लघुकथा
"पुत्र- प्रेम"
अरमानों की बारात आयी और सगुन की शादी सिद्धार्थ के साथ बहुत ही छोटी उम्र में हो गई, जब वह इक्कीसवें बसंत पर कदम रखी तो उसका गौना हुआ और वह अपने सिद्धार्थ को पाकर विभोर हो गई। न जाने कितने सपने सजाई थी अपने बचपन के उन घरौंदों के साथ जो सखियों ने खेलते-कूदते साथ मिलकर बनाया था। अपने ख्यालों के महल की सगुन एक ऐसी रानी थी जो झूठ-मूठ के रनिवाश में कल्पना के झूले पर बैठकर अपने भावी ललन को दुलराया करती थी। समय ने ऐसा करवट लिया कि उसकी सभी सखियों की गोद में किलकारी गूँजने लगी लेकिन सगुन इस लालसा के लिए इंतजार ही करती रह गई। परिवार के सभी लोग उसकी अवहेलना करने लगे और गाँव ने तो उसे बाँझ की उपाधि से अलंकृत कर दिया। उसके पुत्र मोह को किसी ने नहीं देखा और सिद्धार्थ की दूसरी शादी की बात चलने लगी जिसे सुनकर सगुन विच्छिप्त सी हो गई और सिद्धार्थ जो विदेश में रहता था उसके पास जाने की जिद कर बैठी। शादी के बाद लगभग बारह साल तक की उसकी इंतजारी का समय अधिकतर पति के बिना ही गुजरा था जिसे सिद्धार्थ भी महसूस करता था और वह सगुन को अपने साथ ले गया, घर वालों से साफ कह दिया कि बिना औलाद रहना बेहतर है दूसरी शादी करने के बनिस्पत।
सगुन की जहाज़ समंदर के ऊपर हवा में उड़ने लगी और दो साल के बाद उसे (जुड़वा एक पुत्र और एक पुत्री) संतान का आशीष प्राप्त हुआ। आज वह अपने पाँच वर्षीय बच्चों को लेकर अपने वतन भारत लौटी है। सब के सब विस्मित है और सगुन अपने संतान सुख में गोते लगा रही है। उसका रनिवाश वर्षों की तपस्या के बाद आज दो दो झूला झुला रहा है चमत्कार देखिए एक की डोर सिद्धार्थ के हाथ में है तो दूसरी डोर सगुन के हाथ में है। आकाश और चाँदनी दोनों दौड़ रहे है और आँगन पुत्री का तो दरवाजा पुत्र प्रेम लुटा रहा है।सगुन ही सगुन है।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी