अपने पितरों को तृप्त करने के लिए *श्राद्ध* कैसे किया जाय ? यह विचार मन में उठता है ! सनातन धर्म में *श्राद्ध* की दो प्रक्रिया बताई गई :- *१ - पिंडदान और २ - ब्राह्मण भोजन !* मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वह मंत्रों के द्वारा बुलाए जाने पर उन - उन लोकों से तत्क्षण *श्राद्धदेश* में आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं | सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है | वे तृप्त हो जाते हैं | ब्राह्मण को भोजन कराने से पितरों को प्राप्त हो जाता है इसका प्रमाण वेदों में मिलता है :--
*"इममोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम्"*
*-: अथर्ववेद :-*
*(इमम् ओदनम्)* अर्थात् इस ओदनोपलक्षित भोजन को *(ब्राह्मणेषु नि दधे)* ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ ! *भोजन के लिए ब्रह्माण ही क्यों ?* इसकी पुष्टि करते हुए हमारे शास्त्र बताते हैं :-
*यस्यास्येन् सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकस: !*
*कव्यानि चैव पितर: किं भूतमधिकं तत: !!*
*-: मनु स्मृति :-*
*अर्थात:-* ब्राम्हण के मुख से देवता हव्य और पितर कव्य को खाते हैं | पितरों के लिए लिखा है कि यह अपने कर्मवश अंतरिक्ष में वायवीय शरीर धारण करके रहते और :--
*तस्य ते पितर: श्रुत्वा श्राद्धकालमुपस्थितम् !*
*अन्योन्यं मनसा ध्यात्वा सम्पतन्ति मनोजवा: !!*
*ब्राह्मणैस्ते सहाश्नन्ति पितरो ह्यान्तरिक्षगा: !*
*वायुभूतास्तु तिष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम् !!*
*-: कूर्मपुराण :-*
*अर्थात् :-* अन्तरिक्ष में रहने वाले इन पितरों को *श्राद्धकाल आ गया है* यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है ! ये *मनोजव* होते हैं अर्थात् इन पितरों की गति मन की गति तरह होती है ! ये स्मरण से ही *श्राद्धदेश* में आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं ! इनको सब लोग इसलिए नहीं देख पाते हैं कि इनका शरीर वायवीय है |
ब्राह्मण को इस धरती का देवता कहा गया है :-
*दैवाधीना जगत्सर्व: मन्त्राधीना च देवता !*
*ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीना तस्माद्ब्राह्मण देवता !"*
सभी देवता एवं पितर गुप्तरूप से ब्राह्मण में निवास करते हैं ! प्राणवायु की भाँति उनके चलते समय चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं :---
*निमन्त्रितान् हि पितर उपतिष्ठन्ति तान् द्विजान् !*
*वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते !!*
*-: मनुस्मृति :-*
*अर्थात्:-* *श्राद्धकाल* में निमन्त्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप में या वायुरूप में पितर आते हैं और उन ब्राह्मणों के साथ ही बैठकर भोजन करते हैं ! मृत्यु के पश्चात् पितर सूक्ष्म शरीरधारी होते हैं , इसलिए उनको कोई देख नहीं पाता !
*"तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्य:"*
*-: शतपथ ब्राह्मण :-*
*अर्थात्:-* सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यों में छिपे होते हैं ! अतएव सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ये जल , अग्नि तथा वायुप्रधान होते हैं , इसीलिए इनको कोई देख भी देख नहीं पाता और इन्हें लोक लोकान्तरों में आने - जाने में कोई रुकावट नहीं होती !
अपने पितरों के लिए किये गये *श्राद्ध* को सफल बनाने एवं पितरों तक पहुँचाने का माध्यम ब्राह्मण ही है अत: ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा रखते हुए *श्राद्धकर्म* करना चाहिए !