"देशप्रेम"का हो गया, जिसका सहज स्वभाव । उसके चेहरे पर सहज, अति उदात्त अनुभाव ।।
जैसी देशभक्ति में अभिपरिप्लुत रचनाओं से काव्य -जगत को प्रकाशमय करने वाले, प्रातिदैवसिक श्रवण -सुभग उद्बोधन रूपी वैतान द्वारा आत्मोत्सर्ग का पथ दिखाने वाले श्रवस्यानुरूप कुशल वक्ता लब्धप्रतिष्ठ वैद श्री ओम शङ्कर त्रिपाठी जी का एक और परिभाषण प्रस्तुत है :
स्थान : सरौंहां ईशावास्योपनिषद् के प्रथम छन्द के अनुसार त्यागपूर्ण उपभोग करते हुए इस संसार का आनन्द लें तभी आप संभूति असंभूति की जानकारी विद्या और अविद्या ज्ञान और कर्म का समन्वय कर पायेंगे l इसी उपनिषद् के अन्य छन्दों के साथ आचार्य जी ने विशेष रूप से पन्द्रहवें छन्द हिरण्मयेन पात्रेण... का उल्लेख किया ऋषि मोह नहीं करता है उसे तो परमात्मा जीवात्मा सृष्टि संसार ब्रह्माण्ड सभी सुस्पष्ट दिखाई देते हैं भारतीय जीवन दर्शन कहता है कि संसार में रहते हुए भी संसार में लिप्त न हों संसार, सृष्टि और सृष्टि का निर्माता ये सब गूढ़ हैं और गूढ़ ही रहेंगे भावुक जन ही महान् कार्य करते हैं अतः भक्ति, शौर्य, शक्ति के मूल आधार भावना का त्याग नहीं करें l प्रसंग : 1991/92 की बैरिस्टर साहब एक शिक्षक और छात्रों से संबन्धित एक मार्मिक घटना |