" कहानी " “धान रोपाई”
धान पान अरु केरा, ई तीनों पानी के चेरा, बहुत पुरानी एक देशज कहावत है। यूँ तो पानी ही जीवन है, जलचर, थलचर और नभचर सभी इसी के सहारे हरे भरे रहते हैं। जीव- जंतु, जानवर, वनस्पति, पेड़- पौध, लता- पता इत्यादि से लेकर मानव तक की प्यास बुझाने वाला यह पानी, कुदरत द्वारा प्रदत्त एक अनमोल पेय रतन है। बिना इसके जीवन की कल्पना कर पाना संभावना से परे की बात है। विगत कुछ दशकों से इस पानी पर आशा- निराशा का घनघोर बादल छाया हुआ है, जो बरसना तो जानता है पर बरसना नही चाहता है। अपनी मर्जी का बेताज बादशाह बन कहीं जमीन डूबा रहा है तो कहीं सूखा रहा है। इसी पानी और समय के इंतजार में धरती पुत्र किसान कभी बादल का आभारी होकर हल चलाता रहा है तो कभी भिखारी बनकर खुद को जोतता रहा है। प्रकृति के अनुरूप सृष्टि के सभी बीजों को ऋतुओं के अनुसार अंकुरित होने का एक समय का निर्धारण अनादि काल से प्रचलन में है जिसके अनुसार प्रकृति भी सहायक बन कर अपने दायित्व का निर्वहन करती रही है पर वैभवमयी सुख सुविधा की अंधी दौड़ ने जबसे अतिक्रमण का मार्ग अपनाने के लिए विवश किया है शायद तभी से सबकी प्रताड़ना बढ़ गई है। परिणाम स्वरूप विष व विषाक्तता में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है, जलवायु परिवर्तन इस प्रभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है। कहीं अकारण मेघ का चीखना चिल्लाना तो कहीं शदियों से जमे हुए बर्फ पहाड़ो का पिघल जाना आम बात हो गई है। फल-फूल से लेकर साग-सब्जियाँ जहरीले स्वाद से कसैले हो गए हैं। अनाज रोग उपकारी हो गए हैं तो आचार-विचार घिनौनेपन के आभारी होकर प्रति- दिन अपनी उपज में बेतहाशा बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। जिसका सीधा प्रभाव खास से लेकर आम तक पड़ पर रहा है। औरों की क्या कहें, समझें न समझें पर दो बीघे जमीन के मालिक झिनकू भैया जरूर समझ गए कि अगर आराम से जीना है तो वातावरण को स्वच्छ रखना ही पड़ेगा, पेड़ पौधे लगाने ही पड़ेंगें।
गर्मी से निजात पाने के लिए व धान की फसल के लिए बरसात का इंतजार हर किसान को होता है। झिनकू भैया भी बादल तक रहे थे पर स्वाती के बूँद का कहीं नामोनिशान न था। जरई यानी धान का बीज तो किसी तरह पसीना बहाकर तपती जमीन के हवाले कर दिए। बेहन तैयार हो गई पर बिना पानी रोपाई?, मन ही मन सूखने लगे उम्मीद का पुलाव लिए, बेचारे झिनकू भैया, कि अचानक एक दिन बिना किसी संदेश के आसमाई टूट पड़ी और ताल तलैया उभरा गए। झिनकू भैया की तो बाँछे खिल गई और पहुँच गए अपने काँधे पर कुदाल लिए खेत के मेंड़ पर। लबालब पानी पसरा हुआ था, मेंढ़क गुर्रा रहे थे और बौछार भिगा रहा था, काँपते हुए घर आए और भौजी के अँचरा से मुँह पोछकर कर, जीते हुए खिलाड़ी के तरह फुदकने लगे। शाम को छप-छप करते हुए मजदूरों की टोह में चौराहे पर गए तो सारी खुशी छू-मंतर हो गई। सभी मजदूरों का एक जबाब, मुफ्त का पानी मिला है पहले हम अपने खेत में बीया धँसायेंगे, फिर रोज की सरकारी रोजी मनरेगा का काम देखेंगे। अभी कुछ दिन तो किसी और के काम पर जाना संभव नही है, माफ करिए, समय होता तो जरूर आते। जबाब सुनकर झिनकू भैया पसीने से एकबार फिर नहा गए और मुँह लटकाए घर आ गए। पानी पानी हो गया पर धान रोपाई न हो पाई। पानी भी तैयार, बीज भी तैयार, खेत भी उभराये हुए, पर हाय रे किसानी, मजबूरी की सुखरानी, कहीं सूखा कहीं जल भरानी, कभी मजदूरों की मेहरबानी से पंद्रह दिन बाद आज खेत और बेहन का मिलन हो पाया है, वह भी ड्योढ़ी मजदूरी पर और झिनकू भैया के भात- पसावन का जुगाड़ हुआ है। आगे न जाने क्या हो, यह कहावत भी जोरदार है, " हरियर खेती, गाभिन गाय, जब जानी, जब मुँह तर जाय। उम्मीद के साक्षात देव किसान झिनकू भैया का मनरेंग तो गया है धान रोपाकर, अब भौजी का मन पुलाव देखिए कब उबलता है।
महातम मिश्र 'गौतम' गोरखपुरी