“मुक्तक”
मचल रहा है चीन, गिन रहा अपना पौवा।
ले पंख दूरबीन, चढ़ाई करता कौवा।
काँव काँव कर नोंच, चोंच मारे है पगला-
अंगुल भर की जीभ, हिलाये कचरा हौवा।
धावा बोले मुर्ख, सुर्ख गाल नहीं तकता।
कबसे लहूलुहान, हुआ है घायल वक्ता।
झूठा उसका दंभ, खंभ छूकर दिखला दे-
बोल आक्रमण निंद, हिन्द का सूरज तपता॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी