हिंदी साहित्याकाश में सूर्य की तरह चमकने वाले सचमुच में दिनकर ही थे। रामधारी सिंह दिनकर में साहित्य सर्जन के गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान थे। इसलिए आश्चर्य नहीं कि केवल पंद्रह वर्ष की आयु में ही उनका काव्य-सृजन आरम्भ हो गया।अपने लगभग 66 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने विपुल साहित्य का सृजन किया। दिनकर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होंने साहित्य में केवल काव्य तक सीमित न रहकर अच्छा-खासा गद्य भी लिखा और गद्य भी ऐसा जिस पर आज भी पूरे देश को गर्व है। दिनकर बहु-पठित व्यक्ति थे।वह इस अर्थ में भाग्यशाली थे कि उन्हें न केवल अभूतपूर्व ख्याति और प्रसिद्धि ही मिली वरन उन्हें अनेक पद और सम्मान भी मिले। उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ कहा गया।दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।आश्चर्य नहीं कि उनको राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत, क्रांतिपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देने वाली ओजस्वी कविताओं के कारण असीम लोकप्रियता मिली।
हर कवि अपने युग का प्रतिनिधि होता है। इसलिए वह ऐसे विषय उठता है जो कालातीत होते हैं और सदा प्रासंगिक रहते हैं। दिनकर के युग में दो प्रधान चुनौतियाँ थीं और दोनों ही आपस में गुत्थम-गुत्था। पहली चुनौती तो देश की स्वतंत्रता थी और दूसरी थी देश को कमजोर करने वाली कुप्रथाएँ। दिनकर ने अपनी रचनाओं के द्वारा दोनों चुनौतियों को परास्त करने का प्रयास किया। संभवतः दिनकर को इस बात की गहरी अनुभूति थी कि कैसे अपनी कमजोरी के कारण भारतीय जाति विदेशी जातियों से हार गयी और देश लम्बे समय तक विदेशी शासन के अधीन रहने को अभिशप्त हुआ।इसलिए यह अकारण नहीं है कि उन्होंने ‘रश्मिरथी’ जैसे काव्य की रचना की। संयोगवश यह काव्य उनके यश का आधार भी बना। देश जातिप्रथा के जिस कलंक को सदियों से झेलता आ रहा था उसे दिनकर ने बहुत बड़ा झटका दिया। रश्मिरथी का विषय अनेक अर्थों में अति महत्वपूर्ण है। इस काव्य का नायक कर्ण है जो अपने युग का बहुत बड़ा शूर-वीर था।वह इतना बड़ा दानी था कि उसके दान की कथा जगप्रसिद्ध है। महान रचनाकार इतिहास के गर्भ में दबे पात्रों को महानायक का दर्जा दिलाता है। कर्ण ऐसा ही पात्र था जो अन्यान्य कारणों से हमारे मानस में उपेक्षित था। इतना प्रतिभा सम्पन्न पात्र और इतना उपेक्षित यह दिनकर के लिए सह्य नहीं था।दिनकर ने कर्ण केंद्रित रचना के द्वारा एक तीर से कई शिकार किए। उन्होंने जाति के स्थान पर प्रतिभा को महत्व दिया। यह विषय न केवल तब महत्वपूर्ण था बल्कि आज भी उतना ही प्रासंगिक है। पश्चिमी शास्त्रज्ञों ने भी यह स्थापित किया है कि वही जाति विकसित होगी जो प्रतिभा को सबसे अधिक प्रमुखता देगी। उदाहरण के लिए दिनकर के शब्दों को देखिए –
कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पंडित, ज्ञानी,
कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें मानेगा,
तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
ऊँच नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।(रश्मिरथी से)
परंतु दिनकर की विशेषता यह है कि ऐसे गम्भीर विषय को उन्होंने ऐसे शब्द दिए जिससे उनका काव्य लोकप्रियता की सारी सीमाएँ लाँघ गया। उनके लिखे पद मुहाबरों और लोकोक्तियों में बदल गए। यह किसी भी कवि की सबसे बड़ी सफलता होती है।उदाहरण के लिए निम्नलिखित पंक्तियाँ सभी शिक्षितों की जिह्वा पर होती हैं –
‘क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो’- (कुरुक्षेत्र से)
वैसे तो सिर्फ सोलह वर्ष की अवस्था में 1924-25 में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘छात्र-सहोदर’ में दिनकर की पहली कविता छपी। परंतु उनकी पहली काव्य पुस्तक ‘प्रण-भंग’ 1929 में प्रकाशित हुई।कहते हैं कि 1933 में जब उन्होंने भागलपुर में आयोजित बिहार प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन में ‘हिमालय के प्रति’ कविता पढ़ी तो समस्त हिंदी जगत में एकाएक उनका नाम फैल गया। तदुपरांत 1930-1935 की अवधि में दिनकर ने जितनी देशभक्ति से परिपूर्ण क्रांतिकारी कविताएँ रचीं उनका संग्रह 1935 में ‘रेणुका’ नाम से निकला।इस काव्य संग्रह का पूरे हिंदी संसार में उत्साह के साथ स्वागत हुआ।इसके बाद 1938 में ‘धुँधार’ निकली। कहते हैं अब तक ‘दिनकर’ का प्रचंड तेज समस्त हिंदी साहित्याकाश में फैल चुका था। इनका पहला प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ 1946 में निकला जिसमें हिंसा-अहिंसा, युद्ध और शांति आदि समस्यायों पर गहन विचार किया गया है। दिनकर स्वयं लिखते हैं – “बात यों हुई कि पहले मुझे अशोक के निर्वेद ने आकर्षित किया और ‘कलिंग विजय’ नामक कविता लिखते-लिखते मुझे ऐसा लगा, मानो, युद्ध की समस्या मनुष्य की सारी समस्यायों की जड़ हो।” और यह अकारण नहीं है क्योंकि यही वह समय था जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ था। उसकी विभीषिका ने भी उनके कवि हृदय को अवश्य विचलित किया होगा।
फिर 1952 में ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य आया जो, जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, महाभारत के उपेक्षित कथानायक कर्ण के जीवन पर आधारित है।इसने दिनकर की लोकप्रियता को सर्वाधिक ऊँचाई दी। लेकिन 1961 में प्रकाशित उनके महाकाव्य ‘उर्वशी’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता है जिसके लिए 1973 में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।
उनकी गद्य रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1951 में साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया।स्नातकोत्तर उपाधि से रहित होने के बावजूद उन्हें बिहार विश्वविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त किया गया। यह उनकी असाधारण योग्यता और प्रतिभा का सम्मान था।दिनकर ने बारह वर्षों तक राज्य सभा के सदस्य के रूप में भी ख्याति प्राप्त की। बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बने।अंततः उन्हें भारत सरकार के गृह मंत्रालय में हिंदी सलाहकार मनोनीत किया गया। इस बीच 1951 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ की उपाधि प्रदान की गई। 1962 में उन्हें भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट की मानद उपाधि प्रदान की गई। दिनकर देश में किस तरह सराहे गए इसके लिए उनके समकालीन और उनके जैसे ही प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन के शब्द ही पर्याप्त हैं – “दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।”
दिनकर अनेक अर्थों में महान थे। परंतु जो बात उन्हें अन्य साहित्यकारों से अलग करती है वह है उनके द्वारा स्वच्छंद धारा को अपनाना।उनका पूरा जीवन ऐसे काल खंड में बीता जब किसी न किसी विचारधारा का आधिपत्य था।स्वतंत्रता पूर्व काल में ही साम्यवाद, समाजवाद और प्रगतिवाद का ऐसा जोर था कि बड़े से बड़े साहित्य सेवी के पाँव उखड़ गए। इन वादों ने और भी जोर पकड़ा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब इनके अनुयायियों ने बड़े-बड़े मठ बना लिए और अपने से इतर किसी और वाद को रत्ती भर भी जगह और महत्व नहीं दिया। ऐसे में दिनकर, बच्चन और नेपाली तीन ऐसे रचनाकार थे जो बड़े गर्व से अपनी ही स्वच्छंद धारा में बहते रहे।दिनकर ने तो बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा कि “प्रगति शब्द में जो नया अर्थ ठूँसा गया है, उसके फलस्वरूप हल और फावड़े कविता का सर्वोच्च विषय सिद्ध किये जा रहे हैं और वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि जीवन की गहराइयों में उतरने वाले कवि सिर उठाकर नहीं चल सकें।” कहते हैं कि दिनकर की प्रगतिशीलता साम्यवादी लीक पर चलने की प्रक्रिया का साहित्यिक नाम नहीं है, एक ऐसी सामाजिक चेतना का परिणाम है, जो मूलत: भारतीय है और राष्ट्रीय भावना से परिचालित है। इसी तरह बच्चन की स्थिति थी जिन्हें वैसे तो किसी भी विचारधारा से गुरेज नहीं था पर उन्हें किसी भी विचारधारा की गुलामी भी स्वीकार्य नहीं थी। बच्चन हमारे देश की प्रचलित धारणा कि ‘कवि निरंकुश होता है’ को दिल से मानते थे। सच बात है कि यदि कवि किसी भी अंकुश के अधीन हुआ तो वह कैसे साहित्य की रचना करेगा।यहाँ यह बताना बिल्कुल समीचीन होगा इस विचारधारा की गुलामी से देश का कितना भला हुआ इस पर बहस हो सकती है किंतु इसने कितना नुकसान पहुँचाया है वह तो बिलकुल स्पष्ट है।विचारधारा के वर्चस्व ने इस देश को इसकी जड़ से काटने का काम किया।देश प्रेम को पनपने नहीं दिया।अपने गौरवशाली अतीत पर गर्व नहीं करने दिया।इस तरह विचारधारा ने हमारे देश से ही हमें काट कर अलग कर दिया।यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसा विशाल ग्रंथ दिनकर की लेखनी से ही निकल सकता था।यह ग्रंथ अपने आप में मील का पत्थर है।भारतीय संस्कृति का जैसा विशद वर्णन इस पुस्तक में है वैसा संभवत देश की किसी और भाषा में नहीं मिलता।इस पुस्तक का रचयिता दिनकर जैसा मनीषी ही हो सकता था।इसमें भारत में जन्म लिए धर्मों के अलावा ईसाइयत और इस्लाम की जैसी सहज विवेचना की गई है वह दुर्लभ है।
दिनकर का जन्म बिहार के बेगूसराय जिले में हुआ जहाँ उनकी आरम्भिक शिक्षा हुई।उसके बाद उनकी शिक्षा पटना में हुई। नौकरी-पेशे के सिलसिले में उन्हें पटना, मुज़फ़्फ़रपुर, दिल्ली और भागलपुर में रहना पड़ा।यदि दिल्ली प्रवास को छोड़ दें, तो उनके जीवन के लगभग पचास वर्ष बिहार में ही बीते।इस प्रकार वह खाँटी बिहार के थे और उनका रचना संसार भी बिहार ही था।दिनकर भागलपुर से जुड़े हुए थे और यह केवल संयोग नहीं हो सकता कि यहीं के अंगराज कर्ण पर उन्होंने विशद काव्य रचा। इसी तरह अपने परिवार से वह किस कद्र जुड़े थे कि उन्होंने अपना उपनाम ‘दिनकर’ रखा जबकि उनके पिता के नाम में रवि जुड़ा हुआ था। यह अत्यंत गर्व की बात है कि ‘रश्मिरथी जैसे महान काव्य की रचना मुज़फ़्फ़रपुर की भूमि पर हुई।इससे यह भी पता चलता है कि साहित्य रचना की दृष्टि से मुज़फ़्फ़रपुर की भूमि कितनी उर्वर रही है। यह वही भूमि है जहाँ उनसे थोड़ा पहले से ही रामवृक्ष बेनीपुरी अपनी रचनाओं के द्वारा राष्ट्र की सेवा कर रहे थे।दिनकर हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के बिहार के कवियों की गौरवशाली परम्परा की एक सशक्त कड़ी हैं। बिहार के विख्यात कवि विद्यापति से कई अर्थों में दिनकर का साम्य है। विद्यापति प्रेम के कवि थे और उन्हें गंगा से अगाध स्नेह था। दिनकर भी प्रेम को अपने काव्य में यथोचित स्थान देते हैं और गंगा के तीर पर जन्म होने से उन्हें भी गंगा से स्नेह था।बिहार के लिए यह भी कम गौरव की बात नहीं है कि गोपाल सिंह नेपाली और फणीश्वरनाथ रेणु दिनकर के समकालीन थे।नेपाली का जन्म बेतिया में हुआ था। नेपाली की कविताएँ भी चहुंदिस लोकप्रिय हुईं।दूसरी ओर रेणु गद्य विधा में क्रांतिकारी काम कर रहे थे। कालांतर में उसी धरती से नागार्जुन जैसे क्रांतिकारी जनकवि का प्रादुर्भाव हुआ।
दिनकर ने न जाने कितने लोगों को अपनी रचनाओं द्वारा आकर्षित किया होगा। पर ऐसा लगता है कि अभी भी उन्हें पूरी तरह पढ़ा जाना शेष है। अंग्रेजी के प्रति नई पीढ़ी का जो झुकाव है उससे यह पीढ़ी जान ही नहीं पाती कि वह कैसे विपुल रत्न भंडार से वंचित है। सम्भव है आने वाले समय में जब देश सम्पन्न होगा और यहाँ के लोगों में आत्मविश्वास जगेगा कि अपनी भाषा में काम करना ही असली उपलब्धि है तब दिनकर को सभी पढ़ेंगे।दिनकर का रचना संसार बहुत व्यापक है – साठ के आसपास उनकी रचनाएँ हैं जिनमें काव्य के अतिरिक्त पद्य भी है जिसमें निबंध और और गहन विचारों से ओतप्रोत ग्रंथ भी शामिल हैं। उनकी रचनाओं को पढ़ना ही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।क्योंकि अपने देश के महानायकों को जानना और समझना हमारी देशभक्ति का एक हिस्सा है।वह जाति नष्ट हो जाती है जो अपने महनायकों को नहीं पहचानती। हमें गाँवों और शहरों की सड़कों और गलियों के नाम हमारे दिनकर जैसे महनायकों के नाम पर रखने चाहिएँ ताकि बच्चा-बच्चा इनके नाम से परिचित हो और उनमें इन महनायकों के विषय में जानने की उत्कंठा बढ़े।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 फरवरी 2018