*श्राद्ध* करने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है ! आज की आधुनिकता की चकाचौंध में तो और भी आवश्यक है धन का होना ! परंतु धन की स्थिति सदैव सबकी एक समान नहीं होती ! कभी-कभी धन का अभाव भी हो जाता है और *श्राद्ध* करना भी अनिवार्य है ऐसी परिस्थिति में मनुष्य चिंतित हो जाता है कि *श्राद्ध* कैसे किया जाय | सनातन धर्म ने प्रत्येक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए नियम बनाए हैं इस दृष्टि से शास्त्रों ने धन के अनुपात से *श्राद्ध* करने की कुछ व्यवस्थाएं की हैं जैसे:--
*तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथाविधि*
*अर्थात:-* यदि अन्न - वस्त्र के खरीदने में धन का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक आदि से *श्राद्ध* कर देना चाहिए | यदि शाक खरीदने के भी पैसे ना हो तो भी विशेष व्यवस्था बताई गई है:-
*तृणकाष्ठार्जनं कृत्वा प्रार्थयित्वा वराटकम् !*
*करोति पितृकार्याणि ततो लक्षगुणं भवेत् !!*
*-: पद्मपुराण :-*
*अर्थात:-* शाक खरीदने के लिए भी पैसे ना होने की स्थिति में *श्राद्ध* करने के लिए बतााया गया है कि तृण अर्थात् घास काष्छ अर्थात लकड़ी आदि को बेचकर पैसे इकट्ठा करें और उन पैसों से शाक खरीद कर *श्राद्ध* करें | अधिक श्रम से यह श्राद्ध* किया गया है अतः यह लाख गुना फल देने वाला होता है | देश विशेष और काल विशेष के कारण कभी-कभी लकड़ियां भी नहीं मिलती ऐसी परिस्थिति में शास्त्रों ने बताया है कि *घास से श्राद्ध* हो सकता है | घास से भला *श्राद्ध* कैसे हो सकता है ? इसके विषय में बताया गया है कि *श्राद्ध* के दिन यदि कुछ भी ना हो तो घास काट कर गाय को खिला दे | उससे उसको *श्राद्ध* का फल मिल जाएगा *पद्मपुराण के अंतर्गत एक कथा आती है कि:-* एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यंत ग्रस्त था उसके पास इतना पैसा नहीं था कि वह शाक खरीद पाए इस तरह शाक से भी *श्राद्ध* करने की स्थिति में वह नहीं था | आज ही *श्राद्ध* की तिथि थी *कुतप काल* भी आ पहुंचा था | इस काल के बीतने पर *श्राद्ध* नहीं हो सकता था | वह बेचारा घबरा कर रोने लगा कि आखिर *श्राद्ध* करें तो कैसे करें ? ऐसे में एक विद्वान ने उसे उचित मार्ग बताया और कहा अभी *कुतप काल* है शीघ्र ही घास काट कर पितरों के नाम पर गाय को खिला दो | तुम को *श्राद्ध* का फल मिल जाएगा | *वह दौड़ कर गया घास काट कर लाया और अपने पितरों के प्रति श्रद्धा पूर्वक उस घास को गाय को खिला दिया इस श्राद्ध के फलस्वरूप :--*
*एतत् पुण्यप्रसादेन् गतौ$सौ सुरमन्दिरम् !*
*-: पद्मपुपाण :-*
*अर्थात:-* उसको देव लोक की प्राप्ति हुई |
कभी-कभी ऐसी परिस्थिति भी आ जाती है कि घास का मिलना भी संभव नहीं होता *तब श्राद्ध कैसे करें ?* शास्त्रों ने इसका समाधान भी बताया है कि यदि *श्राद्धकर्ता* के पास ऐसी परिस्थिति हो कि उसके पास न शाक हो , न धन हो न घास हो , न लकड़ी हो तो *श्राद्धकर्ता* एकांत स्थान में चला जाय और दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपने पितरों से प्रार्थना करने लगे कि:---
*न मे$स्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोुयोग्यं स्वपितृन्नतो$स्मि !*
*तृप्यन्तु भक्त्या पितरौ मयैतौ कृतो भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य !!*
*अर्थात :-* हे मेरे पितृगण ! मेरे पास *श्राद्ध* करने के लिए ना तो धन है न धान्य ! हां , मेरे पास आपके लिए श्रद्धा एवं भक्ति है मैं इन्हीं के द्वारा आप को तृप्त करना चाहता हूं | आप तृप्त हो जायं ! मैंने (शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप) दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है | *श्राद्ध* कार्य में साधन संपन्न व्यक्ति को उसके *वित्तशाठ्य अर्थात कंजूसी नहीं करनी चाहिए* अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक *श्राद्ध* अवश्य करना चाहिए |
उपयुक्त विधानों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी प्रकार से *श्राद्ध* को अवश्य करना चाहिए | शासन ने तो स्पष्ट शब्दों में *श्राद्ध* का विधान दिया है और *श्राद्ध* न करने के लिए निषेध ही किया है | कहने का तात्पर्य है कि चाहे जिस प्रकार से हो अपने पितरों के लिए *श्राद्ध* अवश्य करना चाहिए |
*अतो मूलै: फलैर्वापि तथाप्युदकतर्पणै: !*
*पितृतृप्तिं पिरकुर्वीत् नैव श्राद्धं विवर्जयेत् !!*
*-: धर्मसिन्धु :-*
*अर्थात :-* धन से धन से , फल से , घास से , शाक से या अपनी *श्रद्धा से श्राद्ध को अवश्य करना चाहिए* पितरों को तृप्त करने का दायित्व तो सब का बनता है | *और अंत में कहा गया है कि श्राद्ध को किसी भी परिस्थिति में छोड़ना नहीं चाहिए |*