रंग- झलक
कहाँ से लाऊँ बसंत रे किसे लगाऊँ गुलाल
न होली होली रही न होलिका दहन धमाल
न सम्मत में जोश है नाही मन में उल्लास
अपने घर में बैठकर रंगफाग करे मलाल।।
रंग बरसे भीजे चुनर वाली,......बिरज में होली खेल ें नंदलाल......जब भी सुनाइ देता है मन फागुन बन रंग खेलने लगता है और गाँव की होली याद आ जाती है। दूर-दराज शहर के बंद कमरे में कोई न कोई ताल जबान पर आ ही जाती है जिसे गुनगुना कर एक उम्मीद और बढ़ जाती है कि जब भी गाँव की होली मिलेगी अरमान पुरे कर लेंगे। वर्षों इंतजार के बाद होली की शाम तो गाँव में आई पर नीरस और हतोत्साह होकर......न उमंग न मृदंग, न कबीर न अबीर...... कल कुछ बच्चों की कृपा हुई तो सम्मत गड़ गई, आज होलिका दहन है। कल धुलेटी और फिर नववर्ष....... बसंत आया और गया......न किसी के गले मिल सका न उसको किसी ने गले लगाया.....रंगपाल और द्विज छोटकुन का चौताल, बैसवारा, डेढ़ताल, यति, रसफाग सबके सब धरे के धरे रह गए मानों अतिशय बूढ़े हो गए हैं। जोगिरा सर र र र र और हार्दिक रंगीन बधाई खूब होली खेल रहे हैं अपने अपने तर्ज पर......बुरा न मानों होली है........शायद बदले हुए मिजाज की यही होली हो......गुझिया और मालपुआ खूब स्वादिष्ट है......और क्या चाहिए.......है.....न......रंगो से सराबोर......होली.....
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी