"प्रेम और नियम"
हीर ने राँझा से, रोमियो ने जूलियट से तो मजनू ने लैला से क्या कहा होगा, कोई नहीं जानता, पर इतना तो जरूर कहा होगा कि प्रेम पवित्र है और इसे पवित्र ही रहना होगा। हम यह नहीं जानते प्रेम के मिशाल हम ही होंगे, हम प्रेमी हैं प्रेम करेंगे और अमर प्रेम की श्रृंखला में पावन प्रेम की पहचान को दृश्यमान करेंगे। आज वही दृश्य हर प्रेमी युगल के इर्द-गिर्द नाचता है झूमता है तो प्रेम गान भी करता है। महकता है छलकता है तो चपलता भी करता है। समय बदला तो प्रेम का आकार-प्रकार भी बदला, गली, सड़क, मोहल्ले के हर मोड़ पर हाथ में हाथ डाले, मुँह से मुँह मिलाए, अनेक हरकतें उपजकर कर सार्वजनिक रूप से दृष्टिगोचर होकर यह पूछने पर बाध्य कर रहा हैं कि क्या प्रेम के फरिश्तों ने यही संदेश दिया था, जबाब शायद ना में ही मिलेगा। अगर जबाब ना में है तो प्रश्न उठता है कि वे महान आत्माएं आज क्या सोच रहीं होंगी, क्या अपने वंश वेल से उनका संतुष्ट होना लाजिमी है, अगर नहीं तो क्या बिना संतुष्टि के प्रेम होता है?......अगर होता तो, अमरत्व न होता.....अगर नहीं तो विभत्सतता न होती। नियम और कानून के बंदिशों से मुक्त प्रेम अपनी परिभाषा खुद परिभाषित करता है, अपनी डगर खुद बनाता है और संस्कार संस्कृति की चादर ओढ़कर सदा के लिए सो जाता है। देव, ऋषि, संत-सूफी और स्वयं हरी भी जिसको गले से लगा लिए पर उपेक्षित न कर पाए। आत्मा से आत्मा के और आत्मा से परमात्मा के मिलन में कोई नियम कैसे आ सकता है, आया भी नहीं और अमरत्व को प्राप्त हो गया। आज कथित रोड रोमियों और शासन-प्रशासन एक दूसरे से आँख मिचौली खेल रहें हैं, कहीं ज्यादती तो कहीं बाध्यती भ्रमित होकर एक दूसरे से नियमों के हद में रहने का समझौता कर रहे हैं। वाह रे प्रेम और वाह रे नियम.....मजबूरी का नियम और बाध्यता का प्रेम......जायज है क्या?.....दोनों अपने-अपने आप से पूछें तो सही.......कदम और कलम तो चलती रहेगी.....दृश्य और वक्तव्य तो यही कह रहे हैं.....खैर, नियम और प्रेम दोनों हमारे लिए है और दोनों के अपने दायित्व हैं, निभा लिया तो प्रेम और नियम अन्यथा प्रदर्शन.....अति सर्वत्र वर्जयेत.....मन, कदम और कलम सभी संस्कार और संस्कृति के प्रतिरक्षक हैं.....सबके लिए दायित्व सर्वोपरि है......किसी को अवहेलना की छूट नहीं है न प्रेम निरंकुश हो न नियम.....आने वाली पीढ़ी शर्मिंदा न हो, इसकी जबाबदेही हमारे कंधों से होकर गुजरती हैं....... जय हो.....
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी