तुम बसे नहीं इनमें आकर,
ये गान बहुत रोये ।
बिजली बन घन में रोज हँसा करते हो,
फूलों में बन कर गन्ध बसा करते हो,
नीलिमा नहीं सारा तन ढंक पाती है,
तारा-पथ में पग-ज्योति झलक जाती है ।
हर तरफ चमकता यह जो रूप तुम्हारा,
रह-रह उठता जगमगा जगत जो सारा,
इनको समेट मन में लाकर
ये गान बहुत रोये ।
जिस पथ पर से रथ कभी निकल जाता है,
कहते हैं, उस पर दीपक बल जाता है ।
मैं देख रहा अपनी ऊँचाई पर से,
तुम किसी रोज तो गुजरे नहीं इधर से ।
अँधियाले में स्वर वृथा टेरते फिरते,
कोने-कोने में तुम्हें हेरते फिरते ।
पर, कहीं नहीं तुमको पाकर
ये गान बहुत रोये ।
कब तक बरसेगी ज्योति बार कर मुझको ?
निकलेगा रथ किस रोज पार कर मुझको ?
किस रोज लिये प्रज्वलित बाण आओगे,
खींचते हृदय पर रेख निकल जाओगे ?
किस रोज तुम्हारी आग शीश पर लूँगा,
बाणों के आगे प्राण खोल धर दूँगा ?
यह सोच विरह में अकुला कर
ये गान बहुत रोये ।
(१९५३ ई०)