कैसे लिखूं
कैसे लिखूं मैं उस पर गज़ल, वो शब्दों की पकड़ से दूर है,
कलम मेरी असमर्थ है उस पर लिखने के लिए, ऐसा गज़ब उसका हुस्न हज़ूर है।
सूरज, चांद-सितारे भी सामने उसके दीए लगते हैं, ऐसा उसका नूर है।
हवाओं में सूरूर उसी का, रंग भी उस बिन बेनूर हैं,
झूमते हैं पैमाने देख उसे, ऐसा नशा उसमें हजूर है।
वो चलती है इस तरह हिरणी भी अपनी चाल पे शरमा जाए,
चांद की चांदनी भी लजा जाए, जब हटा दें वो नकाब चेहरे से, ऐसा उसका जलवा पुरनूर है।
प्यार से जब वो नाम मेरा पुकारती है, कोयल को भी अपनी कूक पर लाज आती है,
राग भी लजाते है उससे, ऐसी सुरों की मल्लिका वो हजूर है।
क्या लिखूं कहानी मैं उसकी कोई, मेरी ज़िन्दगी की कहानी वो है,
क्या लिखूं कोई शेर उस पर, वो खुद एक ग़ज़ल है,
कैसे लिखूं मैं उस पर कोई कविता, वो कविताओं की रानी खुद ही तो हजूर है।
प्रेम बजाज ©®
जगाधरी ( यमुनानगर)