मोहब्बत का सिला
मेरी मोहब्बत का क्या सिला दिया तुमने,
सरेआम कितनी मोहब्बत है मुझसे ये पूछा तुमने,
मोहब्बत में कभी नाप-तोल नहीं होता, माना करते हो
बेइंतहा मोहब्बत तुम मगर मोहब्बत में कभी हिसाब-
किताब नंही होता।
माना हम ज़ुबां से मोहब्बत ब्यां कर ना सके,
मगर मूक मोहब्बत मेरी का तो आप भी दम भर ना
सके, किस तरह चांद में देखूं अक्स तेरा, तुझे तो हम
जी भर कर देख ना सके।
तेरी यादों की मुंडेर पर डेरा डाला है, नहीं होशअपनी
हमें, बस हर पल तेरे ख्याल में ही बसेरा है, नहीं मालूम
पड़ता कि कब बीतती है रात, कब हो जाता सवेरा है।
बिठा कर मन- मन्दिर में तेरी पूजा की है, तु माने ना
माने हमने तो तुझमें खुदा को देखा है। रखेंगे ज़ुबां पे
लगा के ताला, मोहब्बत को रूसवा ना होने देंगे, तेरी
मोहब्बत भी मेरा सरमाया है।
जाते हुए संग ग़ैर के अलविदा तुम कह गए, मिलेंगे
फिर कभी जाते-जाते तुम इतनी ताकीद करते गए।
तकते रहे हम राह तेरी तेरे जाने के बाद,
तुम आए मगर, मेरे इस दुनियां से जाने के बाद।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर) 184