पिछले कुछ दिनों से मालदीव के संकट में आ जाने के कारण वहाँ का राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार करके देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। ऐसी स्थिति इसलिए बनी क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक बंदियों – मुख्यतः विपक्षी नेताओं – को रिहा करने का निर्णय किया था। जबकि राष्ट्रपति यामीन ने न्यायाधीशों को ऐसा करने से रोका था। स्पष्ट है कि मालदीव की स्थिति अत्यंत गंभीर बनी हुई है।
मुहम्मद नशीद ने, जो कि मालदीव के एकमात्र निर्वाचित राष्ट्रपति रहे हैं और आजकल निर्वासित जीवन जी रहे हैं, कहा है कि देश में की गई आपातकाल की घोषणा मार्शल लॉ लगाने जैसा है और यह भी कि राष्ट्रपति यामीन द्वारा उठाए गए सारे कदम अवैध व असंवैधानिक हैं। इसलिए मुहम्मद नशीद ने भारत से आग्रह किया है वह इस मामले में हस्तक्षेप करे। नशीद ने मालदीव में बढ़ते कट्टरपंथी तत्वों पर भी लगाम लगाने के लिए भारत से आग्रह किया है। नशीद ने कहा है कि भारत को दो कारणों से यामीन सरकार के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए। ये दो कारण हैं – चीन द्वारा मालदीव की जमीन पर कब्जा करना और मालदीव में बढ़ता इस्लामी कट्टरपंथ। इस्लामी कट्टरपंथ के संबंध में नशीद ने कहा है कि भारत को इसको लेकर चिंतित होना चाहिए क्योंकि मालदीव के जो लड़ाकू सीरिया और इराक से लौट कर आए हैं वे पुलिस और फौज में शामिल हो गए हैं।
इस बीच राष्ट्रपति यामीन ने पहले इस मुद्दे पर बात करने के लिए अपना दूत भारत भेजने की घोषणा की। परंतु बाद में उन्होंने अपने दूत भारत को छोड़कर चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब भेजे। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि चीन ने अपनी राय स्पष्ट की है कि वह किसी भी तरह मालदीव को भारत और चीन के बीच एक और विवाद का विषय नहीं बनने देना चाहता।
यह पहली बार नहीं है जब मालदीव पर संकट आया है। ठीक तीन दशक पूर्व1988 में राजीव गाँधी सरकार के समय भी एक भीषण संकट आया था जब भाड़े के विदेशी सैनिकों ने इस पर आक्रमण कर दिया था। तब वहाँ के तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम ने भारत से मदद माँगी थी। प्रत्युत्तर में भारत की सरकार ने तत्क्षण मदद की। भारत की सेना ने तत्काल जवाबी हमला करके सिर्फ नौ घंटे में ही स्थिति को काबू में किया। भारतीय सेना की इस कार्रवाई को ‘ऑपरेशन कैक्टस’ कहा गया। परंतु इस बार अभी कोई नहीं जानता कि कौन सा देश मालदीव की मदद के लिए आगे आएगा ? या यह भी हो सकता है कि मालदीव स्वयं स्थिति को नियंत्रित करने में सफल हो जाए। वैसे इस बारे में पूर्व राष्ट्रपति नशीद को संदेह है क्योंकि उनका साफ मानना है कि यदि बाहर से हस्तक्षेप नहीं किया गया तो स्थिति और भी बिगड़ जाएगी और अंततः वहाँ विद्रोह हो जाएगा। परंतु यहाँ मूल प्रश्न यह नहीं है कि कैसे मालदीव अपने वर्तमान संकट से उबरता है बल्कि यह कि क्या कारण है कि मालदीव को बार-बार अपने अस्तित्व के संकट का सामना करना पड़ता है ?
इस विषय की गहराई में जाने के लिए आवश्यक है कि हम पूरे दक्षिण एशिया के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर डालें। दक्षेस के आठ सदस्य होने के नाते हम दक्षिण एशिया में आठ देश मानते हैं – अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और मालदीव। इन आठ देशों में चार मुस्लिम बहुल देश हैं और चार गैर-मुस्लिम बहुल। जहाँ चार गैर-मुस्लिम देश लोकतंत्र को स्थापित करने में बहुत हद तक सफल हुए हैं वहीं चारों मुस्लिम-बहुल देशों के लिए लोकतंत्र को स्थापित करना एक चुनौती रही है।
यदि हम पाकिस्तान से शुरू करें तो इस विषय को समझने में आसानी होगी क्योंकि पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा होता था और जहाँ भारत ने एक सफल लोकतांत्रिक देश होने का कीर्तिमान स्थापित किया है। वहीं पाकिस्तान अभी भी लोकतंत्र जैसी किसी व्यवस्था को क़ायम करने में ही जूझ रहा है। अपने सत्तर वर्ष के इतिहास में पाकिस्तान की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही है कि वहाँ अब तक एक बार भी किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री ने अपने पंचवर्षीय कार्यकाल को पूरा नहीं किया है। उससे भी अधिक लोकतंत्र को चोट पहुँचाने वाली बात यह है कि सत्तर वर्ष में फौज तथा निर्वाचित सरकारों ने ठीक आधे-आधे समय के लिए पाकिस्तान पर शासन किया है। बात यहीं पर समाप्त हो जाती तब भी गनीमत थी। पर दुर्भाग्य यह है कि जब कोई निर्वाचित सरकार काम कर रही होती है तब भी कहते हैं कि फौज सर्वशक्तिमान ही रहती है और अप्रत्यक्ष रूप से शासन भी करती है।
बांग्लादेश की हालत 1971 तक वैसी ही थी जैसी पाकिस्तान की क्योंकि तब तक वह पाकिस्तान का हिस्सा था और उसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। 1971 में पाकिस्तान से आजादी मिलने के बाद शेख मुजिब उर रहमान सरकार के मुखिया बने लेकिन 1975 में फौज ने उनकी हत्या कर दी। यह कितनी बड़ी त्रासदी थी कि उस व्यक्ति की हत्या की गयी जिसे ‘राष्ट्रपिता’ और ‘बंगबंधु’ कहा गया।इसके बाद एक से अधिक बार वहाँ फौजी तानाशाह का शासन रहा। कालांतर में लोकतंत्र की बहाली हुई और रुक-रुक कर ही सही पर चुनाव होने लगे। आज चुनी हुई सरकार काम कर भी रही है। लेकिन लोकतंत्र अब तक अपना पैर नहीं जमा पाया है। वहाँ की स्थिति ऐसी है कि सरकार को चुनौती देने वाले ज्यादातर विपक्ष के नेता सलाखों के पीछे हैं। बिना विपक्ष का कैसा लोकतंत्र ! दूसरे, बांग्लादेश इस्लामी अतिवादी तत्वों से भी लगातार दो-चार हो रहा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बांग्लादेश में स्वायत्त संस्थाओं का घोर अभाव है। अभी हाल तक जो मुख्य न्यायाधीश – सुरेन्द्र कुमार सिन्हा – सरकार को अनेक मामलों में उत्तरदायी होने पर विवश करते थे उनसे सरकार ने दबाव डालकर इस्तीफा ले लिया है। ऐसा ही हाल प्रेस की आजादी का है जो सरकार की आलोचना करने का साहस ही नहीं जुटा पाता। कुल मिलाकर एक लोकतांत्रिक देश के रूप में बांग्लादेश का प्रदर्शन निराशाजनक है। आश्चर्य नहीं कि जहाँ फ्रीडम हाउस, जिसने लोकतंत्र को मापने का पैमाना विकसित किया है, पाकिस्तान को 100 में से 43 अंक देता है वहीं बांग्लादेश को देश उससे मामूली ज्यादा यानी सिर्फ 45 अंक देता है। अर्थात लोकतंत्र के पैमाने पर पाकिस्तान और बांग्लादेश में अधिक अंतर नहीं है।
लोकतंत्र को लेकर अफगानिस्तान की स्थिति अत्यंत दयनीय है। अनेक कबीलों या जातियों के वजूद में होने के कारण यहाँ कभी भी ढंग की शांति नहीं रही। अफगानिस्तान शीत युद्ध का अखाड़ा भी रहा। यहाँ तक कि वर्तमान युग में इस पर विदेशी शासन भी क़ायम रहा। अभी हाल यह है कि पिछले 18 वर्षों से अमरीका के नेतृत्व में युद्ध जारी है। संभवत अफगानिस्तान पूरे विश्व में उन चंद देशों में गिना जाएगा जहाँ लम्बे समय से गृह युद्ध चल रहा है। अब तो अटकलें लगाई जा रही हैं कि देश के कितने प्रतिशत हिस्से पर काबुल का नियंत्रण है और कितने पर तालिबान या आइएसआइ का। ज़्यादातर जानकार यह मानते हैं कि 30 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्से पर भी काबुल का शासन नहीं है। ऐसे में कल्पना ही की जा सकती है कि अमरीकी फौज के जाने के बाद वहाँ क्या होगा ! कोई आश्चर्य नहीं कि फ्रीडम हाउस की दृष्टि में यहाँ सबसे कम लोकतंत्र है और इसे 100 में सिर्फ 26 अंक ही मिले हैं।
मालदीव की तो विडम्बना यह है कि यहाँ बारहवीं शताब्दी से, जब इस्लाम का आगमन हुआ, अब तक लगभग तानाशाही ही चली है । पहले सुल्तानों का राज रहा। कालांतर में यहाँ डच और अंग्रेजों ने राज किया। अंग्रेजों से आजादी पाने के बाद भी तानाशाही ही चलती रही है। बहुत बाद में यानी 2008 में पहली बार मुहम्मद नशीद निर्वाचित राष्ट्रपति बने । परंतु उन्हें भी कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया और उनका तख्ता पलट हो गया। अर्थात प्रथम ग्रासे मक्षिका पात:। तब से नशीद अपने नसीब को रो रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि फ्रीडम हाउस ने मालदीव को मात्र 35 अंक ही दिए हैं जो पूरे दक्षिण एशिया में सबसे कम और सिर्फ अफगानिस्तान से थोड़ा अधिक हैं।
दूसरी ओर गैर-मुस्लिम देशों को लें। दक्षिण एशिया के चारों गैर-मुस्लिम देशों में जिस देश को सबसे अधिक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा वह है श्रीलंका। श्रीलंका तीन दशकों से भी अधिक समय तक जातीय संघर्ष या गृह युद्ध का शिकार रहा। इस पर तरह तरह के संकट आए। लेकिन कभी भी सत्ता फौज के हाथ नहीं गयी। जबकि स्थिति फौजी शासन के अनुकूल बनी हुई थी। फ्रीडम हाउस श्रीलंका को 100 में 55 अंक देता है जो संतोषजनक है।
लगभग दो दशक हुए नेपाल ने राजतंत्र को समाप्त कर लोकतंत्र की स्थापना की। पर नेपाल को भी अनेक तरह के राजनीतिक संकटों का सामना करना पड़ा। यहाँ राजनीतिक स्थिरता एक चुनौती बनी रही। फिर भी फौज के हाथ सत्ता नहीं गयी। अभी हाल के चुनाव ने साबित कर दिया है कि वहाँ के लोकतंत्र की जड़ें गहरी होती जा रही हैं। नेपाल अपना संविधान लिखने में भी सफल हुआ है । सबसे सुखद बात तो यह है कि अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए अपने लोकतंत्र को बरकरार रखने के लिए फ्रीडम हाउस ने इसे भी 100 में 55 अंक दिए हैं। नेपाल के लिए यह बहुत बड़ी सफलता है क्योंकि अफगानिस्तान के बाद यह इस क्षेत्र का सबसे निर्धन देश है।
भूटान की तो बात ही निराली है क्योंकि वहाँ राजतंत्र के समय में भी किसी भी तरह का कोई उपद्रव नहीं हुआ। यह देश शांतिप्रिय रहा है। फिर भी वहाँ लोकतंत्र की स्थापना हुई और अब तो दो बार सफलतापूर्वक चुनाव कराकर भूटान ने लोकतंत्र चलाने का कीर्तिमान स्थापित कर लिया है। इसके उत्तम प्रदर्शन को देखते हुए फ्रीडम हाउस ने भूटान को भी 55 अंक दिए हैं। किसी भी देश के लिए यह बड़े गर्व की बात होगी कि उसके लोकतंत्र को उसके शैशव काल में ही इस प्रकार सराहा जाए।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, तो हम जानते हैं कि भारत जापान और इस्राइल के साथ एशिया के तीन सबसे पुराने लोकतांत्रिक देशों में है। इसको विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का भी गौरव प्राप्त है। यहाँ लोकतंत्र लोगों का एक स्वभाव है। दो वर्ष से भी कम समय के लिए जब यहाँ आपातकाल रहा, जो किसी भी तरह फौजी शासन नहीं था, तब भी जनता ने उसे बर्दाश्त नहीं किया और देशव्यापी आंदोलन चले। लाखों लोग जेल गए। अंततः चुनाव हुए और चुनी हुई सरकार फिर से काम करने लगी। यह ऐसा सबक बन गया कि शायद ही कोई सरकार आपातकाल के बारे में सोचने की हिम्मत जुटा पाएगी। फिर भी लोकतंत्र को लेकर और सुधार की गुंजाइश रहती है। आशा की जा सकती है कि शिक्षा के उत्तरोत्तर प्रसार से लोकतंत्र और गहरा होगा। परंतु भारत का लोकतांत्रिक प्रदर्शन इस अर्थ में बहुत महत्वपूर्ण है कि किसी भी विकासशील देश का प्रदर्शन इतना शानदार नहीं रहा है। बड़े गर्व की बात है कि फ्रीडम हाउस भारत को 77 अंक देता है। यदि अमरीका से हम तुलना करते है तो पाते हैं कि दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में गिना जाने वाला और अति शिक्षित देश फ्रीडम हाउस द्वारा दिए गए 86 अंक से भारत बहुत दूर नहीं है। भारत की उपलब्धि इस अर्थ में और भी प्रशंसनीय इसलिए हो जाती है कि जहाँ अमरीका में अठारहवीं शताब्दी से ही लोकतंत्र कार्यरत है वहाँ भारत के लोकतंत्र ने अभी सिर्फ सात दशक ही देखे हैं।
इसलिए प्रश्न उठता है कि मुस्लिम बहुल और गैर-मुस्लिम बहुल देशों के स्वभाव में इतना अंतर क्यों है ? इसका पहला कारण तो यह हो सकता है कि लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए लोगों में यह भाव होना चाहिए कि उनके पास इसके अलावा कोई और रास्ता ही नहीं है। यदि जनता लोकतंत्र को सर्वोपरि मान ले तो कोई कारण नहीं कि कोई इसकी अनदेखी करे। इसके बावजूद लोकतंत्र के लिए स्वायत्त संस्थाओं का होना बहुत मायने रखता है। इन संस्थाओं में न्यायपालिका, कार्यकारिणी, चुनाव आयोग, प्रेस या मीडिया आदि प्रमुख हैं। संस्थाओं के मूल में है प्रतिभा को उचित महत्व व सम्मान देना। और इसके लिए आवश्यक है प्रतिभा चयन प्रक्रिया का स्वायत्त होना। लोकतंत्र असल में उतना ही सशक्त होता है जितनी कि ये संस्थाएँ।
पर फिर प्रश्न यह उठ सकता है कि ऐसा क्यों है कि एक देश में संस्थाएँ मजबूती से काम कर लेती हैं लेकिन दूसरे में नहीं ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि आख़िर उस देश की जनता चाहती क्या है ? अर्थात जनता की प्राथमिकताएँ क्या हैं ? आम तौर पर हम देखते हैं कि मुस्लिम देशों की प्राथमिकताएँ अलग होती हैं। वहाँ धार्मिक बातों को कहीं अधिक महत्व दिया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप शासक वर्ग मान लेता है कि यदि लोकतंत्र से समझौता हो भी जाए तब भी जनता उसे बर्दाश्त कर लेगी। पाकिस्तान में इस्लाम से जुड़ा कोई न कोई मुद्दा सबसे ऊपर रहता है। उदाहरण के लिए कश्मीर को ही लें। पाकिस्तान अच्छी तरह जानता है कि वह कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकता। परंतु इस मुद्दे को जिंदा रखने से उसके कहीं अधिक महत्वपूर्ण मुद्दे पीछे छूट जाते हैं जिनमें लोकतंत्र भी शामिल होता है। जुल्फ़िकार अली भुट्टो का यह जुमला प्रसिद्ध है कि चाहे हमें दो हजार साल लड़ना पड़े पर हम कश्मीर लेकर रहेंगे।
लोकतंत्र के लिए समाज का धर्म निरपेक्ष या सेक्युलर होना अपरिहार्य माना जाता है। पर दुर्भाग्य यह है कि इसमें इस्लाम आड़े आता है। कुल मिलाकर मुस्लिम अपना बहुमूल्य समय और ऊर्जा इस्लामी विषयों पर ही व्यय करते हैं। इसीलिए सारे तो नहीं लेकिन बहुत सारे मुस्लिम आधुनिकता, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र से संघर्ष करते हुए दिखते हैं। यह अकारण नहीं है कि पूरे विश्व में पचास से भी अधिक मुस्लिम-बहुल देश या तो बिल्कुल अलोकतांत्रिक हैं या फिर सीमित या अत्यंत सीमित रूप से लोकतांत्रिक। चूँकि विश्व की एक चौथाई आबादी मुस्लिम है इसलिए पूरा विश्व तब तक लोकतांत्रिक नहीं बन सकता जब तक कि सारे मुस्लिम बहुल देश लोकतांत्रिक नहीं बन जाते।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं
12 फरवरी, 2018