(कवि की साठवीं वर्ष गांठ पर)
रेशम के डोरे नहीं, तूल के तार नहीं,
तुमने तो सब कुछ बुना साँस के धागों से;
बेंतों की रेखाएं रगों में बोल उठीं,
गुलबदन किरन फूटी कड़ियों की रागों से ।
चीखें जब बनतीं टेक, अंतराएँ आहें,
मन की कचोट जब पिघल गीत में घुलती है;
दुनिया सुनती चुपचाप आप अपने भीतर,
आँखें भीगें, लेकिन, जबान कब खुलती है ?
ये खूब कुहासे लाल-लाल झीने-झीने,
यह खूब घटा रंगीन सँवरकर छाई है।
दुलहन कोई है छिपी? या कि मंजूषा में
धरती की पहली उषा सिमट कर आई है ?
तुम साठ साल के हुए, साठ ही और लगें;
पर, यह दुलहन क्या कभी मलिन हो पाएगी ?
हर भोर कली पर नई-नई शबनम होगी,
हर रोज वेदना रंगों-बीच नहाएगी ।
है कौन सत्य? पत्ते जिसके झरते रहते ?
या वह जिसमें नित नूतन पत्र निकलते हैं ?
दो रूप, एक से नाश हमें अनुगत करता,
दूसरा, मृत्यु पर हमीं पाँव दे चलते हैं ।
(1950 ई०)