"दोहा"
हरिहर तुम बिन कौन अब हरे जगत की पीर
मंशा मानस पातकी शीतल करो समीर।।-१
प्रभु आया तुम्हरी शरण तुम हो तारणहार
तन मन धन अर्पण करूँ हे जग पालनहार।।-२
सुख संपति सुंदर भवन निर्मल हो व्यवहार
घात हटे घट-घट घृणा घटना हटे कुठार।।-३
मूरख मनवा हरि बिना भरे न भव्य विचार
कामधेनु बिन बाछड़ा महिमा अपरम्पार।।-४
पारिजात हरि बिनु कहाँ ऊसर कहाँ अनार
रजनीगंधा रात की दिन में कहाँ अन्हार।।-५
महातम मिश्र गौतम गोरखपुरी