैं उसका अर्थ पता है ?’ उनका उत्तर ‘नहीं’ में था। चूंकि मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार अपेक्षाकृत कम हुआ है, इसलिए आसानी से कहा जा सकता है कि अधिकतर मुसलमान नमाज की सिर्फ रस्म-अदायगी ही करते हैं।
फिर भी नमाज के लिए लोग जगह ढूंढ़ते रहते हैं। बढ़ते शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण मुसलमान जब काम पर जाते हैं तब वे नमाज के लिए जगह की तलाश में लग जाते हैं। चूंकि हर जगह मस्जिद बन नहीं सकती, इसलिए वे खुले में नमाज पढ़ने लग जाते हैं। मस्जिद के साथ एक सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इसका आकार मंदिरों की अपेक्षा बड़ा ही होना चाहिए क्योंकि इसमें बड़ी संख्या में लोगों को बैठ कर नमाज पढ़ना होता है। जबकि मंदिरों के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। मंदिर कितना भी छोटा हो सकता है, पर मस्जिद नहीं। अतः बदलते समय के साथ यदि नमाज की अनिवार्यता पर विचार नहीं किया गया तो समस्या गंभीर रूप ले सकती है।
उपासना पद्धति की जटिलता और अनिवार्यता से जनसाधारण को मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से ही गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है :
भाय कुभाय अनख आलसहूं। नाम जपत मंगल दिसि दसहूं।
अर्थात अच्छे भाव से, बुरे भाव से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से हर दिशा मे कल्याण होता है।
अतः समय आ गया है कि निरर्थक अजान की परंपरा पर रोक लगने और पांच बार नमाज की अनिवार्यता समाप्त करने पर विचार-विमर्श होना चाहिए।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
25 दिसंबर 2018