अलि घिर आए घन पावस के
लख ये काले-काले बादल
नील सिंधु में खिले कमल दल
हरित ज्योति चपला अति चंचल
सौरभ के रस के ।
द्रुम समीर कंपित थर-थर-थर
झरती धाराएँ झर-झर-झर
जगती के प्राणों में स्मर शर
बेध गए कस के ।
हरियाली ने अलि हर ली श्री
अखिल विश्व के नवयौवन की
मंद गंध कुसुमों में लिख दी
लिपि जय की हंस के ।
छोड़ गए गृह जब से प्रियतम
बीते कितने दृश्य मनोरम
क्या मैं ऐसी ही हूँ अक्षम
जो न रहे बस के ।
-सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
आकाशवाणी के कानपुर केंद्र पर वर्ष १९९३ से उद्घोषक के रूप में सेवाएं प्रदान कर रहा हूँ. रेडियो के दैनिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त अब तक कई रेडियो नाटक एवं कार्यक्रम श्रृंखला लिखने का अवसर प्राप्त हो चुका है. D