प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में पुत्र की कामना करता है क्योंकि हमारे धर्म शास्त्रों के लिखा है :--
*अपुत्रस्तो गतिर्नास्ति*
*अर्थात्:-* बिना पुत्र के सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती ! *पुत्र का क्या कार्य है ?* यह बताते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं :--
*"पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्र:'*
*अर्थात:-* नर्क से जो रक्षा करता है *वही पुत्र है* ! सामान्यत: जीव से इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते रहते हैं ! पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नर्क | नर्क में पापी को घोर यातना भोगनी पड़ती है | स्वर्ग - नरक भोगने के बाद जीव पुनः अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है | पुण्यात्मा मनुष्य योनि अथवा देवयोनि को प्राप्त करते हैं और पापात्मा पशु-पक्षी , कीट - पतंगा आदि तिर्यक योनि को प्राप्त करते हैं | अतः अपने शास्त्रों के अनुसार पुत्र - पौत्रादिकों का यह कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त *श्रद्धा पूर्वक* कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके | इसीलिए भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म में *पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए* अपने माता-पिता तथा परिवार के मृतक प्राणियों के निमित्त *श्राद्ध* करने की अनिवार्य आवश्यकता बताई गई है | *श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहते हैं* | पितृकर्म का तात्पर्य है पितृ पूजा से | एक बात विशेष ध्यान रखना चाहिए पितृकार्य में या *श्राद्ध* करते समय वाक्य की शुद्धता तथा क्रिया की शुद्धता मुख्य रूप से आवश्यक है | क्योंकि :--
*पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता*
*अर्थात:-* पितृ वाक्य और क्रिया शुद्ध होने पर ही पूजा स्वीकार करते हैं जबकि देवता भावना शुद्ध होने पर | क्रिया तथा वाक्य में कोई त्रुटि हो जाए तो भी वह प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तों की पूजा स्वीकार कर लेते हैं | अत: *पितृकार्य* में देव कार्य की अपेक्षा अधिक सावधानी की आवश्यकता है | तभी *श्राद्ध* करना सफल हो सकता है | कुछ अनभिज्ञ यह भी पूछते रहते हैं कि *श्राद्ध क्या है ?* वे भी ध्यान दें :--
*"श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्"*
*अर्थात:-* पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म किये जाते हैं उसे ही *श्राद्ध* कहा जाता है ! श्रद्धा शब्द से ही *श्राद्ध* की निष्पत्ति होती है ! यथा:--
*श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्*
*श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्*
*श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्*
एवं
*श्रद्धया इदं श्राद्धम्*
*अर्थात्:-* अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाले कर्मविशेष को *श्राद्ध* शब्द के नाम से जाना जाता है | इसे ही *पितृयज्ञ* भी कहते हैं जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों पुराणों में मिलता है !
*देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् !*
*तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छ्राद्धया युतम् !!*
*-: कूर्मपुराण :-*
*अर्थात्:-* देश , काल , तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाता है ! *वही श्राद्ध है |*
*संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधुघृतान्वितम् !*
*श्रद्धया दीयते यल्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते !!*
*-: कूर्मपुराण :-*
*अर्थात्:-* जिस कर्म विशेष में दुग्ध , घृत , मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय ! *उसे श्राद्ध कहते है !*
*देशे काले च पात्रे श्रद्धया विधिना च यत् !*
*पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् !!*
*-: ब्रह्मपुराण :-*
*अर्थात्:-* देश , काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाय *उसे श्राद्ध कहते हैं |*
*क्रमश: :--*