प्राय: एक प्रश्न उठता है कि स्त्रियों तथा अनुपीत द्विज अर्थात जिन्होंने यज्ञोपवीत नहीं लिया एवं द्विजेतर उनका *श्राद्ध कैसे किया जाय ?* ऐसे लोगों के *श्राद्ध* की व्यवस्था भी हमारे शास्त्रों में बताई गई है | कुछ बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है | जैसे:- ऐसे लोगों के लिए *श्राद्ध* करते समय संकल्प में *प्रणव अर्थात *ॐ* के स्थान पर *नमः* का उच्चारण करना चाहिए | *श्राद्ध* में संकल्प का बड़ा महत्व होता है नाम एवं गोत्र का उच्चारण करने के बाद:--
*शर्मेति ब्राह्मणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् !*
*गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयो: !!*
*-: विष्णुपुराण :-*
*अर्थात्:-* शर्मा /वर्मा /गुप्तो$हम् के स्थान पर दासो$हम् बोलना चाहिए तथा गोत्र में कश्यप गोत्र कहना चाहिए | यदि स्त्री करे तो अमुकी देवी कहे | जहां वैदिक मंत्र हैं उनका उच्चारण नहीं करना चाहिए उनके स्थान पर जो क्रिया की जा रही है उसका उच्चारण अर्थात नाम मंत्र से ही वह क्रिया संपन्न करा देनी चाहिए एक विशेष बात:--
*स्त्रीशूद्राणां श्राद्धं मन्त्रवर्ज्यं तूष्णीं भवति !*
*स्त्रीणाममन्त्रकं श्राद्धं तथा शूद्रासुतस्य च !*
*प्राग्द्विजाश्च व्रतादेशात्ते च कुर्यास्तथैव तत् !!*
*-: निर्णयसिन्धु :-*
*अर्थात्:-* स्त्री एवं सूत्र के लिए जहां पर वैकल्पिक पौराणिक मंत्र ना हो वहां अमंत्रक सभी क्रियाएं होंगी अर्थात बिना मंत्र बोले *श्राद्ध* की संपूर्ण क्रिया संपन्न होगी | ऐसे *श्राद्ध* में पक्वान्न के स्थान पर *आमान्न श्राद्ध* करना चाहिए | *पिंडदान* आदि का कार्य भी अमान्न अर्थात जौ के अथवा चावल के आटे से करने की विधि है , तथा *ब्राह्मण भोजन में भी अमान्न अर्थात कच्चा अन्न ब्राह्मण को देने से प्रक्रिया पूरी हो जाती है |* शास्त्रों के अनुसार इस प्रक्रिया से किया गया *श्राद्ध* पूरा फल देता है | कहने का तात्पर्य है कि किसी न किसी विधि से सबका ही *श्राद्ध* होना ही चाहिए | बिना *श्राद्ध* किए मृतक के परिजन सुखी व संपन्न नहीं रह सकते क्योंकि सुखी व संपन्न रहने के लिए देवताओं से अधिक अपने पितरों की कृपा की आवश्यकता होती है | जिसके पितर संतुष्ट हैं वह जीवन में समस्त ऐश्वर्यों का भोग करके समस्त संपत्तियों को प्राप्त कर लेता है |
*-: कुछ विशेष बात :-*
👉 *२ वर्ष के बालक का कोई श्राद्ध तथा तिलांजलि आदि क्रिया करने की आवश्यकता नहीं है |*
*👉 २ वर्ष पूर्ण हो जाने पर ६ वर्ष के पूर्व तक केवल श्राद्ध की पूर्व क्रिया अर्थात मलिनषोडशी तक की क्रिया करनी चाहिए | इसके बाद की अर्थात एकादशाह , द्वादशाह या वार्षिक श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं है |*
*👉 ६ वर्ष के बाद श्राद्ध की संपूर्ण क्रिया अर्थात मलिनषोडशी , एकादशाह तथा सपिंडन आदि सभी क्रियाएं करने के साथ ही वार्षिक श्राद्ध भी करना चाहिए |*
यह तो रहा बालक के श्राद्ध के लिए निर्देश , इसके अतिरिक्त कन्याओं के लिए निर्देश हमारे शास्त्रों में प्राप्त होता है |
*असमाप्तषड्वर्षस्य मृतस्य पूर्वक्रियामात्रम् !!*
*असमाप्तद्विवर्षस्य पूर्वक्रिया$पि नास्ति !*
*तत ऊर्ध्वं विवाहात्पूर्वं पूर्वक्रियामात्रम् !!*
*ऊढायास्तु त्रिविधा$पि क्रिया !!*
*-: श्राद्धविवेक :-*
*अर्थात्:-* कन्या का २ वर्ष से लेकर विवाह के पूर्व (अर्थात १० वर्ष ) तक पूर्व किया अर्थात मलिनषोडशी तक की क्रिया करनी चाहिए | तथा विवाह के अनंतर संपूर्ण क्रिया अर्थात मलिनषोडशी एकादशाह तथा सपिंडन आदि क्रियाएं करनी चाहिए |
पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक होता है जब वह अपने पिता एवं पितरों के लिए विधिवत श्रद्धापूर्वक *श्राद्धादि* सम्पन्न करता है | हमारे पुराणों के अनुसार पुत्र के निम्न लक्षण हैं :---
*जीवतो वाक्यकरणात् क्षयाहे भूरिभोजनात् !*
*गयायां पिण्डदानाच्च त्रिभिर्पुत्रस्य पुत्रता !!*
*-: श्रीमद्देवीभागवत :-*
*अर्थात्:-* जीवनपर्यन्त माता - पिता की आज्ञा का पालन करने , *श्राद्ध* में खूब भोजन कराने और गया तीर्थ में पितरों का पिण्डदान अथवा *गया में श्राद्ध* करने वाले पुत्र का पुत्रत्व सार्थक है |