समाज में *श्राद्ध* को लेकर एक भ्रांति फैली हुई है कि इसे बड़े पुत्र या छोटे पुत्र को ही करना चाहिए | यह मात्र भ्रम की स्थिति हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि *श्राद्ध* करने का अधिकार किसे है:---
*मृते पितरि पुत्रेण क्रिया कार्या विधानत: !*
*बहव: स्युर्यदा पुत्रा: पितुरेकत्रवासिन: !!*
*सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्टेनैव तु यत्कृतम् !*
*द्रव्येण चाविभक्तेन सप्वैरेन कृतं भवेत् !!*
*-:वीरमित्रोदय:-*
*अर्थात्:-* पिता का *श्राद्ध* करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है | कई पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह तक सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिए | विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है | यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक *श्राद्ध* ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा ही एक ही जगह संपन्न हो सकता है | यदि पुत्र अलग-अलग हों और अपने पिता की संपत्तियों में बंटवारा कर लिया हो तो सभी भाइयों को अपने पिता के लिए *वार्षिक श्राद्ध अलग अलग करना चाहिए !*
यदि किसी के पुत्र ना हो तो शास्त्रों में *श्राद्ध अधिकार* के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं प्राप्त है:--
*पुत्र: पौत्रश्च तत्पुत्र: पुत्रिकापुत्र एव च !*
*पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा !!*
*भगिनी भागिनेयश्च सपिण्ड: सोदकस्तथा !*
*असन्निधाने पूर्वेषैमुत्तरे पिण्डदा: स्मृता: !!*
*-: स्मृतिसंग्रह :-*
*अर्थात्:-* हमारे धर्म शास्त्रों में पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , दौहित्र (पुत्री का पुत्र) , पत्नी , भाई , भतीजा , पिता - माता , पुत्रवधू , बहन , भांजा , सपिंड एवं सोदक को *श्राद्ध* करने का अधिकार प्राप्त है *सबसे पहले यह जान लिया जाए कि सपिण्ड , सोदक , सगोत्र आदि क्या है ?*
*सपिण्ड:--- मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यन्तं सपिण्डा:*
अर्थात् :- स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक *सपिण्ड* मानना चाहिए !
*सोदक :- अष्टममारभ्य चतुर्दशपुरुषपर्यन्तं सोदका:*
अर्थात्:- आठवीं से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक *सोदक* कहा गया है !
*सगोत्र :- पञ्चदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:*
अर्थात्:- पन्द्रहवीं पीढ़ी से लेकर इक्कीसवीं पीढ़ी तक *सगोत्री* मानना चाहिए !
और श्राद्ध कौन कर सकता है इसका निर्देश भी हमें शास्त्रों में मिलता है :-
*पुत्र पौत्र प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्तति: !*
*सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते !!*
*तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्तति: !*
*मातृपक्षसपिण्डेन् सम्बद्धा ये जलेन वा !!*
*कुलद्वये$पि चोच्छिन्ने स्त्रीभि: कार्या: क्रिया नृप !!*
*संघ्गातान्तगतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया: !*
*उत्सन्नबन्धुरिक्थीद्वा कारयेदवनीपति: !!*
*-: विष्णु पुराण :-*
*अर्थात्:-* पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , भाई , भतीजा अथवा अपनी सपिंड संतति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही *श्राद्ध आदि क्रिया करने का अधिकारी होता है !* यदि इनका सबका अभाव हो तो सामानोदक की संतति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा सामानोदक को इसका अधिकार है | यदि मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर कोई ना बचा हो तो स्त्री ही इस क्रिया को करें | यदि स्त्री भी ना बची हो तो मित्रों में से कोई ऐसा कर सकता है | यदि मित्र भी *श्राद्ध क्रिया* करने को तैयार ना हो तो बांधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके संपूर्ण *प्रेतकर्म एवं श्राद्ध आदि* कर्म निष्पादित करें | क्योंकि कहा गया है :-
*"पिता हि सर्वभूतानां राजा भवति सर्वदा"*
*-: वाल्मीकि रामायण :-*
राजा अपनी प्रजा के लिए पिता के समान होता है इसलिए किसी के ना होने पर राजा को *श्राद्धकर्म* कर देना चाहिए | इसके अतिरिक्त और भी विधान हमारे शास्त्रों में देखने को मिलते हैं:-
*पितु: पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया !*
*पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पत्न्यभावे तु सोदर: !!*
*-: हेमाद्रि :-*
*अर्थात :-* पिता के पिंडदान आदि की संपूर्ण क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिए | यदि पुत्र ना हो तो पुत्र के अभाव में पत्नी करे और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को *श्राद्ध* संपन्न कर देना चाहिए | कहने का तात्पर्य है कि मृतक की *अंतिम क्रिया , एवं श्राद्ध , वार्षिक श्राद्ध आदि अवश्य होना चाहिए !* बिना *श्राद्ध* के मृतात्मा को शांति नहीं मिल सकती | इसलिए किसी न किसी प्रकार *श्राद्धादि* संपन्न करते रहना चाहिए