आज के वर्तमान समय में अधिकांश मनुष्य *श्राद्ध* को व्यर्थ समझकर उसे नहीं करते जो लोग *श्राद्ध* करते भी हैं उनमें से *कुछ तो यथाविधि नियमानुसार श्रद्धा के साथ करते हैं किंतु अधिकांश लोग इसे एक रस्म मानकर दिखावा करते हुए इस कर्मकांड को भार समझकर निपटाते हैं |* जबकि श्रद्धा भक्ति द्वारा शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ *श्राद्ध* ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है | इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति श्रद्धा पूर्वक शास्त्र विधि से समस्त *श्राद्धों* को यथा समय करता रहे | जो लोग शास्त्रोंक्त समस्त *श्राद्धों* को न कर सके उन्हें कम से कम *छयाह , वार्षिक तिथि पर तथा आश्विन मास के पितृपक्ष में तो अवश्य ही अपने मृतक पितृगण के मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए |* पितृपक्ष के साथ पितरों का विशेष संबंध रहता है | भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से पितरों का दिन प्रारंभ हो जाता है जो अमावस्या तक रहता है शुक्लपक्ष पितरों की रात्रि कही गई है :-
*पित्र्ये रात्र्यहनी मास: प्रविभागस्तु पक्षयो: !*
*कर्मचेष्टास्वह: कृष्ण: शुक्ल: स्वप्नाय शर्वरी !!*
*-: मनु स्मृति :-*
*अर्थात :-* मनुष्य के एक मास के बराबर पितरों का एक अहोरात्र अर्थात दिन-रात होता है | मास में दो पक्ष होते हैं | मनुष्यों का कृष्ण पक्ष पितरों के कर्म का दिन और शुक्ल पक्ष पितरों के सोने के लिए रात होती है | यही कारण है कि आश्विनमास के कृष्णपक्ष (पितृपक्ष) में *पितृ श्राद्ध* करने का विधान है | ऐसा करने से पितरों को प्रतिदिन भोजन मिल जाता है *इसलिए शास्त्रों में पितृपक्ष में श्राद्ध करने की विशेष महिमा* लिखी गई है :-
*पुत्रानायुस्तथा$$रोग्यमैश्वर्यमतुलं तथा !*
*प्राप्नोति पञ्चेमान् कृत्वा श्राद्धं कामांश्च पुष्कलान् !!*
*अर्थात :-* पितृपक्ष में *श्राद्ध* करने से पुत्र , आयु , आरोग्य , अतुल ऐश्वर्य और अभिलिषित वस्तुओं की प्राप्ति होती है | सामान्य रूप से कम से कम वर्ष में दो बार *श्राद्ध* करना अनिवार्य है | *इसके अतिरिक्त अमावस्या , व्यतिपात , संक्रांति , पर्व की तिथियों में भी श्राद्ध करने की विधि है |* जो दो बार बताया गया है उसने प्रथम है तिथि अर्थात जिस दिन व्यक्ति की मृत्यु होती है उस पर *वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए |* शास्त्रों में छयतिथि पर *एकोद्दिष्ट श्राद्ध* का विधान है | (कुछ स्थानों पर *पार्वण श्राद्ध* भी किया जाता है | *एकोद्दिष्ट* का तात्पर्य है कि केवल मृत व्यक्ति के निमित्त एक पिंड का दान तथा कम से कम एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाए और अधिक से अधिक तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है | पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथी आए उस तिथि पर मुख्य रूप से *पार्वण श्राद्ध* करने का विधान है | यथासंभव पिता की मृत्यु की तिथि पर इसे अवश्य करना चाहिए | *पार्वण श्राद्ध* पिता , पितामह (दादा) , प्रपितामह (परदादा) सपत्नीक अर्थात माता , दादी और परदादी इस प्रकार तीन चट में छह व्यक्तियों का *श्राद्ध* होता है | इसके साथ ही मातुल पक्ष मे मातामह (नाना) प्रमातामह (परनाना) वृद्धप्रमातामह (वृद्ध परनाना) सपत्नीक अर्थात नानी , परनानी और वृद्ध परनानी यहां भी तीन चट में छह लोगों का *श्राद्ध* संपन्न होगा | इसके अतिरिक्त एक और चट लगाया जाता है जिस पर अपने निकटतम संबंधियों के निमित्त व पिंडदान किया जाता है | इसके अतिरिक्त दो विश्वेदेव के चट लगते हैं | इस तरह नौ चट लगाकर *पार्वण श्राद्ध* संपन्न होता है | *पार्वण श्राद्ध* में नौ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए | यदि कम करना हो तो तीन ब्राह्मणों को भोजन कराया जा सकता है | यदि अच्छे ब्राह्मण उपलब्ध न हो तो कम से कम एक संध्यावंदन आदि करने वाले सात्त्विक ब्राह्मण को भोजन अवश्य कराना चाहिए |
*क्रमश:---*