पिछले दो महीनों से हम चीन के साथ लद्दाख की गलवान घाटी में उलझे हुए हैं । पर जब तक बात केवल उलझने तक ही सीमित थी, तब तक तो सह्य थी । लेकिन अभी चार दिन पहले दोनों सेनाओं के बीच जमकर हाथपाई हुई और वह भी ऐसी खूनी हाथपाई कि हमारे बीस सैनिकों को अपना सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा । इसलिए अब जब हमारे सैनिकों ने अपना बलिदान दे ही दिया है, तो हमें चीन के विरुद्ध हर वह काम करना चाहिए, जो हम कर सकते हैं । युद्ध का क्षेत्र हो या कोई और विजयी होने के लिए सबसे अधिक ध्यान ज्ञान एवं नीति पर होना चाहिए । अंततः ज्ञान ही जीतता है । ऋग्वेद में वर्णित है — ‘धियो विश्वा विराजति’ । यह ज्ञान ही है, जो विश्व पर राज करता है । अतः हमें अपने इस सूत्र को पकड़े रहना चाहिए । इस प्रकार हमें चीन की दुर्बलताओं की ओर विश्व का ध्यान खींचना चाहिए । इस दिशा में हम इतना लिखें, बोलें और विमर्श करें कि सबका हाथ चीन की कमजोर नसों पर पड़ जाए । फिर चीन की सारी आक्रामकता तिरोहित हो जाएगी । इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि तिब्बत चीन की सबसे बड़ी कमजोरी है और भारत अकेला ऐसा देश है, जो चीन को तिब्बत के कारण पानी पिला-पिला कर मार सकता है ।
तिब्बत का क्षेत्रफल 12 लाख वर्ग किलोमीटर है । यह क्षेत्रफल इतना बड़ा है कि भारत ( 32 लाख वर्ग किलोमीटर ) जैसे विशाल देश के एक-तिहाई क्षेत्रफल से थोड़ा अधिक है । चीन का क्षेत्रफल 96 लाख वर्ग किलोमीटर है, जिसका आठवां भाग केवल तिब्बत का ही है । अपनी विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए चीन ने बड़ी निर्ममता से इतने बड़े देश को अपने में मिला लिया । भारत के कुछ लोगों के अतिशय अंग्रेजी प्रेम के कारण हम तिब्बत की ‘सॉव्रेनटी’ और ‘सूजेरेंटी’ के शब्दजाल में फंसकर कुछ नहीं कर पाए । और तिब्बत को मिलाने के बाद उल्टे चीन ने ही हमारे ऊपर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध की विडंबना यह थी कि भारत की सेना द्वितीय विश्व युद्ध की विजयी सेना का हिस्सा रह चुकी थी, लेकिन नेतृत्व की अदूरदर्शिता के कारण हमने पर्याप्त तैयारी नहीं की और हमारी पराजय हुई । पर सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि युद्ध की समाप्ति के बाद भी चीन पीछे नहीं हटा, वरन भारत के एक बड़े हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया, जो स्थिति आज तक बनी हुई है ।
भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद से ही चीन-पाकिस्तान गठजोड़ कायम हो गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमारी पूरी-की-पूरी उत्तरी और पश्चिमी सीमा पर स्थायी रूप से शत्रु सेना का जमावड़ा हो गया । भारत के पूर्वोत्तर के लगभग सभी पृथकतावादी संगठनों की चीन और पाकिस्तान दोनों ने ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की है । इसलिए आश्चर्य नहीं कि पूर्वोत्तर के तीन दर्जन के आसपास ये सभी पृथकतावादी संगठन वामपंथी विचारधारा को मानते हैं । स्पष्ट है कि ये संगठन चीन से अतिशय लाभान्वित होते हैं ।
पर चीन की महत्तम दुर्बलता यह है कि यह देश घोर अलोकतांत्रिक है और हमें इसके विषय में कुछ भी सही ढंग से पता नहीं चलता । अंग्रेजी मोह के कारण हमने विश्व की अन्य भाषाओं को कोई विशेष महत्व नहीं दिया । आज इसका परिणाम यह है कि हमारे पास गिनती के ही लोग हैं, जो चीनी भाषा बोल और लिख सकते हैं । जबकि हमसे यह अपेक्षित था कि अब तक कई हजार भारतीय चीनी भाषा में प्रवीण होते । और यदि ऐसा होता तो हम उसका साहित्य पढ़कर और चीनी लोगों से सीधे मिलकर उनकी मन:स्थिति का पता लगाते । लेकिन हम बिल्कुल पंगु हो गए हैं । विडंबना यह है कि हम अपने निकटतम पड़ोसी देश के विषय में यह दावा भी नहीं कर सकते कि हम उसके विषय में पश्चिमी देशों से रत्ती भर भी अधिक जानते हैं । बल्कि हो सकता है कि हम उनसे भी कम जानते हों । इसलिए समय आ गया है कि चीनी भाषा पढ़ने के लिए सरकार छात्रों को प्रोत्साहित करे । हो सके, तो सरकार इन छात्रों को छात्रवृत्ति भी दे । चीनी भाषा अत्यंत कठिन भाषा है । इसमें अक्षर नहीं होते, जिनको जोड़कर हम शब्द बनाते हैं । चीनी लिपि चित्रलिपि है । अर्थात शब्द के स्थान पर चित्र है और इन चित्रों की संख्या हजारों में है । इसलिए इस भाषा पर अधिकार प्राप्त करने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है । यह भी एक कारण है जिसके चलते छात्र इस भाषा को सीखने से कतराते हैं ।
तिब्बत विश्व के सर्वाधिक अहिंसक देशों में गिना जाता था । पूरी तरह बौद्ध धर्म का पालन करने के कारण इसके शासन के पास पर्याप्त सेना नहीं होती थी । क्या ऐसे अहिंसा और शांति के पुजारियों को अपनी तरह से जीने का अधिकार नहीं था ? अचानक चीन ने शांतिप्रिय तिब्बत पर आक्रमण कर दिया । पर तिब्बती लोगों की प्रतिक्रिया देखिए कि उन्होंने चीनी अधीनता को अस्वीकार कर दिया और या तो वे चीनी सेना से लड़े या दुर्गम पहाड़ों के बीच होते हुए अत्यंत कठिन परिस्थितियोंमें भारत आए । ये तिब्बती पिछले छः दशकों से अपनी जन्मभूमि से दूर भारत में निर्वासित जीवन जी रहे हैं । विश्व में बहुत कम ऐसे समाज होंगे, जो इस प्रकार अपनी मातृभूमि से वंचित नागरिकताविहीन जीवन जी रहे हों । अब तक इनकी दो पीढ़ियां भारत में ही परलोक सिधार चुकी हैं । अब तो इनमें अधिकतर वे हैं, जिनका जन्म भारत में ही हुआ है । कितना बड़ा त्याग, बलिदान और तपस्या भारत में रह रहे तिब्बती समाज ने की है । अपनी जन्मभूमि को छोड़ने की पीड़ा ये आज तक झेल रहे हैं । शांतिप्रिय जीवन शैली के कारण तिब्बतियों से भारतीय समाज को न्यूनतम कष्ट हुआ है ।
लेकिन यह सब हुआ कैसे ? इसका सबसे सीधा उत्तर यही है कि यह सब तत्कालीन भारत सरकार की नीति के कारण हुआ । इसको जानने के लिए हमें सबसे प्रामाणिक स्रोत अर्थात दलाई लामा के पास जाना होगा । दलाई लामा अपनी आत्मकथा — ‘मेरा देश निकाला’ में लिखते हैं कि, ‘तिब्बत चीन का कभी हिस्सा नहीं रहा था । प्राचीनकाल से चीन के अनेक बड़े-बड़े भागों पर तिब्बत का दावा रहा है । इसके अलावा दोनों देशों के लोग नृजाति और प्रजाति दोनों दृष्टियों से एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं । हम दोनों न एक भाषा बोलते हैं और न तिब्बती भाषा की लिपि चीनी लिपि से जरा भी मिलती है ।’ यही बात बाद में ज्यूरिस्ट्स के अन्तर्राष्ट्रीय आयोग ने भी कही थी :
“सन 1912 में चीनियों को अपने देश से निकालने के विषय में तिब्बत की स्थिति को तथ्यात्मक रूप से स्वतंत्र माना जा सकता है…..इसलिए यह निवेदन किया जाता है कि सन 1911-12 की घटना को पूर्णत: प्रभुसत्तात्मक और तथ्य व कानून की दृष्टियों से चीनी नियंत्रण से पुनः स्वतंत्र हुआ राज्य माना जाए ।” ( पृष्ठ 71 )
वास्तव में सच तो यह है न केवल तिब्बत कभी भी चीन के अधीन नहीं रहा, बल्कि सन 763 में तिब्बत की सेनाओं ने चीन की राजधानी पर ही कब्जा कर लिया था और उन्हें वहां से ‘कर’ तथा अन्य सुविधाएं प्राप्त होती थीं । लेकिन जैसे-जैसे बौद्ध धर्म में उनकी रुचि बढ़ी, उनके अन्य देशों से संबंध राजनीतिक न रहकर आध्यात्मिक होते चले गए । चीन के संबंध में यह बात विशेष रूप से सच थी और उसके साथ तिब्बत के संबंध कुछ ‘पुजारी-संरक्षक’ जैसे हो गए । मंचू सम्राटों ने, जो बौद्ध थे, दलाई लामा को ‘विस्तारशील बौद्ध धर्म का सम्राट’ कहा था । (पृष्ठ 17-20 )
इस सबके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात तो यह है कि चीन और तिब्बत के बीच सदियों पुरानी संधि थी, जिसके अनुसार एक देश कभी भी दूसरे पर आक्रमण नहीं करेगा । दलाई लामा लिखते हैं कि, तिब्बत में जोखांग मंदिर सबसे पवित्र माना जाता है । इसका निर्माण सातवीं शताब्दी में राजा सोंगत्सेन गाम्पो के शासन काल में उसकी एक पत्नी भ्रिकुटी देवी, जो नेपाल की राजकुमारी थी, के द्वारा लाई गई एक प्रतिमा को स्थापित करने के उद्देश्य से किया गया था । इस मंदिर का एक महत्वपूर्ण अंग इसके प्रवेश द्वार पर खड़ा वह पत्थर का स्तंभ है, जो तिब्बत के प्राचीन इतिहास और उसकी शक्ति का परिचायक है । इस पर तिब्बती और चीनी दोनों भाषाओं में सन 821-22 में दोनों देशों के मध्य हुई स्थायी संधि का विवरण खुदा हुआ है, जो इस प्रकार है :
“तिब्बत के महाराज…तथा चीन के महाराज…दोनों का रिश्ता भतीजे और चाचा का है……दोनों ने एक महान संधि की और उसकी पुष्टि की है । सब देवता और मनुष्य इसे जानते हैं और गवाही देते हैं कि यह कभी बदला नहीं जाएगा । इस संधि का विवरण पत्थर के इस स्तंभ पर अंकित किया जा रहा है, जिससे भावी युगों तथा पीढ़ियों को भी इसका ज्ञान हो सके ।” ( पृष्ठ 51 )
इतने सारे साक्ष्यों और प्रमाणों के होते हुए भी चीन की नई-नई कम्युनिस्ट सरकार ने 1950 से ही चोरी-छिपे और धोखे से तिब्बत में अपनी घुसपैठ शुरू कर दी । जब दलाई लामा को इसका आभास हुआ तो उन्होंने सभी महत्वपूर्ण देशों, जिनमें चीन भी शामिल था, के यहां अपने राजदूत भेजे । लेकिन जहां अन्य देशों तक उनके राजदूत पहुंच ही नहीं पाए, वहीं चीन की सरकार ने इन राजदूतों से बलात एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करवा लिए और दलाई लामा की नकली मुद्रा भी उस पर अंकित कर दी । ( देखिए चीनी सरकार की धोखाधड़ी ! ) इस अनुबंध के अनुसार, चीनी अधिकारी और सेना तिब्बत में तिब्बत के लोगों को सहायता पहुंचाने के लिए रहेगी । और दलाई लामा के लिए कहा गया कि चीनी अधिकारी और सेना उनके राज्य में प्रगति कराने का काम करेगी । इसके बाद दलाई लामा को बीजिंग भी बुलाया गया । वहां जाकर उन्हें समझ में आने लगा कि चीनी सरकार वास्तव में क्या चाह रही है । इधर चीनी सेना और तिब्बत के लोगों के बीच आए दिन झड़पें होने लगीं, जो धीरे-धीरे करके तिब्बती लोगों द्वारा चलाए गए स्वाधीनता संग्राम में परिणत हुईं ।
इस बीच एक बौद्ध सम्मेलन में भाग लेने के कारण दलाई लामा भारत आए । उन्हें अन्यान्य कारणों से भारत से सर्वाधिक आशा थी । वह तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिले और अपनी और तिब्बत की पूरी दुखद और पीड़ादायक कथा सुनाई । परंतु नेहरू ने उन्हें किसी भी तरह की सहायता देने से मना कर दिया । ( यहां ध्यातव्य है कि सात समंदर दूर से अमरीका ने तिब्बतियों की यथाशक्ति सहायता की । ) फिर भी दलाई लामा उनसे कई बार मिले और यहां तक कह दिया कि तिब्बत की स्थिति इतनी विस्फोटक है कि मैं स्वयं भी वहां नहीं जाना चाहता और यह भी कि मुझे भारत में ही शरण दीजिए । नेहरू ने उनसे कहा कि मैं आपके लिए चाउ एन लाइ ( तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री ) से बात करूंगा । और संयोगवश कुछ ही दिनों बाद चाउ एन लाइ भारत आए और नेहरू ने दलाई लामा से उनको दिल्ली हवाई अड्डे पर मिलवाया । लेकिन जैसा कि सर्वविदित था चाउ एन लाइ झूठ बोलने में माहिर थे और उन्होंने तिब्बत को लेकर दलाई लामा को आश्वस्त किया कि आप ल्हासा पहुंचिए सब कुछ ठीक हो जाएगा । इसके बाद दलाई लामा के यह मानते हुए भी कि उन्हें चाउ एन लाइ की बात पर भरोसा नहीं है, नेहरू ने उन्हें आश्वस्त किया कि आपको ल्हासा अवश्य जाना चाहिए और यह भी कि मैं स्वयं आपसे मिलने ल्हासा आऊंगा । ( अन्यत्र चीनी लोगों के चरित्र के विषय में दलाई लामा लिखते हैं कि ‘झूठ बोलना तो उनके ( चीनियों ) खून का हिस्सा है । ) वैसे ल्हासा आने के लिए दलाई लामा ने ही नेहरू को निमंत्रण दिया था और उन्हें आशा थी कि एक बार यदि नेहरू स्वयं आकर तिब्बत की स्थिति देख लें, तो संभव है कि चीनी सरकार के व्यवहार में परिवर्तन आए, और नहीं तो, नेहरू के मन में तिब्बतियों के प्रति सहानुभूति अवश्य उत्पन्न होगी ।
इस प्रकार नेहरू के आश्वासन पर दलाई लामा ल्हासा पहुंच गए । पर वहां जाकर तो उन्होंने देखा कि अब तो स्थिति बद से बदतर हो चुकी है । चारों ओर हिंसा ही हिंसा हो रही है । अब दिन-प्रतिदिन दलाई लामा के सामने चीनी सरकार का असली रूप खुलने लगा । दलाई लामा लिखते हैं कि, ‘चीनी नेतृत्व सही अर्थों में मार्क्सवादी नहीं है, जो पूरी दुनिया के लोगों को सुखी जीवन प्रदान करने के लिए समर्पित है, बल्कि यह बड़े प्रबल रूप में राष्ट्रवादी है । सच्चाई यह है कि ये चीनी अंध-देशभक्त तथा संकीर्ण उग्र-राष्ट्रवादी हैं, जो कम्यूनिस्टों के वेश में दुनिया को धोखा दे रहे हैं ।’ फिर भी दलाई लामा नेहरू की प्रतीक्षा करते रहे । पर चीनियों ने नेहरू की यात्रा ही रद्द करवा दी । इस प्रकार दलाई लामा के लिए आशा की जो अंतिम किरण थी, वह भी जाती रही ।
नेहरू को लेकर दलाई लामा लिखते हैं कि, “सबसे बुरी बात यह थी कि हमारे सबसे समीप के पड़ोसी देश तथा धर्म के केंद्र भारत ने चुपचाप तिब्बत पर चीन के दावों को स्वीकार कर लिया था । अप्रैल 1954 में नेहरू जी ने चीन के साथ एक नई चीन-भारत संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसमें पंचशील नामक एक आचार-संहिता थी, जिसके अनुसार यह तय पाया गया था कि भारत तथा चीन किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे के ‘आंतरिक’ मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे ।” ( पृष्ठ 110 ) इस प्रकार जिसे कहते हैं ‘आ बैल मार’ वाली स्थिति भारत ने स्वयं पैदा की । भारत ने बिना कुछ पाए अपने हाथ कटवा लिए । भारत को किसी भी हालत में यह संधि नहीं करनी चाहिए थी । तिब्बत सदा भारत और चीन के बीच का ‘मध्य-स्थित’ ( बफर ) देश रहा था । यहां तक कि अंग्रेजों के समय भी यही स्थिति थी । लेकिन नेहरू की अदूरदर्शिता देखिए कि उन्होंने ऐसी संधि पर हस्ताक्षर किए, जो हमारे लिए मृत्यु के वारंट के समान था । इससे तिब्बत के साथ-साथ हमारा भी अहित भी हुआ ।
दलाई लामा नेहरू के विषय में लिखते हैं कि, “माओ की तुलना में उनमें कम आत्मविश्वास प्रतीत होता था, लेकिन उनके व्यवहार में तानाशाही बिल्कुल नहीं थी । वह देखने से ही ईमानदार लगते थे, इसीलिए बाद में चाउ एन लाइ से धोखा खा गए ।” ( पृष्ठ 123 ) अब बताइए ऐसी ईमानदारी किस काम की कि आप विदेशी मामलों में धोखा खा गए, जबकि आपके पास विदेश, रक्षा और गृह मंत्रालयों के अतिरिक्त पूरा खुफिया विभाग भी तो था । वास्तव में परम पावन दलाई लामा नेहरू के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग करने बच रहे हैं, क्योंकि स्वयं वही बताते हैं कि एक भारतीय समाचार पत्र ने चाउ एन लाइ को ‘च्यु एंड लाइ’ (Chew and Lie) अर्थात ‘चबाओ और झूठ बोलो’ का नाम दिया था । ( पृष्ठ वही ) इस प्रकार जो बात एक समाचार पत्र को पता थी, उससे देश का प्रधानमंत्री अनभिज्ञ था !
इतना ही नहीं, नेहरू ने जिस प्रकार दलाई लामा को वापस ल्हासा जाने को कहा था उस पर संसद में तीखी बहस छिड़ गई थी और नेहरू कटुआलोचना के शिकार हुए थे । पंचशील के दस्तावेज को लेकर तो आचार्य कृपलानी ने यहां तक कह दिया कि यह “पाप से उत्पन्न हुआ है और एक प्राचीन राष्ट्र के विनाश पर हमारी सहमति की मुहर लगाने के लिए तैयार” किया गया है । ( पृष्ठ 153 ) इसलिए सबको सब कुछ पता था । फिर भी नेहरू छले गए । इसे ही कहते हैं कि ‘जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग तो सारा जाने है ।’
उधर तिब्बत में वहां के लोगों को सूली पर चढ़ाना, अंग-अंग काटकर मारना, पेट फाड़कर अंतड़ियां बाहर निकालना, छेद-छेदकर मारना, इत्यादि अत्याचार चरम पर थे । इसी तरह गर्दन उड़ा देना, जलाना, पीट-पीटकर अधमरा करना, जिंदा भट्ठी में झोंक देना, घोड़ों से बांधकर लोगों को घसीटना, जब तक वे मर न जाएं, सूली पर उल्टा लटकाना और बर्फ के पानी में हाथ बांधकर डाल देना आदि सामान्य कार्य थे । इस पीड़ा के बीच लोग ‘दलाई लामा’ की जय’ न बोल सकें, इसलिए उनकी जीभें मांस काटने के नुकीले चाकुओं से निकाल ली जाती थीं । ( पृष्ठ 131 )
अंततोगत्वा जब दलाई लामा के पास कोई विकल्प नहीं बचा, तो उन्होंने मार्च 1959 में भारत आने का निर्णय लिया । अब चूंकि नेहरू को अपने किए पर संभवतः ग्लानि हो रही थी, इसलिए उन्होंने दलाई लामा को शरण दे दी ।
यह प्रकरण तो अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है । परंतु इसी में वह बीजतत्व समाहित है, जिससे हम चीन पर विजय प्राप्त कर सकते है । अब हमें अपनी पुरानी नीति त्यागकर खुल्लम-खुल्ला यह कहना चाहिए कि तिब्बत को मुक्त करो क्योंकि उस पर चीन का अवैध कब्जा है । सरकार से कहीं अधिक इस बात का प्रचार प्रबुद्ध लोगों को करना चाहिए । तिब्बत से एक लाख लोग भारत आए थे । इतनी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा अपने देश को छोड़ना ही इतना बड़ा प्रमाण है कि चीन बचाव में आ सकता है । हमें इस पर लगातार लिखना, विचार-विमर्श करना और इसे ही टीवी तथा समाचार पत्रों का मुख्य विषय बनाना चाहिए । इसी प्रकार हांगकांग में हो रहे आत्याचार को लेकर मानवाधिकार की बात करनी चाहिए । और इसी तरह ताइवान से भी हमें सहानुभूति जतानी चाहिए । चीन की सरकार तानाशाह है, हमें इसका भी जोर-शोर से प्रचार करना चाहिए । ‘हम लोकतांत्रिक हैं इसलिए हम चीन से मानवीय मूल्यों की रक्षा में बहुत आगे हैं’ ऐसा हमें बार-बार कहना चाहिए । हमें इस बात का भी प्रचार करना चाहिए कि चीन के लोग दुनिया के सर्वाधिक त्रस्त लोगों में हैं । उनके पास किसी भी तरह की व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं है । चीन खुफिया तंत्र के आधार पर चलता है और तानाशाही शासन अपनी आलोचना करने वालों को ठिकाने लगाता है । हमारे पास लोकतंत्र नामक एक ऐसा शस्त्र है, जिसकी चीन के पास कोई काट नहीं है । वहां के लोगों की खातिर हमें चीन में लोकतंत्र स्थापित करने की मांग भी करनी चाहिए । चीन की वास्तविक स्थिति के बारे में हमें तिब्बतियों से संपर्क साधना चाहिए, जो अभी भी चीन में रह रहे अपने परिजनों से जुड़े हुए हैं ।
सांस्कृतिक क्रांति या थियानमेन चौक वाली घटनाओं के दौरान चीन ने जिस बड़े पैमाने पर नरसंहार किया है, इन सबकी हमें पर्याप्त चर्चा करनी चाहिए । इससे चीन का मनोबल गिरेगा । अभी वैसे भी चीन से शायद ही कोई देश सहानुभूति रखता हो ! इसलिए यह और भी आवश्यक है कि हम उस पर जोरदार हमला करें । इसके साथ ही हमें पता है कि चीन की सीमाओं से लगे भारत सहित चौदह देश हैं, जिनसे बचते हुए ही चीन हमसे युद्ध करेगा । इस प्रकार उसकी कठिनाइयां कहीं अधिक हैं । हमें याद रखना चाहिए कि युद्ध केवल सीमा पर ही नहीं होता । यह देश के अंदर भी होता है । इसके साथ ही हमें यह भी याद रखना चाहिए कि चीनी सैनिकों ने पिछले चालीस वर्षों में कभी भी अपने शौर्य या पराक्रम का झंडा नहीं गाड़ा है । वह केवल अपनी अधिक संख्या के कारण भारी-भरकम दिखता है । दूसरी ओर, भारत चीन के साथ के युद्ध के बाद से तीन बार पाकिस्तान को हरा चुका है । इसलिए हमारे सैनिक अधिक अभ्यस्त हैं । वैसे भी पाकिस्तान की कृपा से हम रोज ही युद्ध की स्थिति में रहते हैं ।
इसके अलावा चीनी सैनिक इतने साहसी भी नहीं होते । भारत-चीन युद्ध के समय भी ऐसा देखा गया था । दलाई लामा स्वयं एक प्रकरण सुनाते हैं कि एक स्थान पर दो सौ चीनी सैनिक थे जिन पर तिब्बत के मुश्किल से आठ-दस लड़ाकों ने हमला कर दिया । इस पर चीनी सैनिक इस तरह घबरा गए कि अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे । परिणाम यह हुआ कि उन्हीं में से अधिक लोग अपनी ही गोलियों के शिकार हो गए और तिब्बती लड़ाके भागने में भी सफल रहे । ध्यान रहे कि जो जितना अधिक क्रूर और अत्याचारी होता है अंदर से वह उतना ही अधिक कायर होता है । चीनी सैनिकों की एक और समस्या यह है कि उनमें संकल्प का अभाव पाया जाता है । वास्तव में वे भाड़े के सैनिक अधिक होते हैं, न कि अपने देश के लिए मरने-मिटने वाले । दोनों विश्व युद्ध इस बात का प्रमाण है कि लोकतांत्रिक शक्तियां ही विजयी होती हैं।
इसलिए हमें चारों ओर से और हर स्तर पर लड़ाई करनी है, ताकि हम चीन को परास्त कर सकें । अनेक जानकारों का मानना है कि चीन को यदि कोई परास्त कर सकता है, तो वह भारत है और अब हम अपने बीस सैनिकों के बलिदान के बाद चीन को परास्त करना अपना पुनीत कर्तव्य भी समझते हैं । इसलिए जैसा कि प्रसिद्ध कवि चंदवरदाई ने पृथ्वीराज चौहान से कहा था, ‘मत चूको चौहान’, उसी प्रकार कहा जा सकता है कि ‘मत चूको भारत’ ।
सभी बीस वीरगति प्राप्त योद्धाओं को लेखकीय श्रद्धांजलि !
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
29 सितम्बर 2020