के उद्बोधन में आचार्य जी ने केनोपनषिद् के प्रथम मन्त्र केनेषितं पतति प्रेषितं मनः.... और दूसरे मन्त्र श्रोत्रस्य श्रोत्रं
मनसो मनो यत् वाचो....की व्याख्या की प्रकृति से हमारा जुड़ाव जितना दूर हो जाता है उतने ही हम अप्रकृत हो जाते हैंl कर्मानुसार हम कष्ट बीमारी गरीबी भोगते हैं l हम परमात्मा के प्रतिनिधि हैं हमारे भी तरह तरह के स्वरूप हैं हमें अपने पर विचार करना चाहिए विकार हमारे खाद बन जाएं विचार हमारे पुष्प बन जाएं यह परमात्मा की कृपा से हो सकता है |
लघु प्रसंग : 1. किसी ने चन्दन का फर्नीचर बनवाया था | 2. स्वयंसेवक श्री सेंगर जी से संबन्धित प्रसंग बताया | सत्त्वसम्पन्न महित कृतात्मन् आचार्य श्री ओम शंकर त्रिपाठी जी द्वारा कथित हितप्रवृत्त उद्बोधनों के अनवरत प्रवाह से हम लोग अनभिज्ञ नहीं हैं l इसी क्रम में प्रस्तुत है एक और सद्यस्क उद्बोधन |