एक-दूसरे कभी गांव में जब रामलीला होती और उसमें राम वनवास प्रसंग के दौरान केवट और उसके साथी रात में नदी के किनारे ठंड से ठिठुरते हुए आपस में हुक्का गुड़गुड़ाकर बारी-बारी से एक-एक करके-
“ तम्बाकू नहीं हमारे पास भैया कैसे कटेगी रात,
भैया कैसे कटेगी रात, भैया............
तम्बाकू ऐसी मोहिनी जिसके लम्बे-चौड़े पात,
भैया जिसके लम्बे चौड़े पात....
भैया कैसे कटेगी रात।
हुक्का करे गुड़-गुड़ चिलम करे चतुराई,
भैया चिलम करे चतुराई,
तम्बाकू ऐसा चाहिए भैया
जिससे रात कट जाई,
भैया जिससे रात कट जाई"
सुनाते तो हम बच्चों को बड़ा आनंद आता और हम भी उनके साथ-साथ गुनागुनाते हुए किसी सबक की तरह याद कर लेते और जब कभी हमें शरारत सूझती तो किसी के घर से हुक्का-चिलम उठाकर ले आते और बड़े जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर बारी-बारी यह गाना एक दूसरे को सुनाया करते। हम बखूबी जानते कि गांव में तम्बाकू और बीड़ी पीना आम बात है और कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इसलिए हम तब तक हुक्का-चिलम लेकर एक खिलाने की तरह उससे खेलते रहते, जब तक कि कोई बड़ा-सयाना आकर हमसे हुक्का-चिलम छीनकर, डांट-डपटकर वहाँ से भगा नहीं लेता। डांट-डपट से भी हम बच्चों की शरारत यहीं खत्म नहीं हो जाती। कभी हम सभी अलग-अलग घरों में दबे पांव, लुक-छिपकर घुसते हुए वहाँ पड़ी बीड़ी के छोटे-छोटे अधजले टुकड़े बटोर ले आते और फिर उन्हें एक-एक कर जोड़ते हुए एक लम्बी बीड़ी तैयार कर लेते, फिर उसे माचिस से जलाकर बड़े-सयानों की नकल करते हुए बारी-बारी से कस मारने लगते। यदि कोई बच्चा धुंए से परेशान होकर खूं-खूं कर खांसने लगता तो उसे पारी से बाहर कर देते, वह बेचारा मुंह फुलाकर चुपचाप बैठकर करतब देखता रहता। हमारे लिए यह एक सुलभ खेल था, जिसमें हमें बारी-बारी से अपनी कला प्रदर्शन का सुनहरा अवसर मिलता। कोई नाक से, कोई आंख से तो कोई आकाश में बादलों के छल्ले बनाकर धुएं-धुएं का खेल खेलकर खुश हो लेते हमारे देश में आज भी हम बच्चों की तरह ही बहुत से बच्चे इसी तरह बचपन में बीड़ी, हुक्का-चिलम का खेल खेलते हुए बड़े तो हो जाते हैं, लेकिन वे इस मासूम खेल से अपने को दूर नहीं कर पाते हैं। आज गांव और शहर दोनों जगह नशे का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। गाँव में भले ही आज हुक्का-चिलम का प्रचलन लगभग खत्म होने की कगार पर है, लेकिन शहरों में बकायदा इसके संरक्षण की तैयारी जोर-शोर से चल रही है, जिसके लिए हुक्का लाउंज खुल गए हैं, जहाँ हमारे नौनिहाल खुलेआम धुआँ-धुएं का खेल खेलकर धुआँ हुए जा रहे हैं। गांव में पहले जहांँ सिर्फ बीड़ी और हुक्का-चिलम पीने वाले हुआ करते थे, वहीं आज वे शहरी रंग में रंगकर गुटखा, सुपारी, पान-मसाला, खैनी, मिश्री, गुल, बज्जर, क्रीमदार तम्बाकू पाउडर, और तम्बाकू युक्त पानी खा-पीकर मस्त हुए जा रहे हैं।
हर वर्ष विश्व तम्बाकू निषेध दिवस आकर गुजर जाता है। इस दौरान विभिन्न संस्थाएं कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को तम्बाकू से होने वाली तमाम बीमारियों के बारे में समझाईश देते है, जिसे कुछ लोग उस समय गंभीर होकर छोड़ने की कसमें खा भी लेते है, लेकिन कुछ लोग हर फिक्र को धुंए में उड़ाने की बात कहकर उल्टा ज्ञान बघार कर- “कुछ नहीं होता है भैया, हम तो वर्षों पीते आ रहे हैं, एक दिन तो सबको ही मरना ही है, अब चाहे ऐसे मरे या वैसे, क्या फर्क पड़ता है“ हवा निकाल देते हैं। कुछ ज्ञानी-ध्यानी ज्यादा पढ़े-लिखे लोग तो दो कदम आगे बढ़कर “सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही“ कहते हुए ऐसे खाने-पीने वालों को श्रेष्ठ और इन चीजों से दूर रहने वालो को कर्महीन नर घोषित करने में पीछे नहीं रहते। उनका मानना है कि-
एक दिन विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर ही नहीं बल्कि इस बुरी लत को जड़मूल से नष्ट करने के अभियान में सबको हर दिन अपने आस पड़ोस, घर-दफ्तर और गांव-शहर से दूर भगाने के लिए संकल्पित होना होगा और ईश्वर ने हमें जो निःशुल्क उपहार दिए हैं- स्वस्थ शरीर, पौष्टिक भोजन, स्वच्छ हवा, निर्मल जल, उर्वरा शक्ति संपन्न भूमि व विविध वनस्पतियां, जीव-जन्तु व मानसिक बौद्धिक क्षमता जिनसे हमें निरन्तर आगे बढ़ने को प्रेरणा मिलती हैं, उसे सुरक्षित, संरक्षित कर अपनाना होगा।